क्या इनका हश्र भी निगमानंद जैसा होगा?

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के तीन सदस्यों के इस्तीफे ने एक बार फिर गंगा को स्वच्छ करने की महत्वाकांक्षी कवायद पर सवाल खड़े कर दिए हैं. 2008 में जब इस प्राधिकरण की स्थापना हुई थी तो लगा था कि मैली गंगा के दिन फिरने वाले हैं. लेकिन साढ़े तीन साल में ही हाल वही ढाक के तीन पात जैसा हो गया. इस्तीफा देने वाले तीन सदस्यों में से एक जल संरक्षण पर अपने काम के लिए चर्चित राजेंद्र सिंह भी हैं. उनका आरोप है कि प्राधिकरण के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस नदी के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझ रहे. राजेंद्र सिंह के साथ प्राधिकरण के दो अन्य सदस्य रवि चोपड़ा और आरएच. सिद्दिकी भी गंगा को लेकर स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के आमरण अनशन के समर्थन में प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफा भेज चुके हैं.

इस मुद्दे के केंद्र में हैं 80 वर्षीय स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद जो पहले प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के नाम से जाने जाते थे. उनका यह अनशन भौतिक से आध्यात्मिक परिवर्तन का अनूठा उदाहरण है.जिस सिविल इंजीनियर ने अपनी जिंदगी के सात साल रिहंद बांध परियोजना को दिए हों, आईआईटी प्रोफेसर के तौर पर जिसके पढ़ाए सैकड़ों छात्र रात-दिन देश की अनेक जल विद्युत परियोजनाएं बनाने में जुटे हों, उस व्यक्ति ने गंगा की अविरलता के लिए करीब दो महीने से अन्न और अब जल भी त्याग दिया है. अग्रवाल आईआईटी में सिविल इंजीनियरिंग और पर्यावरण विज्ञान विभाग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. अब वे ज्योतिषपीठ के दीक्षित शिष्य हैं. अपनी पीठ के तीर्थ अलकनंदा नदी के अलावा स्वामी सानंद ने गंगा की दो अन्य धाराओं भागीरथी और मंदाकिनी की अविरलता और पवित्रता की रक्षा के लिए अन्न-जल छोड़ दिया है.

स्वामी सानंद यह आंदोलन गंगा सेवा अभियानम् संगठन के दिशानिर्देश पर कर रहे हैं. इस अभियान के सर्वे-सर्वा उनके आध्यात्मिक गुरु स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद हैं , जो ज्योतिष और द्वारिकापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के शिष्य हैं. आमरण अनशन पर जाने से पहले स्वामी सानंद ने 25 दिसंबर से अन्न त्याग कर फलाहार शुरू कर दिया था. 14 जनवरी से उन्होंने फलाहार भी छोड़ दिया और अब वाराणसी में आठ मार्च, 2012 से उन्होंने जल का भी त्याग कर दिया है. स्वामी सानंद के अलावा स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह, गंगा प्रेमी भिक्षु और स्वामी कृष्ण प्रियानंद ने भी इस तपस्या में संकल्प लिया है. अविमुक्तेश्वरानंद बताते हैं, ‘रणनीति यह है कि एक तपस्यारत के प्राण जाते ही दूसरा उसकी जगह तपस्या में बैठेगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘गंगा की अविरलता और स्वच्छता के लिए हम आंदोलन नहीं बल्कि तपस्या कर रहे हैं.’
इससे पहले प्रोफेसर अग्रवाल नवंबर, 2008 में 18 दिन तक उत्तरकाशी और दिल्ली में गंगा की अविरलता के लिए अनशन कर चुके हैं. उसके बाद 14 जनवरी, 2009 से शुरू हुआ उनका दूसरा अनशन 38 दिन तक दिल्ली में हिंदू महासभा के भवन में चला. साल 2010 में मातृ सदन में उनका तीसरा अनशन 39 दिनों तक चला. इन तीनों अनशनों के बाद वे भागीरथी पर उत्तरकाशी से ऊपर बनने वाली तीन बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं-लोहारी नागपाला, भैरोंघाटी और पाला मनेरी को बंद करवाने में सफल रहे थे.

अभियानम् का मानना है कि गंगा को राष्ट्रीय नदी बनाने की घोषणा करने के बाद भी अभी तक ऐसे कानून नहीं बनाए गए हैं जो इसके अनादर को दंडनीय बनाते हों जैसा कि अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे राष्ट्र ध्वज के मामले में होता है. उनका मानना है कि गंगा पांच राज्यों से बहती है और इसकी सहायक धाराएं तो 11-12 राज्यों और तिब्बत से भी आती हैं, इसलिए गंगा की पवित्रता की रक्षा के लिए केंद्रीय कानून बनना जरूरी है. अविमुक्तेश्वरानंद का तर्क है कि गंगा ऐक्शन प्लान 1 और 2 में करीब 12 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं. उन्हें लगा कि इस बार भी तय 15 हजार करोड़ रु यूं ही बर्बाद हो जाएंगे और गंगा वैसी की वैसी रहेगी. इसी डर से गंगा सेवा अभियानम् ने तपस्या का निर्णय लिया.

बड़े नेताओं में से अभी तक इस आंदोलन को समर्थन देने के लिए केवल भाजपा की उमा भारती ही मातृ सदन आई हैं. केंद्र सरकार की तरफ से अभी तक वार्ता का कोई संकेत नहीं दिख रहा है.

अब सवाल यह है कि क्या जान देने के बाद ही स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद की बात सुनी जाएगी.