गौरी लंकेश की हत्या सिर्फ गोली चलाने से नहीं हुई। इस हत्या की असली वजह वह विचारधारा है जिसमें गरीबी, शोषण आदि से ध्यान हटाने के लिए किसी समुदाय या देश को ही सभी परेशानियों की वजह बता दिया जाता है।
आतंकवाद के मामले में गिरफ्तार व्यक्ति का जेल से बाहर आने पर नायक की तरह उसे माला पहना कर स्वागत होने लगे तो हमें यह समझ जाना चाहिए कि गौरी लंकेश जैसी शख्सियत का हमारे बीच मौजूद होने का मतलब क्या था। भीड़ में लोकतंत्र की हत्या का जश्न मनाया जा रहा है और आज भी नागरिक खुद को ज्य़ादा असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। गौरी लंकेश जैसी को इसलिए मार दिया जाता है ताकि समाज में सांप्रदायिकता का ज़हर बोने का काम बिना किसी परेशानी को होता रहे।
गौरी ने जनता की भाषा में जनता से बात करने का रास्ता चुना था। यही काम मराठी में गोविंद पनसर, नरेंद्र दामोलकर और कन्नड़ भाषा में कलबुर्गी कर रहे थे। आज जनता से जो भी लोग जनता के असली मुद्दों पर जनता की भाषा में संवाद कर रहे हैं उन पर खतरा मंडरा रहा है।
जिनके शब्दों में इंसानियत की आवाज़ होती है उन्हें मार देने के बाद भी, उनकी आवाज़ चारों तरफ गंूजती रहती है। क्या गौरी लंकेश की बेखौफ अभिव्यक्ति की झलक लुई सोफिया (जिसने भाजपा सरकार को फासीवादी कहा) में नहीं दिखती। असहिष्गुता के चलते उसे गिरफ्तार कराया गया और जेल भेजने की सजा भी दी गई।
क्या गौरी लंकेश की आवाज में कैंपसों की उन लड़कियों की आवाज नहीं शामिल है जो पूरी हिम्मत से आज भी पुलिस की लाठियों का सामना कर रही हैं? क्या गौरी लंकेश के तेवर हमें देश के उन तमाम एक्टिविस्टों की हिम्मत में नहीं दिखते जो धमकियों और साजिशों का सामना करते हुए जनता के लिए संघर्ष कर रहे हैं?
लोकतंत्र में असहमति का सम्मान किया जाता है। जो विचारधारा असहमति को कुचलने की बात करती है उससे भारतीय लोकतंत्र को बचाने की कोशिश करके ही हम गौरी लंकेश को सच्चा सम्मान दे पाएंगे। मुझे उनसे न केवल मां का प्यार मिला बल्कि दोस्ती का सच्चा स्नेह भी मिला।
हालात कैसे भी हों, हमें अन्याय देख कर चुप नहीं बैठना है – यही गौरी लंकेश के जीवन का संदेश है। अगर इस संदेश को हम जीवन में उतार लें तो भारतीय लोकतंत्र का कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा।