फौज की फजीहत

आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाले में सेना प्रमुख (पूर्व) दीपक कपूर और सेना से जुड़े कई वरिष्ठ अधिकारियों के नाम सामने आने के बाद सारा देश स्तब्ध है. सेना एक ऐसा संस्थान है जिस पर देश की जनता को पूरा भरोसा रहा है. मगर अब उसी जनता को संशय सता रहा है कि भ्रष्टाचार का यह पैमाना देखते हुए क्या देश की सीमाओं को वास्तव में पूरी तरह सुरक्षित कहा जा सकता है ? सवाल यह भी है कि महज कुछ साल पहले तक भारतीय गणतंत्र के सबसे भरोसेमंद संस्थान का रुतबा रखने वाले इस खंभे में दिख रही यह दरार सिर्फ ऊपरी है या फिर यह खोखलापन भीतर तक घर कर गया है?

यह ठीक एक दशक पहले, 2001 की बात है. उस समय तहलका के ‘ऑपरेशन वेस्टएंड’ के जरिए पहली बार रक्षा खरीद में चल रहे भारी भ्रष्टाचार और इसमें सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की संलिप्तता को सारे देश ने टीवी पर देखा था. वह घटना सेना में भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सरकार और प्रतिष्ठान के पास सबसे बड़ा मौका था. लेकिन हुआ उल्टा. सत्ता तंत्र के निशाने पर तहलका आ गया. सरकार और खुद सेना अपने भीतर तेजी से घर कर रही बीमारी की उपेक्षा करती रही. पिछले पांच साल के दौरान सेना के कई वरिष्ठ अधिकारियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप बताते हैं कि तब सरकार के पास संस्थान को दुरुस्त करने का एक बहुत अच्छा मौका था, लेकिन उसे बर्बाद कर दिया गया.

आज जब ‘ऑपरेशन वेस्टएंड’ को तकरीबन एक दशक बीत गया है, सेना की छवि पर अब तक का सबसे बड़ा संकट मंडरा रहा है. हालांकि इसी दशक के दौरान कुछ उम्मीद की किरणें भी दिखी हैं. मसलन भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई जाती रही है, दूसरे अधिकारी अनुशासन का पालन करते हुए भ्रष्टाचार के मामले उजागर करते रहे हैं और कोर्ट ऑफ इंक्वायरी ने अपना काम बेहद संजीदगी से अंजाम देते हुए अधिकारियों के कोर्ट मार्शल के फैसले सुनाए हैं. अब जिस तरह से सैन्य भ्रष्टाचार का मामला लगातार मीडिया की सुर्खियां बना हुआ है उसके बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संस्थान अपनी साख पर लगे धब्बों को हटाने की दिशा में गंभीरता से काम करेगा.

रक्षा प्रतिष्ठान- जिसमें राजनेता, नौकरशाह, और सैन्य नौकरशाह शामिल हैं, के लिए इस दिशा में आगे बढ़ना यानी भ्रष्टाचार पर अंकुश इसलिए भी जरूरी है कि एक अनुमान के मुताबिक 2015 तक भारत सरकार रक्षा क्षेत्र पर 2.21 लाख करोड़ रुपए खर्च करने वाली है. कंसल्टेंसी फर्म केपीएमजी के मुताबिक इस समयावधि में भारत दुनिया के कुछ सबसे बड़े रक्षा खरीद सौदे करेगा. रक्षा उत्पादन से जुड़ी दुनिया की शीर्ष कंपनियां अभी से दिल्ली में डेरा डालने पहुंच रही हैं. कई भारतीय कंपनियों को उम्मीद है कि तकरीबन 44,299 करोड़ रुपए के ठेके उन्हें मिल सकते हैं. इन स्थितियों में भारी रिश्वत और भ्रष्टाचार की संभावना को नकारा नहीं जा सकता.

