बदलाव के इंतजार में…

सौ दिन किसी सरकार की समीक्षा के लिए ज्यादा नहीं होते तो कुछ मोर्चों पर कम भी नहीं होते. अखिलेश यादव ने भी सत्ता के सौ दिन पूरे कर लिए हैं. चुनाव से ठीक पहले और ठीक बाद तहलका से उन्होंने बात की थी. उस दौरान अखिलेश की नई राजनीति की बड़ी चर्चा थी. डीपी यादव को सपा में आने से रोककर उन्होंने बड़ा नाम कमाया था. सपा को हाईटेक बनाने का सेहरा उनके सिर बंधा था. उस साक्षात्कार में उन्होंने कई बड़े वादे किए थे. सौ दिन बाद उनके तब के वादों के आधार पर उनके शासन का विश्लेषण किया जा सकता है. अखिलेश का पहला वादा था कि जनता की पहुंच हम तक बहुत आसान रहेगी, वे मायावती जी की तरह महलों के बंधक नहीं बनेंगे. पर आज अखिलेश कितने उपलब्ध हैं इसकी बानगी लखनऊ के एक पत्रकार पेश करते हैं, ‘चुनाव से पहले रोज-रोज हेलीकॉप्टर में बैठा कर घुमाने का प्रस्ताव भेजते थे. अब उनके चेले-चपाटे भी नहीं सुनते.’

सौ दिन के उनके शासन में कोसी कलां और प्रतापगढ़ में सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं, मुसलिमों की 40-50 झोपड़ियां जलाई जा चुकी हैं, कानपुर में सपा कार्यकर्ता सौरभ यादव पर सरेआम गोलियां चलाई जा चुकी हैं, सुल्तानपुर में पुराने पत्रकार शीतल सिंह के बेटे पीयूष सिंह से दस लाख रुपये की लूट हो चुकी है और कार्रवाई करने गई पुलिस और डीएम को लोग पीट चुके हैं. आखिरी दोनों जुड़े हुए मामलों में अखिलेश सरकार के राज्य मंत्री शंखलाल माझी का नाम सामने आ रहा है. कानून व्यवस्था वह मसला था जिसे लेकर सबके मन में सपा के प्रति हमेशा से आशंका बनी हुई थी. तब उन्होंने तहलका के माध्यम से लोगों को विश्वास दिलाया था कि सूबे की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए वे अपने प्रिय चाचा रामगोपाल यादव के नेतृत्व में एक कमेटी गठित करेंगे. खुद अखिलेश भी उस कमेटी के सदस्य रहेंगे. उन्होंने इस कमेटी को आईटी इनेबल्ड बनाने का वादा भी किया था ताकि पूरे सूबे की जनता अपनी परेशानी सीधे लखनऊ तक पहुंचा सके. आज सौ दिन बाद किसी को नहीं पता कि कमेटी किस दशा में है और चाचा रामगोपाल जी उस कमेटी के बारे में क्या राय रखते हैं. 

अखिलेश की बोहनी ही खराब हो गई थी. जिस दिन नतीजे आ रहे थे उसी दिन झांसी में सपाइयों ने पत्रकारों और मतगणना कर्मियों को बंधक बना लिया. वे दबंगई के दम पर हार को जीत में बदलने पर आमादा थे. फिरोजाबाद में सपा कार्यकर्ता फायरिंग करने लगे जिसमें एक 13 साल की बच्ची की मौत हो गई. बाद में शपथ ग्रहण का उत्पात तो पूरे देश ने देखा ही. इसके बाद बदायूं की पुलिस चौकी में लड़की के साथ बलात्कार हो गया. लिस्ट बहुत लंबी है. भ्रष्टाचार के मसले पर मायावती से अखिलेश की तुलना करने के लिए तो कम से कम दो-तीन साल चाहिए लेकिन कानून व्यवस्था की बात करने के लिए तीन महीने पर्याप्त हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के तीन महीने के भीतर ही अपने विधायक उमाकांत यादव को जेल भेज दिया था. अखिलेश के शासन में तीन महीने के भीतर ही जेल में बंद कई अपराधियों को बाहर पहुंचाने का बंदोबस्त कर दिया गया है.

