बीटी बैंगन और देश की सेहत का भर्ता

बीटी बैंगन और देश की सेहत का भर्ता

एक मामूली-सी सब्जी राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा कैसे बन सकती है? शोमा चौधरी बता रही हैं कि किस तरह बीटी बैंगन हमारी जिंदगी के हर पहलू से जुड़ा है और अगर आप इसपर हो रही बहस का हिस्सा नहीं हैं तो मुमकिन है कि कुछ समय बाद प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल होने वाले चूहों की जगह आप हों

कल्पना कीजिए कि एक साधारण-सा बैंगन भेस बदलने वाला ऐयार बन जाता है और आप नहीं जानते कि उसके इरादे अच्छे हैं या बुरे. या फिर रोटी के साथ आप जिस सब्जी को खाने जा रहे हैं वह कीटनाशक है, तो शायद आप बीटी बैंगन पर मचे बवाल को कुछ-कुछ समझ सकेंगे.

9 फरवरी को जब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीटी बैंगन के आगमन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किया तब वे असल में एक ऐसे विनाश को स्थगित कर रहे थे जिसकी भरपाई भी शायद संभव न होती. उनके इस फैसले ने हर किसी को यह सोचने, समझने और जानने का समय दिया है कि दांव पर क्या लगा है.

हमारे यहां आम तौर पर विज्ञान और कृषि के बारे में बात ही नहीं की जाती. ज्यादातर शहरियों के लिए किसानों और सब्जियों की बातें बोरिंग होती हैं. यदि कोई आपसे कहे कि बीटी बैंगन राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है तो संभव है कि आप उसकी खिल्ली उड़ाएं. मगर ऐसे भी लोग हैं जो देसी बैंगन के समर्थकों की तुलना मंगल पांडे और भगत सिंह से कर रहे हैं और इसे बचाने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई को इक्कीसवीं सदी का स्वाधीनता संग्राम बताते हैं. यह अतिशयोक्ति तो है लेकिन इससे भारत में चल रही पूरी बहस का अंदाजा तो हो ही जाता है. वह बहस, जो हमारी जिंदगी के हर पहलू से जुड़ी है- स्वास्थ्य, खाद्य पदार्थों की कीमतों, जैव-संपदा, आर्थिक सुरक्षा, हमारी संप्रभुता और पूरे भविष्य से. अगर आप इस बहस का हिस्सा नहीं हैं तो मुमकिन है कि कुछ समय बाद प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल होने वाले चूहों की जगह आप ले लें.

हालांकि जयराम रमेश ने इस स्थगन को अनिश्चितकालीन बताया है, मगर आशंका यह है कि यह बहुत छोटा भी हो सकता है. इसीलिए इस बहस में आपका शामिल होना और भी जरूरी हो जाता है. खासकर तब जब मीडिया और सरकार का एक वर्ग हमें यह सिखाना चाह रहा हो कि आम आदमी को विज्ञान के मामले में दखल देने की कोई जरूरत नहीं है. इसी कड़ी में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री पृथ्वीराज चव्हाण इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं देश की वैज्ञानिक उन्नति को विरोध प्रदशर्नों और नारों से नहीं रोका जाना चाहिए. अप्रत्यक्ष रूप से वे शायद पूरी बीटी लॉबी की नाराजगी को जुबान दे रहे हैं.

इस पूरे मामले पर कितना धन दांव पर लगा है, इसपर एक नजर डालते ही आपको इस नाराजगी की वजह समझ में आ जाएगी. भारत के पास विश्व का आठवां सबसे बड़ा बीज बाजार है और प्रतिवर्ष करीब 1 अरब डॉलर का कारोबार करने वाला यह बाजार फिलहाल असंगठित और सरकारी क्षेत्र के हाथ में है. कंपनियों की नजर इसी पर है. बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीज उद्योग में कॉर्पोरेट का दखल प्रतिवर्ष 15 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और इस बाजार का 80 प्रतिशत से भी अधिक क्षेत्र अभी उनकी पहुंच से बाहर है. लेकिन बीटी बैंगन तो सिर्फ दिखाने का दांत है. इसके पीछे 41 बीटी फसलें अनुमति के इंतजार में खड़ी हैं. चावल, आलू, टमाटर, भिंडी से लेकर गेहूं तक. एक अरब भारतीय पेटों का निजीकरण होना था और जयराम रमेश ने उसमें अड़ंगा लगा दिया है. इससे जुड़े उद्योग खुश कैसे रह सकते थे?