तीन महीने पहले सिंगापुर की रक्षा उत्पादन फर्म एसटी काइनेटिक्स के मुख्य मार्केटिंग अधिकारी पैट्रिक चॉय ने अनौपचारिक बातचीत के दौरान एक बयान दिया था जो भारत में काम कर रही विदेशी रक्षा उत्पादन फर्मों की तल्ख हकीकत बयान करता है. उनका कहना था, ‘हम ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकते जहां चीजें कैसे हो रही हैं इसका कुछ अंदाजा ही न लग पा रहा हो.’ कहा जाता है कि कपूर के कार्यकाल में 155-एमएम गन खरीद के लिए 13,289 करोड़ रुपए के सौदे के लिए एसटी काइनेटिक्स की प्रतिस्पर्धा बीएई सिस्टम्स से थी. लेकिन एसटी काइनेटिक्स को काली सूची में डालकर इस दौड़ से बाहर कर दिया गया था.

फिलहाल कपूर, पूर्व और वर्तमान सैनिकों के लिए शर्मिंदगी का प्रतीक बने हुए हैं. इसकी वाजिब वजहें भी हैं. कहा जाता है कि उन्होंने न सिर्फ कुछ रक्षा सौदों में रिश्वत ली है बल्कि सेना प्रमुख के कार्यालय को नेता, ठेकेदार और नौकरशाहों की भ्रष्ट तिकड़ी का एक आश्रय स्थल बनाने के लिए भी वे ही जिम्मेदार हैं. ऐसा उन्होंने राजनीतिक हलकों में यह संकेत देकर किया कि उनके साथ ‘दूसरे काम’ करना भी सहज है. हालांकि कुछ विश्लेषक उनके पूर्ववर्ती एनसी विज को इस परंपरा की शुरुआत के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं.

सेना में रक्षा उपकरणों की खरीद में हमेशा ही आर्थिक भ्रष्टाचार के मौके रहे हैं. देश भर में सैन्य बलों के अधिकार क्षेत्र में कीमती जमीन भी है. पिछले कुछ सालों से रिहायशी जमीन की कीमत में अचानक तेजी आने के बाद रियल एस्टेट माफिया सेना की जमीनों पर नजर गड़ाए हुए हैं. इन माफियाओं को नेताओं का वरदहस्त भी प्राप्त है. आदर्श हाउसिंग सोसायटी घोटाला इसी की एक मिसाल है. सेना के अधिकारियों में इस घटना पर काफी रोष है. घोटाले पर दुख जाहिर करते हुए मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) जीडी बक्शी कहते हैं, ‘यह देखकर बहुत पीड़ा होती है.’ इस गगनचुंबी इमारत को जब महाराष्ट्र सरकार ने अनुमति दी थी तो 2003 में नौसेना की पश्चिमी कमान के कमांडर वाइस एडमिरल संजीव भसीन ने लिखित में इस पर आपत्ति जताई थी. उनका कहना था कि इमारत की ऊंचाई से नजदीकी नौसेना अड्डे की सुरक्षा को खतरा है. भसीन ने इस मामले में शामिल प्रोमोटरों और अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की भी मांग की थी.

कपूर और विज दोनों कहते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं थी कि आदर्श सोसायटी के फ्लैट कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए जवानों के परिवारों को आवंटित होने हैं. मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एससीएन जटार कहते हैं, ‘ सेना का एक वरिष्ठ अधिकारी कह रहा है कि उसे जानकारी नहीं कि फ्लैट शहीद हुए जवानों की विधवाओं के लिए हैं? यह बकवास है. यदि ऐसा है तो वे अपने पद पर रहने लायक ही नहीं थे.’

जटार का गुस्सा बेवजह नहीं है. इस बात की पुष्टि तथ्य भी करते हैं. कपूर ने 2005 में जब सोसायटी के फ्लैट के लिए आवेदन किया था तब पात्रता नियमों के मुताबिक आवेदक के लिए यह अनिवार्य था कि वह पिछले 15 सालों से मुंबई में रह रहा हो. शर्त का तोड़ खोजने के लिए उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को पत्र लिखा. देशमुख ने उनके लिए एक मूलनिवास प्रमाण पत्र बनवा दिया. आवेदन के साथ कपूर की सैलरी स्लिप भी जमा हुई थी. इसमें उनकी मासिक आय मात्र 23 हजार 450 रुपए दर्ज थी. आज वे खुद इस बात पर हैरानी जताते हैं कि सैलरी स्लिप में यह आंकड़ा कैसे आ सकता है.