नई राजनीति के जहाज पर सवार होकर लखनऊ पहुंचे अखिलेश यादव को भी शायद नरेंद्र मोदी की तरह राजधर्म सीखने की जरूरत है

राजा भैया को मंत्री बनाकर जो शुरुआत हुई थी वह रुकी नहीं. 15 मार्च को अखिलेश का शपथ ग्रहण हुआ और 17 मार्च तक अमरमणि त्रिपाठी और अभय सिंह जैसे अपराधियों का उनके गृह जिलों में पुनर्वास कर दिया गया. अभय सिंह के ऊपर लगा गुंडा एक्ट सरकार के इशारे पर वापस ले लिया गया है. अमरमणि त्रिपाठी जैसा अपराधी, जिसे उम्र कैद की सजा हो चुकी है, जिसका बेटा सपा के टिकट पर पिछला विधानसभा चुनाव लड़कर हार चुका है, वह सपा के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है?  

18 मई को अखिलेश ने पूरे सूबे के पुलिस अधिकारियों की बैठक बुलाई और उन्हें 15 दिन के भीतर कानून व्यवस्था सुधारने की चेतावनी दी. मगर महीने भर के भीतर ही दो-दो सांप्रदायिक दंगे हो गए. कोसी कलां में 22 दिन तक बाजार बंद रहा. लोग घरों से बाहर नहीं निकले. वहां के एक व्यक्ति ने तहलका दफ्तर में फोन करके विनती की कि हम वहां आएं, खुद हालात देखें और तब कुछ लिखें. पुलिस की एकतरफा कार्रवाई से वह इतना डरा हुआ था कि अपना नाम-पता तक बताने को तैयार नहीं था. ऐतिहासिक रूप से 1,300 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हुआ, 156 लोगों को जेल में डाल दिया गया. जिन लोगों की दुकानेण फूंक दी गई तो वे ही आरोपित बनाए गए हैं. एक पक्ष के लोगों को जेल में रखकर दूसरे पक्ष को खुश किया जा रहा है. स्थानीय निवासी कुलदीप गुर्जर कहते हैं, ‘प्रशासन के लोग हमारे खिलाफ काम कर रहे हैं. चुन-चुन कर एक ही समुदाय को जेल में डाला जा रहा है. आप चाहें तो गिरफ्तार लोगों की लिस्ट उठाकर देख लीजिए.’

नई राजनीति के जहाज पर सवार होकर लखनऊ पहुंचे अखिलेश यादव को भी शायद नरेंद्र मोदी की तरह राजधर्म सीखने की जरूरत है. प्रशासन निष्पक्ष व्यवहार करना नहीं सीख पाया है. प्रतापगढ़ जिले का अस्थान गांव भी इसी स्थिति से गुजर रहा है. एक समुदाय की 40-50 झोपड़ियां जला कर राख कर दी गईं. जिले के एसपी ओपी सागर ने बलात्कार की शिकार लड़की की शव यात्रा उसी बस्ती से निकालने की इजाजत दे दी जहां के लोगों पर इस अपराध का शक जताया जा रहा था. बाद में वे सफाई दे रहे थे, ‘मुझे उम्मीद नहीं थी कि मामला इतना बढ़ जाएगा.’ इन मामलों को देखकर अखिलेश के बारे में एक राय यह भी बनती है कि कुछ मामलों में वे बिल्कुल अपने पिता जैसे ही हैं. 2007 में सपा को सत्ता से बाहर करवाने में एक भूमिका मऊ के दंगों की भी थी. उस दौरान मुलायम सिंह ने भी आज के अखिलेश जैसा ढीला रुख ही अपनाया हुआ था.   