संसद के इसी सत्र में जैव-प्रौद्योगिकी विभाग – जो विज्ञान मंत्रालय के अधीन है और जिसका काम है जीन संवर्धित (जीएम) फसलों को बढ़ावा देना – एक बेतुका कानून लाने जा रहा है: राष्ट्रीय जैव-प्रौद्योगिकी नियंत्रक प्राधिकार विधेयक 2009 (एनबीआरएआई). अभी तक गुप्तरखा जा रहा यह विधेयक अलोकतांत्रिक और मनमाने नियमों से भरा पड़ा है. सबसे पहले तो यह पर्यावरण मंत्रालय की समिति से जीएम फसलों को पास करने या रोकने का अधिकार छीनकर विज्ञान मंत्रालय की तीन सदस्यीय समिति को देना चाहता है. इसका मतलब होगा- उनके आसानी से पास हो जाने की गुंजाइश बढ़ना और एक नैतिक, पर्यावरणीय, आर्थिक और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे को नितांत तकनीकी मुद्दा बना देना.

यही नहीं, पारदर्शिता बढ़ाने की बजाय यह विधेयक चाहता है कि कंपनियों को अपनी व्यावसायिक सूचनाएं छुपाने के लिए कानूनी संरक्षण मिल जाए. (यह गौर करने लायक बात है कि माहिको द्वारा जमा की गई बीटी बैंगन जैव-सुरक्षा फाइल को सार्वजनिक करवाने के लिए ग्रीनपीस को जैव-प्रौद्योगिकी विभाग से ढाई साल लंबी आरटीआई की लड़ाई लड़नी पड़ी थी. माहिको ही वह कंपनी है जिसने दुनिया की सबसे बड़ी अमेरिकी बीज कंपनी मोंसेंटो के साथ मिलकर भारत में यह फसल तैयार की है. विभाग कहता रहा कि उस फाइल को सार्वजनिक करने से माहिको के व्यावसायिक हितों को नुकसान पहुंचेगा. बाद में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद उसे ऐसा करना पड़ा.)

यह बिल भारत के संघीय स्वरूप के भी विरुद्ध है और राज्य सरकारों से कृषि एवं स्वास्थ्य संबंधी अधिकार छीनकर उसी तकनीकी समिति को देना चाहता है (इसकी वजहें शायद इस तथ्य में छिपी हैं कि अब तक अलग-अलग पार्टियों की दस राज्य सरकारें इन फसलों को अनुमति देने से मना कर चुकी हैं). बहुत सारी बेतुकी धाराओं के बीच इस बिल की सबसे चौंकाने वाली धारा 63 है, जो सबूतों और किसी वैज्ञानिक आधार के बिना जीएम फसलों के प्रति जनता को गुमराह करने की कोशिशपर जुर्माने और दंड की सिफारिश करती है. इसके सहारे आप सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को महज सवाल उठाने के जुर्म में जेल में डाल सकते हैं.

भारत में बीटी फसलों को बोने को लेकर इतनी हड़बड़ी क्यों है? अगर ये वाकई जनता के भले के लिए हैं तो फिर किसी बहस से डर कैसा? यदि बीटी के समर्थक इस बहस को जनता की पहुंच से दूर ले जाने में सफल हो जाते हैं तो यह देश के लिए सबसे विनाशकारी घटना होगी. आप जयराम रमेश से सहमत हों या नहीं, पर जिस तरह से उन्होंने बीटी बैंगन का यह निर्णय लिया है वह हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत तो है ही. जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति (जीईएसी) – जिसके पास फिलहाल जीएम फसलों को अनुमति देने का अधिकार है – ने 14 अक्टूबर, 2009 को इन फसलों को व्यावसायिक रिलीज के लिए हरी झंडी दिखा दी थी. जयराम रमेश ने इस रिपोर्ट को अपने मंत्रालय की वेबसाइट पर डाला और 31 दिसंबर, 2009 तक इसपर आम राय मांगी. उन्होंने सात सार्वजनिक चर्चाएं करवाईं – जिनमें वैज्ञानिक, कृषि विशेषज्ञ, किसानों के संगठन, उपभोक्ता समूह और स्वयंसेवी संगठन शामिल थे – और 9 फरवरी, 2010 को अपने स्थगन संबंधी निर्णय की घोषणा करने के कुछ समय बाद ही उससे जुड़ा सारा विवरण अपने मंत्रालय की वेबसाइट पर डाल दिया. उसमें उन्होंने जनता की प्रतिक्रियाएं और वे सारे कारण साफ-साफ लिखे थे, जिन्होंने उन्हें यह निर्णय लेने के लिए बाध्य किया. 