कपूर के भ्रष्टाचार में शामिल होने को लेकर कुछ तथ्य तब भी सामने आए थे जब पिछले अगस्त तृणमूल कांग्रेस की सांसद अंबिका बनर्जी ने रक्षा मंत्री को एक पत्र लिखकर सूचना दी थी कि पूर्व सेना प्रमुख ने आय से अधिक संपत्ति जमा की है. इस पत्र के मुताबिक कपूर के पास एक फ्लैट द्वारका के सेक्टर 29, तीन फ्लैट गुड़गांव के सेक्टर 23, एक फ्लैट गुड़गांव के सेक्टर 42/44, एक फ्लैट गुड़गांव के फेज 3 और एक घर मुंबई के लोखंडवाला में है. इस घटना के बाद कपूर ने एके एंटनी से मिलकर इन सभी आरोपों का खंडन किया था.

सेना के एक पूर्व मुखिया पर एक के बाद एक लगातार आरोप लगने से पूर्व थलसेना प्रमुख वीपी मलिक स्तब्ध हैं. वे कहते हैं, ‘जहां तक भ्रष्टाचार की बात है तो इस हालिया घोटाले ने सेना का अब तक का सबसे बड़ा नुकसान किया है.’

एक मामला सुखना भूमि घोटाले से भी संबंधित है. कहा जाता है कि इस मामले में दीपक कपूर ने आरोपित लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश प्रकाश के प्रति नरमी बरतने की कोशिश की थी. प्रकाश उस समय सेना प्रमुख के सैन्य सचिव थे. यह मामला दार्जिलिंग के सुखना में तैनात सेना की 33वीं कोर से जुड़ा है. यहां एक निजी शिक्षा संस्थान, गीतांजली एजुकेशनल ट्रस्ट को कोर की तरफ से 70 एकड़ जमीन खरीदने की अनुमति दी गई थी. जांच बताती है कि लेफ्टिनेंट जनरल रथ, लेफ्टिनेंट जनरल हलगली और प्रकाश सहित सेना के कई वरिष्ठ अधिकारियों ने एक बिल्डर को फायदा पहुंचाने की गरज से जमीन खरीद की अनुमति दी थी. सुखना घोटाले की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि रथ जल्दी ही उप थल सेना प्रमुख बनने वाले थे और प्रकाश सेना प्रमुख के आठ सैन्य सचिवों में से एक थे. इस पद पर रहते हुए उनके पास पदोन्नति और पोस्टिंग जैसे अधिकार होते थे. वर्तमान थल सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह उस समय पूर्वी कमान जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ (जीओसी-सी) थे और इन चारों अधिकारियों के खिलाफ गठित कोर्ट ऑफ इंक्वायरी (सीओआई) के मुखिया भी. सीओआई ने जांच के बाद अधिकारियों को दोषी पाया था और प्रकाश को नौकरी से बेदखल करने की सिफारिश की थी. लेकिन इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए कपूर ने सिफारिश की कि प्रकाश के खिलाफ सिर्फ प्रशासनिक कार्रवाई होनी चाहिए. इसके बाद मामले ने तूल पकड़ लिया और खुद रक्षा मंत्री एके एंटनी को सेना प्रमुख को पत्र लिखकर कोर्ट मार्शल की कार्रवाई आगे बढ़ाने के लिए कहना पड़ा.

कपूर के भ्रष्टाचार से जुड़े होने की कहानी और पीछे तक भी जाती है. 2006 में ऑर्डनेंस कोर के मेजर जनरल मल्होत्रा ने 16 करोड़ रुपए की लागत से टेंट खरीदने का एक प्रस्ताव दिया था. इसमें कहा गया था कि टेंटों की भारी कमी को देखते हुए सेना के एरिया कमांडर के विशेष वित्तीय अधिकारों का इस्तेमाल करके टेंट खरीदे जाने चाहिए. इसके बाद यह फाइल उत्तरी कमान के मेजर जनरल, जनरल स्टाफ (एमजीजीएस) के पास गई. उनकी इस फाइल पर टिप्पणी थी, ‘क्या हम थलसेना के विशेष वित्तीय अधिकारों का इस्तेमाल उन टेंटों को खरीदने के लिए करने वाले हैं जिनकी आपूर्ति ऑर्डनेंस विभाग से होनी चाहिए?’ इस सारे घटनाक्रम से जुड़ी सबसे हैरानी की बात यह है कि प्रस्ताव पर सहमति न मिलने के तीन महीने बाद भी मल्होत्रा ने दोबारा प्रस्ताव बनाकर भेजा कि टेंटों की कमी से सैनिकों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. इस बार एमजीजीएस ने फाइल चुपचाप आगे बढ़ा दी. कपूर भी इस प्रस्ताव पर सहमत थे.

