बैलगाड़ी पर मायालोक

आज की ‘मल्टीप्लेक्स पीढ़ी’ को उस दौर की बातें एक पीरियड फिल्म की तरह लग सकती हैं जब सिनेमाहॉल में दर्शक नहीं जाते थे बल्कि सिनेमाहॉल ही उनके द्वार पर पहुंचता था. वह टूरिंग टॉकीजों का दौर था. फिल्म वितरक एक बैलगाड़ी पर पूरी टॉकीज को बिठाकर  कर गांव-गांव ले जाते थे. बांस और कपड़े की मदद से अस्थायी टॉकीज बनती थी और बनते थे देश के सेलीब्रिटी. छत्तीसगढ़ में रायपुर के ललित तिवारी और मुंगेली के बल्लभभाई सोलंकी (हाल ही में दिवंगत हुए) और उनके पुत्र धनेश सोलंकी इसी
पीढ़ी के सदस्य हैं जिन्होंने गांव-देहातों में पहली बार हिंदी सिनेमा की पैठ बनाई.

तहलका से इन लोगों ने उस दौर की फिल्मों, टूरिंग टॉकीजों की मुश्किलों, दर्शकों की प्रतिक्रियाओं सहित कई अनुभवों को साझा किया. ललित तिवारी बताते हैं, ‘जब चालीस-पचास साल पहले फिल्मों के प्रदर्शन का काम प्रारंभ किया तब लोगों के साथ-साथ घरवालों ने भी यह मान लिया था कि हमारी लाइन बिगड़ गई है. उन्हें बहुत बाद में समझ आया कि फिल्में दशा और दिशा भी बदल सकती हैं.’ इसका एक उदाहरण देते हुए वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं , ‘जब वी शांताराम की  फिल्म दुनिया ना माने  सिनेमा हॉल में लगी थी तब बेमेल विवाह करने वाले लोगों के बीच हलचल मच गई थी. फिल्म ‘दहेज’ ने तो समाज के एक बड़े वर्ग को आंदोलित-सा कर दिया था.’ 24 मार्च, 1939 को जन्मे ललित तिवारी अब तो काफी वृद्ध हो गए हैं लेकिन मौका मिलते ही वे अपने पुराने दिनों के सफर में लौटना नहीं भूलते. एक फिल्म प्रदर्शक की हैसियत से छत्तीसगढ़ के छोटे-बड़े इलाकों में रामराज्य, पनघट, भरत-मिलाप, हर-हर महादेव, स्वर्ण सुंदरी, नागिन  जैसी कई सुपरहिट फिल्मों का प्रदर्शन करने वाले ललित तिवारी ने फोटोफोन, बावर, केली और सुपर सिम्पलेक्स ( फिल्म दिखाने वाली मशीन) जैसी कई मशीनों वाला सुनहरा दौर देखा है. फिल्म के वितरण और प्रदर्शन के क्षेत्र में लंबा समय व्यतीत कर चुके तिवारी को कुछ फिल्मों का अनोखा प्रचार अब भी याद है. जेमिनी प्रोडक्शन की रंजन अभिनीत फिल्म चंद्रलेखा  का उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि फिल्म की पहली पेटी रायपुर रेलवे स्टेशन से हाथी-घोड़ों के जुलूस के साथ लाई गई थी.

धनेश सालंकी ने भी फिल्मों के प्रचार के इस तरीके को काफी करीब से देखा है. देश के सबसे बड़े सेंट्रल सर्किट सिने एसोसिएशन के प्रारंभिक सदस्य एवं छत्तीसगढ़ में टूरिंग सिनेमा के जन्मदाता के रूप में विख्यात मुंगेली के बल्लभभाई सोलंकी के बेटे धनेश बताते हैं कि वे बचपन से अपने पिता के साथ बैलगाड़ी में रील की पेटी के साथ चावल-आटा-दाल बांधकर गांव-देहात घूमा करते थे. वे बताते हैं, ‘एक फिल्म बारात  जिसमें अजीत थे, के प्रदर्शन के दौरान उनके पिता ने अचानक यह तय किया कि बारात निकाली जानी चाहिए. उनके इस फैसले के बाद एक टूरिंग टॉकीज के गेटकीपर को दूल्हा बनाया गया तो दूसरी टाकीज के गेटकीपर को दुल्हन. बारात निकली और धूम से निकली. कई गांव के लोग बाराती बने और फिल्म बारात  चल निकली. इसी तरह फिल्म पतंग  के प्रचार के लिए बच्चों के बीच पतंग बांटी गई थी.’  धनेश मानते हैं कि पुराने फिल्म वितरक एवं प्रदर्शक अश्लीलता के विरोधी हुआ करते थे. वे ऐसी ही एक घटना का जिक्र करते हैं, ‘एक फिल्म में हीरोइन नलिनी जयवंत हीरो को आंख मारकर रिझाती थीं. इस दृश्य के आते ही दर्शक हो-हल्ला मचाते हुए जमीन पर लोटने लगते थे. वितरक कुछ दिनों तक हो-हल्ला बर्दाश्त करते रहे अंततः उन्होंने सेंसर की परवाह किए बगैर आंख मारने वाले दृश्य पर कैंची चला दी.’  सोलंकी मानते हैं कि जब तक फैशन धोती-कुर्ते, पैंट-शर्ट यहां तक बैलबाटम में सीमित था तब तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था लेकिन जब पैंट की जगह हाफपैंट और साड़ी की जगह बिकनी ने ले ली तब गड़बड़ियां शुरू हो गईं. तब फिल्में देखने के लिए काफी दर्शक जुटने लगे. टूरिंग टॉकीजें बिककर टॉकीजें बन गईं. लेकिन बाद में जब दर्शकों को किनारे करके फिल्में बनने लगीं तो इन टाॅकीजों के एक गोदाम में तब्दील होने में भी देर नहीं लगी. रायपुर के ललित तिवारी अपने संघर्ष के बाद शारदा, मनोहर, लक्ष्मी और अमर छविगृह के प्रोप्राइटर बन बैठे थे. अब उनके पास मात्र एक छविगृह श्याम मौजूद है. इसी तरह मुंगेली के बल्लभभाई सोलंकी की आखिरी ख्वाहिश राधाकृष्ण छविगृह ने भी हाल ही में दम तोड़ दिया है. सोलंकी के पुत्र धनेश कहते हैं, ‘पिता जी के सिनेमाई जुनून ने हमारे परिवार के आठ लोगों का पेट पाला, लेकिन हम आठ लोग उनके एक सिनेमाहॉल को नहीं बचा पाए.’ 