यह न होता तो शायद पूरी कहानी कभी रोशनी में भी न आती. टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के निदेशक डॉ एस परशुरामन, जो बीटी बैंगन के मूल्यांकन के लिए बनी पहली एक्सपर्ट कमेटी और विशेष तकनीकी समीक्षा समिति में थे, को दूसरी एक्सपर्ट कमेटी में शामिल होने का न्यौता नहीं मिला. पहली कमेटी में अपने अनुभवों के आधार पर वे कहते हैं कि उन्हें पता था कि यही होगा. वे बताते हैं, ‘हमारा काम थामाहिको और उससे जुड़ी संस्थाओं द्वारा दी गई रिपोटरें को पढ़ना. मैंने 5,000 पन्ने पढ़े और अपनी राय लिखकर दी. जहां तक मैं जानता हूं, मैं ऐसा इकलौता शख्स था. उन रिपोटरें में जिस तरह की वैज्ञानिक कोताही बरती गई थी उसे देखकर मैं चकित था. न कोई निष्पक्ष विश्लेषण था और न ही कोई जवाबदेह कार्यप्रणाली. 99 फीसदी संस्थाओं की रिपोर्टें ऐसे रिसर्च कार्यक्रमों के आधार पर लिखी गई थीं जिन्हें माहिको ने फंड किया था. हर बैठक में सब वैज्ञानिक और भी ज्यादा संतुष्ट दिखते थे. ऐसा लगता था कि बीटी फसलों के दुष्परिणामों के बारे में वे एक बार भी नहीं सोचते. उनकी सारी बहस इन फसलों को अनुमति देने के इर्द-गिर्द ही घूमती थी.

परशुरामन का यह वक्तव्य उस समिति के निष्कर्षों की पुष्टि करता है जिसमें कई प्रतिष्ठित भारतीय और 18 अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक शामिल थे. 8 फरवरी को इन वैज्ञानिकों ने पृथ्वीराज चव्हाण के एक पत्र की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक पत्र लिखा. पृथ्वीराज चव्हाण ने वह पत्र जुलाई, 2009 में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ अंबुमणि रामादौस के प्रधानमंत्री के नाम लिखे गए एक पत्र के जवाब में लिखा था. तब वे प्रधानमंत्री कार्यालय में एक राज्य-मंत्री थे.

रामादौस ने अपने खत में जीएम खाद्य पदार्थों से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले संभावित परिणामों को लेकर चिंता जताई थी. चव्हाण ने अपने उत्तर – जो करीब पांच महीने बाद लिखा गया था – में लिखा था,  ‘आपके पत्र में जिन मुद्दों का जिक्र किया गया है उनकी अत्याधुनिक वैज्ञानिक आधारों पर सावधानी से जांच कर ली गई है.एक्सपर्ट कमेटी के सदस्यों ने अब यह भेद खोला है कि चव्हाण के पत्र की ज्यादातर पंक्तियां जैव-तकनीकी उद्योग की प्रचार सामग्री से ज्यों-की-त्यों उठाई गई थीं. खासकर आईएसएएए से जो एक प्रकार का छद्म वैज्ञानिक संगठन है जिसमें मोंसेंटो और बायोटेक्नोलॉजी की अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां निवेश करती हैं. इस संगठन का मकसद है, विकासशील देशों में जीएम फसलों की व्यावसायिक घुसपैठ करवाना.