कुछ समय बाद कपूर थल सेना मुख्यालय में बतौर उप-थल सेना प्रमुख नियुक्त हो गए और उनकी जगह लैफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग उत्तरी कमान के कमांडर नियुक्त हुए. पनाग को अज्ञात स्रोत से टेंट घोटाले के बारे में जानकारी मिली. जांच में पाया गया कि टेंट खरीदने की जरूरत ही नहीं थी. मामले पर कार्रवाई के लिए मेजर जनरल सप्रु के अधीन कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का गठन हुआ और पाया गया कि मल्होत्रा ने 1.6 करोड़ रुपए का घोटाला किया है. इसके बाद पनाग ने एक आदेश जारी किया जिसके तहत मल्होत्रा की भविष्य में होने वाली पदोन्नतियों पर रोक लगनी थी.

लेकिन पनाग को इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि अनजाने में उन्होंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. तब तक कपूर सेना प्रमुख बन चुके थे और उन्होंने पनाग के दो साल के कार्यकाल के मध्य में ही उनका स्थानांतरण मध्य कमान में कर दिया. पनाग इस मसले पर कपूर से मिले, लेकिन उनसे कहा गया कि यह सेना प्रमुख का विशेषाधिकार है. इस पर पनाग एंटनी के पास गए. नाम न छापने की शर्त पर सेना के एक सेवानिवृत्त अधिकारी कहते हैं, ‘यह साफ था कि कपूर को उनसे परेशानी थी लेकिन एंटनी के सामने सेना प्रमुख और कमांडर में से किसी एक को चुनने का विकल्प मिला तो उन्होंने सेना प्रमुख को तरजीह देना बेहतर समझा.’

किसी सेना कमांडर के बीच कार्यकाल में उसका स्थानांतरण बेहद असामान्य माना जाता है. कहा जाता है कि इस घटना ने सेना में असंतोष पैदा कर दिया था. इन घटनाओं के अलावा मार्च, 2007 में जब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट आई तो उसमें भी आरोप लगाया गया था कि उत्तरी कमान के कमांडर ने सेना की परिचालन संबंधी जरूरतें पूरी करने के लिए अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग किया था.

इन सभी सवालों पर प्रतिक्रिया लेने के लिए तहलका ने कपूर से कई बार संपर्क करने की कोशिश की. पांचवीं कॉल पर, उन्होंने बात तो की लेकिन अपने ऊपर लगे आरोपों के बारे में जवाब देने से साफ मना कर दिया. उनका कहना था, ‘बाहर बहुत-सी बातें चल रही हैं और मैं उन पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता.’

सेना जैसे अतिप्रतिष्ठित संस्थान, जहां 2002-03 तक मेजर जनरल के ओहदे वाले अफसरों के कोर्ट मार्शल के बारे में सोच पाना भी बेहद दुर्लभ हुआ करता था, में 2010 तक कई पूर्व जनरलों के नाम घोटालों में सामने आ चुके हैं. यदि पिछले पांच साल के दौरान मीडिया की सुर्खी बनी रही इन खबरों को छोड़ दें तो भी सेना के लगभग हर विभाग में कई और घोटाले भी होते रहे हैं. चाहे वह आपूर्ति विभाग हो या सेना आयुध उत्पादन विभाग, ऊंचे ओहदे पर आसीन अफसर पैसों के हेर-फेर में लगे रहे :

• 2006 में एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी ने मेजर जनरल इकबाल सिंह मुलतानी, चार ब्रिगेडियरों और सात दूसरे अफसरों को सैन्य कोटे के लिए आवंटित शराब को खुले बाजार में बेचने का दोषी ठहराया था

• 2006 में जम्मू और कश्मीर में तैनात सैनिकों के लिए ‘सूखी खाद्य सामग्री की कुछ विशेष चीजों’ की सरकारी खरीद में भारी अनियमितताओं के लिए लेफ्टिनेंट जनरल सुरेंद्र कुमार साहनी, दो ब्रिगेडियरों और आठ दूसरे अफसरों को दोषी पाया गया था

• 2007 में एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी ने लेफ्टिनेंट जनरल एसके दहिया, ब्रिगेडियर डीवीएस विश्नोई और तीन दूसरे अफसरों पर लद्दाख में तैनात जवानों के लिए फ्रोजेन मीट के ठेके में कथित रूप से अनियमितता बरतने का आरोप लगाया था.