‘गांव के गुंडों को फ्री में फिल्म दिखाते थे’

किसी गांव में लगने वाले मेले को एक भरा-पूरा मेला तब तक नहीं माना जाता था जब तक वहां सिनेमा का प्रदर्शन न हो. एक खुले मैदान को बांस-बल्लियों और बोरे से घेरने के बाद मचान पर खड़े होकर कोई चिल्लाता था- चले आइए.. चले आइए… हाजिर की हुज्जत नहीं, गैर की तलाश नहीं. हंसने-हंसाने के लिए हो जाइए तैयार. सिर्फ दो आने का खेला है साहेब… पूरे परिवार को गुदगुदाने के लिए आ गए हैं शेखचिल्ली भगवान दादा. साथ में है महिपाल और आपके रातों का कत्ल करने वाली हसीना श्य..या…य्यामा.

टाकीज के बाहर निर्मित किए एक मचान पर एक व्यक्ति टिन वाली पेटी जिसमें फिल्म वितरक कंपनी का नाम अंकित रहता था, लेकर मौजूद रहता था. पेटी के एक हिस्से में दो आने (बारह पैसे)  रखे जाते थे और फिर दर्शकों को टिकट थमा दी जाती थी. फट्टा टॉकीज के भीतर प्रवेश करने के बाद बीड़ी-सिगरेट सुलगाने की छूट इस चेतावनी के साथ दी जाती थी कि परदा जला तो जुर्माना भुगतना होगा. जुर्माना नहीं देने पर जेल की हवा खानी होगी. हां एक बात और यह कि फट्टा टॉकीज जिस जगह लगती थी उस इलाके के कुंदन-सुंदन मसलन छुरे-चक्कू और कटार रखने वाले दादाओं को फोकट में फिल्म दिखाई जाती थी. कुछ इलाकों में वहां के रसूखदार व्यक्ति को प्रत्येक रात के लिए बतौर मुख्य अतिथि के तौर पर बुक कर लिया जाता था. मुख्य अतिथि प्रोजेक्टर के बगल में बैठकर चाय-नाश्ता तो करता ही था हर शो में वह एक ही बात दोहराता था- चुपचाप सनेमा देखो बे… दिमाग मत खराब करो… क्यों गांव के नाम को बट्टा लगा रहे हो सालो… बस चारमीनार सुलगाने के बाद मूंछों पर ताव देने वाली इतनी घुड़की सबके लिए पर्याप्त होती थी.

                                                                                                                                    – ललित तिवारी

 

 

‘महिलाओं को लगता था कि सारे हीरो बाएं हाथ से ही घूंसे चलाते हैं’

रायपुर के ललित तिवारीटाकीज के बीचोबीच सफेद परदा टांगा जाता था. मर्द सामने बैठते थे जबकि महिलाएं पर्दे के पीछे. अमिताभ बच्चन ने तो बहुत बाद में उल्टे हाथ से घूंसे चलाए. हकीकत यह थी कि प्रोजेक्टर के दूसरे छोर में बैठने वाली औरतों को हमेशा से यही लगता था कि जो हीरो होता है वह उल्टे हाथ से ही सब कुछ करता है. कुंआरी लड़कियां रूमालों में हीरो का नाम काढ़ती थीं. जबकि कुंआरे लड़के हीरोइनों के दीवाने हुआ करते थे. कोई अपने आपको खुर्शीद का दीवाना बताकर खुश होता था तो कोई स्वर्णलता के पीछे पागल था. फिल्म शुरू होती थी तो फिल्म आनंदमठ का एक गीत चोंगे में जरूर बजता था- हरे मुरारे मधु कैटभ हारे.. गोपाल गोविंद मुकुंद शौरे….जय जगदीश हरे. इस गीत के बाद प्रोजेक्टर चालक एक बार फिर चोंगे से चेतावनी देता था- ‘मेहरबान. सावधान. हम आज का खेला शुरू करने जा रहे हैं. फिल्म में रील बदलने के दौरान दो छोटे और एक बड़ा मध्यांतर किया जाएगा. कृपया शांति बनाए रखिएगा. जो शोर मचाएगा उसे बाहर कर दिया जाएगा.’ रील बदली जाती थी तो सिसकारियों और चीखों के साथ सीटियां बजती ही थीं. कई बार तो बात मादर-फादर से होते हुए सिनेमा मालिक के खानदान के कपड़े उतारने तक पहुंच जाती थी. इसी एक मुद्दे पर गेटकीपर की एंट्री होती थी. वह हर चेहरे पर रोशनी फेंककर यह जानने की कोशिश करता था कि आखिर वह शख्स कौन हैं. आखिर में इस ड्रामे का अंत ऐसे होता था कि शख्स दर्शकों के बीच मौजूद किसी जासूस की वजह से पकड़ा जाता या बोरे को चीरते हुए भाग खड़ा होता.

                                                                                                                                                                                      -धनेश सोलंकी