इस पत्र में इन वैज्ञानिकों ने चव्हाण के सभी दावों का खंडन करने के साथ-साथ प्रधानमंत्री से यह निवेदन भी किया है कि भारतीय जनता की सुरक्षा और किसानों की भलाई के लिए जीएम फसलों पर फिर से विचार किया जाए. यदि जयराम रमेश ने तथाकथित विज्ञानके बदले आम आदमीको न चुना होता तो हम आज अपनी डाइनिंग टेबल पर आराम से बैठकर दूसरी हरित क्रांति की घोषणाओं को टीवी पर देखते हुए बिना अपनी मर्जी के, बिना परीक्षण और बिना लेबल के बीटी बैंगन खा रहे होते.

सबसे जरूरी सवाल तो यह है कि क्या हमें बीटी बैंगन की जरूरत है? भारत बैंगन का जनक देश है और हमारे यहां बैंगन की तकरीबन 2,400 किस्में पैदा होती हैं. यह सिर्फ 5 लाख हेक्टेयर में उगाया जाता है और इसका सालाना उत्पादन 80 लाख टन है. जब हमारे यहां बैंगन की कोई कमी ही नहीं है तब हमें ऐसी सब्जी का इस्तेमाल करने को क्यों कहा जा रहा है जिसमें संक्रामक बीटी जीन होगा और जो दुनिया की पहली ऐसी बीटी फसल बनेगी जिसका सीधा उपयोग इनसान करेंगे, बिना किसी प्रोसेसिंग या मवेशियों पर प्रयोग किए बिना.

बीटी, बसिल्लस थुरिजिएन्सिस नाम के एक जीवाणु का संक्षिप्त नाम है, जो मिट्टी में पाया जाता है और ऐसे प्रोटीन बनाता है जिनके सेवन से कीड़े मर जाते हैं. 1980 के आसपास मोंसेंटो ने एक ऐसी तकनीक का पेटेंट लिया जिसमें इस जीवाणु के एक कीटनाशक जीन को बीजों में डालकर एक तरह से पौधे को ही कीटनाशक बना दिया जाता है. बताया जा रहा है कि इस पौधे को खाने वाला कीड़ा मर जाता है, मगर उसे खाने वाले आदमी का क्या होता है यह ठीक से कोई नहीं जानता. वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉ समीर ब्रह्मचारी, जो जीएम खाद्यों के बड़े समर्थक भी हैं, कहते हैं, ‘मनुष्य के शरीर में बीटी जीन कोई असर नहीं कर सकता, इसलिए ये खाद्य पूरी तरह सुरक्षित हैं.मगर बाकी वैज्ञानिक बताते हैं कि यह सुनिश्चित करने के लिए अभी पर्याप्त टेस्ट नहीं हुए हैं और अभी आप नहीं कह सकते कि अंदर जाकर यह जीवाणु किस तरह से रूप बदलकर आपके शरीर पर हमला कर दे.  

अपने आविष्कार के समय से ही बीटी खाद्य ऐसी बहसों का कारण बने रहे हैं. इनके समर्थक कहते हैं कि ये ज्यादा पैदावार देते हैं, सुरक्षित हैं और किसानों का कीटनाशक का खर्च बचाते हैं. इनका विरोध करने वाले लोगों के पास कहीं ज्यादा गहरे और खतरनाक प्रश्न हैं. ये मानव स्वास्थ्य के लिए कितने    सुरक्षित हैं? क्या इनपर पर्याप्त परीक्षण कर लिए गए हैं? हम कैसे भरोसा कर सकते हैं कि इन खाद्यों को कड़ी प्रक्रिया से गुजारने के बाद अनुमति दी गई है? परागण से ये फसलें वातावरण को प्रदूषित करेंगी तो आप कैसे रोकेंगे? इसके अत्यधिक उपयोग को कैसे काबू में करेंगे? जो जैव-विविधता इनसे नष्ट होगी उसे कैसे वापस लाएंगे? क्या ये सब तरह के कीड़ों पर उतनी ही असरदार हैं जितनी कुछ खास किस्म के कीड़ों पर? और क्या इन कीड़ों में कुछ समय बाद प्रतिरोध क्षमता तो विकसित नहीं हो जाती है? कीटनाशक के गुण के अतिरिक्त इन फसलों में ऐसा क्या है कि पैदावार ज्यादा हो? ये बीज ऐसे हैं कि हर साल किसानों को बाजार से नए खरीदने पड़ेंगे और इनकी कीमत भी कम नहीं है, फिर आप किसानों के कौन-से फायदे की बात कर रहे हैं? जीएम खाद्यों पर कोई लेबलिंग भी नहीं होगी, तब वह उपभोक्ता क्या करेगा, जो साधारण खाद्य खाना चाहता है? क्या उसके चुनने के अधिकार को खत्म करना अनैतिक नहीं है? क्या इन बीजों में टर्मिनेटर जीन हैं? और यदि मोंसेंटो जैसी कंपनियों के पास इन बीजों के पेटेंट होंगे तो क्या हम अपने खाने का नियंत्रण भी प्राइवेट कंपनियों को सौंपने जा रहे हैं?