• 2009 में 41 अफसरों को उनके नॉन सर्विस पैटर्न हथियारों (जो हर एक सैनिक को निजी तौर पर दिए जाते हैं और इन्हें सैनिक सेवानिवृत्ति के बाद वापस कर सकता है या सेना की अनुमति के बाद अपने पास ही रख सकता है) को निजी इस्तेमाल के लिए चोर बाजार में बेचने का दोषी पाया गया था.

आखिर ऐसा क्या था जिसने इतने कम समय में इन वरिष्ठ अधिकारियों को भ्रष्टाचार की सीमाएं तक लांघने को प्रेरित किया? सेवानिवृत्त हो चुके मेजर जनरल अफसर करीम के अनुसार, ‘इस तरह की चीजें तभी मुमकिन हैं जब शीर्ष नेतृत्व कमजोर और भ्रष्ट हो. सब अपने ऊपर के अधिकारी को देखते हैं. अगर वह ईमानदार है तो नीचे वालों की कुछ गलत करने की हिम्मत नहीं होगी. लेकिन ऊपर बैठा अफसर ही अगर ईमानदार न हो, भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता. इसलिए चाहे युद्ध हो या शांति, ऐसे अफसर सेना के लायक नहीं है. वे एक-दूसरे की मदद करते हैं, ऊपर वाले नीचे वालों को प्रोमोशन दिलवाते हैं, तमगे दिलवाते हैं और इस वजह से इन सबकी जांच नहीं हो पाती और भ्रष्ट अफसरों का एक बहुत बड़ा जाल तैयार हो जाता है.’

सेना के कई वरिष्ठ लोग मानते हैं कि एक जनरल तब भ्रष्ट नहीं बनता जब उसे वह ओहदा मिल जाता है. बुनियादी सवाल यह है कि आखिर एक अधिकारी जो भ्रष्ट है, उस ओहदे तक पहुंचता कैसे है ?

दरअसल, सेना में पदोन्नति की नीति में कुछ बुनियादी गड़बड़ी है. अधिकारी के आगे बढ़ने की संभावना ज्यादातर सेना और राजनीति में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों की मरजी और पसंद पर आधारित होती है. करीम कहते हैं, ‘जो ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ है उसे आगे बढ़ने के मौके तब ही मिल पाते हैं जब तक कि ऊपर बैठे अधिकारी उसे नोटिस न करें या सरकार इसमें कोई भूमिका न निभाए. अगर आप चालाक और बेईमान हैं तो आपके पास आगे बढ़ने के मौके उनसे ज्यादा हैं. सरकार आम तौर पर उसकी हां में हां मिलाने वाले को बड़े ओहदे पर पहुंचाना चाहती है और जिस आदमी के पास छिपाने को बहुत-कुछ है वह हमेशा जी हुजूरी करता है.’ सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी तहलका के इस संदेह की पुष्टि करते हैं कि आदर्श और सुखना भूमि घोटाले तो जमीन में छिपे एक विशाल बरगद की फुनगी भर हैं. वे कहते हैं, ‘असली घोटाले तो सरकारी खरीद में होते हैं. इसमें पहले आता है सेना का आपूर्ति विभाग. हमारे पास कुल 13 लाख जवान हैं. अब अगर हम एक जवान के खाने पर 50 रुपए भी खर्च करें तो बजट 6.5 करोड़ पहुंच जाएगा. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि प्रोक्योरमेंट डिपार्टमेंट में कितना पैसा है और यहां हेर-फेर की कितनी गुंजाइश होती है.’