साक्षात्कार में अखिलेश ने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी. सपा बदले की राजनीति नहीं करेगी. मूर्तियां और पार्क नहीं तोड़े जाएंगे. आज अखबारों में छपी वह फोटो सबके लिए कौतूहल का विषय है जिसमें एक कर्मचारी लखनऊ के आंबेडकर पार्क की लाइटें उखाड़ कर लिए जा रहा है. आंबेडकर ग्रामसभा विकास विभाग का नाम बदल कर राममनोहर लोहिया समग्र ग्राम विकास विभाग कर दिया गया है. दलितों को ठेकों में आरक्षण समाप्त कर दिया गया, प्रोन्नति में आरक्षण व्यवस्था समाप्त हो गई. कहने का मतलब है कि बाकी कुछ हो न हो मगर चुन-चुन कर मायावती के कार्यकाल में शुरू हुई परियोजनाओं पर कैंची चलाई जा रही है. कुल 23 योजनाएं जो मायावती सरकार ने शुरू की थीं उन्हें खत्म कर दिया गया है.  

अखिलेश के आगमन के बाद उत्तर प्रदेश में एक और गौर करने लायक बदलाव दिख रहा है. पिछले डेढ़ दशकों के दौरान लोग चुनावों के दरमियान होने वाला लाउडस्पीकरों का कानफोड़ू शोर भूल गए थे. वे दिन फिर से लौट आए हैं. आजमगढ़ में स्थानीय निकाय के चुनाव के लिए खड़े एक सपा समर्थित प्रत्याशी कहते हैं, ‘सब अखिलेश भइया की कृपा है. उन्होंने सबको लाउडस्पीकर का इस्तेमाल करने की छूट दिला दी है.’ जैसा कि उत्तर प्रदेश का पुराना अनुभव रहा है, छूट और सपा की कोई सीमा नहीं होती. क्या रात में बारह बजे और क्या भोर में पांच बजे, गली-गली में कर्मठ, निर्भीक, युवा, ईमानदार और हरदिल अजीज उम्मीदवार अपने मुंह मिट्ठू, तोता, मैना बने हुए हैं. वे शहर-बाजारों की दीवारें जितनी बदसूरत हो सकती हैं उससे ज्यादा करने में लगे हुए हैं, इस वादे के साथ कि जब वे जीतेंगे तब हमारे नगर और ज्यादा स्वच्छ, चमकदार, आदर्श पानी-बिजली से भरपूर हो जाएंगे. ऐसा लगता है जैसे उत्तर प्रदेश में चुनाव आयोग भी अपना कामकाज भूल गया है. 

चुनाव से पहले वाले साक्षात्कार में अखिलेश को एक बात बहुत नागवार गुजरी थी. आजम खान और शिवपाल यादव के साथ उनके रिश्तों के सवाल पर उन्होंने यह कह कर बात बीच में काट दी थी कि ‘नहीं, हमारे बीच लट्ठ चल रहे हैं. आज सौ दिन बाद लखनऊ के हर बड़े पत्रकार, अधिकारी और जानकार की जुबान पर यही बातें हैं. आजम खान की अपनी सत्ता है, शिवपाल की अपनी. सरकार के भीतर रस्साकशी की एक लकीर इस एक घटना के जरिए खींची जा सकती है. 17 जून को शिवपाल यादव ने बाकायदा घोषणा की कि सात बजे के बाद सूबे के शहर, मॉल और बाजार बंद हो जाएंगे क्योंकि राज्य के पास बिजली नहीं है. इसके लिए बाकायदा सरकारी विज्ञप्ति और प्रेस नोट भी जारी हुआ. जानकार बताते हैं कि इस आदेश को मुख्यमंत्री की हरी झंडी भी थी. लेकिन 18 जून को आजम खान विधानसभा को जानकारी देते हैं कि यह महज प्रस्ताव है कानून नहीं. जो चीज सरकारी विज्ञप्ति का हिस्सा बन चुकी थी, उसके बारे में आजम खान का यह बयान बड़ा अजीब था.