इन सब दावों और सवालों के जवाब जानने के लिए फिलहाल हमारे पास 4 तजुर्बे हैं- बीटी बैंगन की कहानी, बीटी कपास के हमारे अनुभव, बीटी फसलों के दुनिया भर के अनुभव और मोंसेंटो की कहानी. दुर्भाग्यवश, बीटी बैंगन की अब तक की कहानी सुखद नहीं है. अब तक कोई स्वतंत्र परीक्षण नहीं करवाया गया है और जीईएसी द्वारा दी गई अनुमति का आधार वे आंकड़े हैं जिन्हें माहिको और उससे जुड़े संगठनों ने ही उसे दिया है. भारत के जाने-माने सूक्ष्म-जीवविज्ञानी डॉपी एम भार्गव, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जीईएसी के काम पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया गया है, ने माहिको द्वारा जमा किए गए और जीईएसी द्वारा पास किए गए जैव-सुरक्षा के कागजों पर 29 आपत्तियां उठाई हैं. उनके पास परेशान कर देने वाली सच्चाइयां हैं, जिनमें से एक यह भी है कि कुछ परीक्षणों के लिए तो सैंपल ही गलत लिया गया था.

भारत में मोंसेंटो के पूर्व प्रबंध-निदेशक टीवी जगदीशन तहलका से बातचीत में कह चुके हैं कि मोंसेंटो पहले भी अपने कृषि-रसायनों के लिए खुद के आंकड़ों के आधार पर कीटनाशक बोर्ड से स्वीकृति पाती रही है. आंध्र प्रदेश के एक विश्वविद्यालय के कुलपति और दूसरी एक्सपर्ट कमेटी (जिसने बीटी बैंगन को अनुमति दी) के सह-अध्यक्ष डॉ अर्जुन रेड्डी इन आरोपों को गलत बताते हैं. वे कहते हैं कि कानूनन जो भी परीक्षण जरूरी थे सब किए गए हैं. वे कहते हैं कि हो सकता है कि कुछ और भी टेस्ट जरूरी हों. मगर फिर वे यह भूल जाते हैं कि उन्हें उपभोक्ताओं और किसानों के हितों का खयाल रखने के लिए नियुक्त किया गया है, न कि कंपनियों की सुविधाओं का खयाल रखने के लिए. इसी भुलक्कड़ी में वे कहते हैं, ‘नौ साल के लंबे अंतराल के बाद आप कंपनी से नए टेस्ट करने के लिए कैसे कह सकते हैं? एक तरफ तो सरकार जीएम खाद्यों पर शोध को प्रोत्साहित कर रही है और दूसरी तरफ उन्हें रिजेक्ट कर रही है. यह कैसे चलेगा?’