इसके बाद सैनिकों के लिए मोजे से लेकर हथियारों तक की आपूर्ति करने वाला आयुध उत्पादन विभाग आता है. इसका सालाना बजट 8,000-10,000 करोड़ रुपए है. 2009 में इस विभाग के पास कोई प्रमुख नहीं था क्योंकि इस पद के काबिल तीनों अफसरों पर रिश्वत लेने के आरोप थे. मेजर जनरल एके कपूर (आरोपपत्र के अनुसार) जब 1971 में सेना में शामिल हुए थे तो उनके पास कुल 41,000 रुपए थे. 2007 में अब उनके पास 5.5 करोड़ की अचल संपत्ति है, दिल्ली, गुड़गांव, शिमला और गोआ में कुल 13 अचल संपत्तियां हैं.

कॉलेज ऑफ मेटेरियल मैनेजमेंट, जबलपुर के ऑफिसिएटिंग कमांडेंट रहे मेजर जनरल अनिल स्वरूप को भी संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियान में भेजी गई यूनिट के लिए की गई सरकारी खरीद में अनियमितता बरतने का दोषी पाया गया था. उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले की तर्ज पर कीमतें बढ़ा-चढ़ाकर लिखीं- जो जेनरेटर बाजार में 7 लाख रुपए में उपलब्ध हैं, उन्हें 15 लाख में खरीदा गया, जो केबल 300 में मिल सकते हैं उन्हें 2,000 रुपए में खरीदा गया. लगभग 100 करोड़ रु की यह लूट 2006 से 2008 तक जारी रही.

आपूर्ति और आयुध विभाग के बाद बारी आती है मिलिटरी इंजीनियरिंग सर्विस की. यह थल सेना के अलावा वायु और जल सेना के लिए भी काम करती है. इसका सालाना निर्माण बजट कम-से-कम 10,000 से 12,000 करोड़ रु है. इस बजट का 10 प्रतिशत कमीशन के रूप में ‘वैध’ माना जाता है. इस तरह के सारे घोटाले बिना रक्षा मंत्रालय और वित्तमंत्रालय के कर्मचारियों की सांठ-गांठ के नहीं हो सकते.

अगर सेना में भ्रष्टाचार का खेल इसी निर्लज्जता से चलता रहा तो सेना का मनोबल और साथ ही देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी. मेजर जनरल जीडी बख्शी बताते हैं, ‘सैन्य नेतृत्व प्रेरणादायी होना चाहिए. मैं एक जवान से यह नहीं कह सकता कि मैं तुम्हें 5,000 रुपए बोनस दूंगा, सीमा पर जाओ और मरो. लेकिन वह अपनी 5,000 की सैलरी में ही लड़ने और मरने को तैयार रहता है क्योंकि यह उसके देश, उसकी यूनिट के सम्मान से जुड़ा है.’ सेना के एक बड़े अधिकारी आगे जोड़ते हैं, ‘अगर आप सरकारी खरीद विभाग या छोटी-मोटी घटनाओं को छोड़ दें तो कर्नल के नीचे रैंक वाले अफसरों में भ्रष्टाचार नहीं है, जैसे-जैसे लोग स्वतंत्र और शक्तिशाली होने लगते हैं, उनकी उठ-बैठ अपने बॉसों के साथ होने लगती है. यही वह वक्त होता है जब इस दलदल में उनके पैर धंसने शुरू हो जाते हैं..’

बहुत सारे अफसरों का मानना है कि सेना में आई इस सड़न से निपटा जा सकता है, लेकिन इसके लिए सेना को सभी दोषियों के साथ सख्ती बरतनी होगी. सुखना भूमि घोटाले की तरह. मेजर जनरल जटार कहते हैं, ‘मेरे हिसाब से इन सबके ओहदे छीन लिए जाने चाहिए. वे इस लायक नहीं कि उन्हें जनरल या पूर्व थल या जल सेना-प्रमुख कहकर पुकारा जाए. निचले ओहदे वाले अधिकारी को जरूर दिखना चाहिए कि पूर्व सेना-प्रमुखों तक को नहीं बख्शा गया है.’

इस महामारी को जड़ से मिटाने के बारे में सेना के वर्तमान और सेवानिवृत सैन्य अधिकारी एकराय हैं कि इस दिशा में कड़े कदम उठाने की जरूरत है. अगर टोकरी में रखे सेबों में से कुछ सड़ जाएं तो उन्हें हटाकर बाहर फेंक देना चाहिए वरना बाकी के भी सड़ जाने का डर होता है.