बिजली से याद आया. उत्तर प्रदेश में जिसकी लाठी उसी की बिजली हो गई है. इटावा, कन्नौज, मैनपुरी और औरैया जैसे सपा के गढ़ों को 24 घंटे बिजली मिल रही है. बची- खुची रामपुर (आजम खान), हरदोई (नरेश अग्रवाल), बाराबंकी (जिले से तीन मंत्री) चली जा रही है. सपा राष्ट्रपति चुनाव के समीकरण बिठाने में व्यस्त हैं और दीदारगंज विधानसभा के निवासी तीन दिन से बिजली को तरस रहे हैं. जिस आजमगढ़ ने दस की दसों विधानसभा सीटें सपा को दी थीं वे अपना दोष पूछ रहे हैं. संजरपुर में चाय की दुकान पर बीड़ी पीकर लू को मात देने की कोशिश कर रहे नूरुद्दीन अंसारी की सुनिए, ‘इहो अपने बापै के तरह एकदम फेल बाटे.’ यानी ये भी अपने पिता जी की तरह असफल है. 

­उत्तर प्रदेश कोई गुजरात, तमिलनाडु जैसा समृद्ध राज्य तो है नहीं. दो लाख करोड़ से ज्यादा का तो कर्ज का बोझ है. एक दूरदर्शी नेता, प्रचंड बहुमत और पांच साल दूर खड़े चुनाव के मद्देनजर होना यह चाहिए था कि सरकार बजट में इस समस्या से निपटने के उपाय करती. कर्ज के कुचक्र से उत्तर प्रदेश को बाहर निकालने के लिए कुछ कड़े फैसलों की दरकार थी. लेकिन अखिलेश ने जो बजट पेश किया उससे ऐसा लगा मानो चुनाव पांच साल बाद नहीं पांच महीने बाद होने वाले हैं. छूट, लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ते की बरसात हुई और असल मुद्दे छूट गए. 

एक संदेश अखिलेश की प्रशासनिक अक्षमता को लेकर भी जा रहा है. आलम यह है कि जिन अधिकारियों का ट्रांसफर अखिलेश के इशारे पर हुआ उन्हें 24 घंटे के भीतर ही वापस लेना पड़ा. आईएएस अधिकारी माजिद अली और संजय प्रसाद के मामले सबके सामने हैं. पंचम तल (मुख्यमंत्री सचिवालय) पर अनीता सिंह की लॉबी का दबदबा है. उनसे बाहर का अधिकारी बाहरी है फिर चाहे वह कोई अली हों या प्रसाद.  जिस तरह से नौकरशाही काबू से बाहर है, उसी तरह अखिलेश के मंत्री भी बेकाबू हैं. बड़े जतन से उन्होंने नई ट्रांसफर नीति बनाई थी. इसके मुताबिक मंत्री अपने विभाग के 15 फीसदी से ज्यादा कर्मचारियों का ट्रांसफर नहीं कर सकते, वह भी समूह ग और घ के कर्मचारी. इससे ज्यादा ट्रांसफर के लिए मुख्यमंत्री की सहमति लेनी होगी. पंचम तल में तैनात एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘हार्टीकल्चर मंत्री राज किशोर सिंह, लोक निर्माण राज्य मंत्री सुरेंद्र पटेल और स्टांप एवं न्यायालय शुल्क मंत्री दुर्गा यादव ने इसके खिलाफ न सिर्फ विद्रोह कर दिया बल्कि इसके खिलाफ जाकर ट्रांसफर भी किए.’ 

मुलायम सिंह यादव ने सौ दिन पूरे होने पर अखिलेश यादव को सौ नंबर दिए हैं. यह उनका पुत्रप्रेम ही होगा क्योंकि कुछ दिन पहले तक वे यह आरोप लगा रहे थे कि पिछली सरकार के विश्वासपात्र नौकरशाह अखिलेश को काम नहीं करने दे रहे हैं, उन्हें अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर मुलायम सिंह के पिछले बयान को सही मान लें तो यह अखिलेश की प्रशासनिक क्षमता पर सवाल खड़े कर देता है. और उनके बाद के बयान पर भी. अचानक ही उन्होंने ऐसा क्या कर दिया कि उन्हें 100 नंबर दे दिए जाएं?