मगर इसके साथ-साथ डॉ रेड्डी एक दूसरी चिंता की ओर भी इशारा करते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र में शोध तंत्र के कमजोर होते जाने का मतलब यह है कि आज कृषि अनुसंधान केवल निजी क्षेत्र द्वारा ही संचालित किया जा रहा है. उनके मुताबिक इसने सार्वजनिक हित के विचार को ही धुंधला कर दिया है और इसकी जगह फायदे की भावना ने ले ली है.अब जबकि 51 जीएम खाद्य बाजार में आने की बाट जोह रहे हैं, जिनमें से 41 खाद्य फसलें हैं, ऐसे में वे स्वीकार करते हैं कि भारतीय वैज्ञानिकों को यह अंदाजा भी नहीं है कि इनसे मानव शरीर या पर्यावरण या फिर देश की जैव-विविधता पर क्या प्रभाव पड़ सकता है. वे यह भी बताते हैं कि इस समय देश के बाजार में पांच प्रकार की बीटी कॉटन उपलब्ध है, लेकिन किसान इनकी पहचान करने में असमर्थ हैं. इसपर सरकार की नीति क्या है?’ वे पूछते हैं. अंत में वे जो कहते हैं वह जीएम खाद्यों के पक्ष में जाने वाले एक बेहद महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इंगित करता है. वे कहते हैं, ‘चीन ने पहले ही ट्रांसजेनिक चावल उगाने शुरू कर दिए हैं. हम इस तर्क से आगे बढ़ें कि लोग दिन भर में आधा किलो चावल से ज्यादा खाते हैं. और यदि वे फिर भी ऐसा कर रहे हैं तो हम बैंगन को लेकर इतना परेशान क्यों हैं, जिसे अपेक्षाकृत बहुत कम मात्रा में खाया जाता है.डॉ रेड्डी के इन विचारों से बीटी समर्थकों के एक वर्ग की मानसिकता की भी झलक मिलती है, ऐसी मानसिकता जिसकी बुनियाद आंकड़ों और तथ्यों की बजाय उत्साह, उतावलेपन और प्रतिस्पर्धी देश से पीछे न रह जाएं, जैसी चीजों से बनी है. आज जीएम खाद्यों पर सवाल उठाने पर देश के प्रति आपकी निष्ठा पर भी सवाल उठाए जा सकते हैं जसा कि मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्यों पृथ्वीराज चव्हाण, कपिल सिब्बल और शरद पवार के वक्तव्यों से जाहिर होता है. पवार का कहना था कि जीएम बैंगन को फिलहाल बाजार में न लाने जैसे फैसले घड़ी की सुइयों को पीछे करते हुए देश के वैज्ञानिक समुदाय को हतोत्साहित करने का कारण बनेंगे. उनसे पूछा जा सकता है कि घड़ी की ये सुइयां दरअसल जा किस ओर रही थीं और विज्ञान भावनाओं से कब से संचालित होने लगा? देश और जनहित, वैज्ञानिकों की तथाकथित भावनाओं से छोटा कब से हो गया? मगर एनबीआरएआई के कानून बनने के बाद शायद ऐसे सवाल उठाना भी आपको जेल का हकदार बना सकता है.

एक और परेशान करने वाली बात यह है कि डॉ भार्गव के मुताबिक जीईएसी के निर्णय से करीब दो सप्ताह पहले डॉ रेड्डी ने उन्हें फोन कर बताया था कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त समिति के सदस्य के बतौर जिन अतिरिक्त परीक्षणों की मांग भार्गव ने की थी उनमें से आठ कराए ही नहीं गए हैं. और जो हुए भी हैं उनमें से कई या तो संतोषजनक या पर्याप्त नहीं थे. रेड्डी ने कथित तौर पर डॉ भार्गव से यह भी कहा कि वे बीटी बैंगन के पक्ष में सिफारिश करने के लिए अत्यधिक दबावमें हैं और उन्हें कृषि मंत्री, जीईएसी और इस उद्योग से जुड़े लोगों के फोन आ रहे हैं. भार्गव ने उन्हें अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण करने की सलाह दी. लेकिन दो सप्ताह बाद रेड्डी ने बीटी बैंगन पर अपनी सहमति की मुहर लगा दी.

एक और चौंकाने वाला सच यह भी है कि बायोतकनीकी विभाग के एक शक्तिशाली नोडल ऑफिसर डॉ केके त्रिपाठी – जो एक ऐसी विशेषज्ञ समिति (आरसीजीएम) के सदस्य भी हैं जो जीईएसी को भेजे जाने से पहले जीएम फसलों के परीक्षण की स्वीकृति देती है – के खिलाफ पुलिस और केंद्रीय सतर्कता आयोग में शिकायतें दर्ज की गई हैं. 27 जून, 2009 को हैदराबाद के नुजीवीडु सीड्स के एसवीआर राव द्वारा पुलिस में दर्ज एफआईआर और 6 जून, 2009 को सतर्कता आयोग को लिखे पत्र के मुताबिक त्रिपाठी लगातार माहिको के बीटी कॉटन का पक्ष लेने और नुजीवीडु और दूसरी कंपनियों के रास्ते में रुकावटें खड़ी करने का काम करते रहे हैं. त्रिपाठी ने तहलका के सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया.