कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो

फिल्म समीक्षा

फिल्म » घनचक्कर
निर्देशक»  राज कुमार गुप्ता
लेखक » परवेज शेख, राज कुमार गुप्ता
कलाकार » विद्या बालन, इमरान हाशमी, राजेश शर्मा,
नमित दास

हमारी दुनिया की प्रॉब्लम है कि इसमें हंसी इतने स्वाभाविक ढंग से दाखिल नहीं होती, जैसे जीवन का हिस्सा हो. यही प्रॉब्लम घनचक्कर की भी है. यह कई जगह हंसाती है लेकिन उससे कहीं ज्यादा जगहों पर यह किसी खराब टीवी सीरियल के  ढंग से हंसाने की कोशिश में लगी रहती है. और इसीलिए घनचक्कर के ज्यादातर सीन अपनी जरूरत से लंबे हैं और खिंचते-खिंचते खिसियाने लगते हैं.

शुरू में एक बैंक लूटने का लंबा सीन है जिसमें तीनों चोर फिल्म अभिनेताओं के मुखौटे लगाकर अंदर घुसते हैं. ठीक है, यह मजेदार है. पर आप इसके भरोसे दस मिनट नहीं खींच सकते. घनचक्कर खींचती है. कभी-कभी तो वह बहुत सतही तरीके से अपने कमाल के अभिनेता राजेश शर्मा तक को बेवजह हंसने के लिए कहती है, और उन्हें हंसना पड़ता है. उसका कोई अर्थ नहीं. नमित और राजेश शर्मा की वे ज्यादातर समय खीझ पैदा करती हैं.

ऐक्टरों का काम ज्यादातर जगह अच्छा है. विद्या बालन अपने साथ एक अलग जान लेकर आती हैं अपने किरदारों में, जिसके निशान भी उनकी समकालीन मुख्यधारा की अभिनेत्रियों के हाथ नहीं लगे हैं. उन्हें कोई फिक्र नहीं कि वे तथाकथित सुंदरता की परिभाषाओं में कहां फिट हैं और कैमरा उन्हें किस एंगल से देख रहा है. फिल्म में ज्यादा ऊपर पहुंचने की गुंजाइश है ही नहीं पर आधा-पौन इंच ऊपर वे अकेली करती हैं.

कॉमेडी के लिए कतई जरूरी नहीं कि आपके किरदार बेवकूफ हों. वे बेवकूफियां और गलतियां जरूर कर सकते हैं और वह हंसी पैदा करे तो ज्यादा अच्छा है. आप छोटी-छोटी बचकानी चीजों पर सब टीवी के बहुत सारे सीरियलों की तरह ठहरने लगते हैं तो बस कोफ्त ही होती है.

अंत उम्मीद से अलग है, अच्छा है, लेकिन वह भी आपके भीतर कहीं नहीं उतरता. फिल्म कहीं अपने आधार में ही जड़ों से उखड़ी हुई है. उसकी कहानी के कुछ अच्छे हिस्से हैं लेकिन ज्यादा हिस्सों में विश्वसनीयता नहीं. फिल्म के पास घटनाएं ही बहुत कम हैं और राज कुमार गुप्ता के पास वह विजन भी नहीं दिखता कि वे बिना घटनाओं के फिल्म को रोचक बना सकें.

यह सिर्फ घनचक्कर की ही नहीं, हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा की भी बड़ी समस्या है कि फिल्म अपना ट्रेलर होने की कोशिश ज्यादा करती है. उसे अपने किसी भी किरदार से ज्यादा दर्शकों की और उन्हें हंसाने की फिक्र रहती है, और चूंकि वह अपनी कहानी में उतरी ही नहीं है, इसलिए यह काम भी नहीं कर पाती.

यह याददाश्त के खोने का थ्रिलर होता और उसमें नैचुरल ह्यूमर या कुछ भी, तो कहीं बेहतर हो सकता था. लेकिन यह अपने किरदारों के प्यार तक को ठीक से नहीं पकड़ पाती. प्यार के ना होने को भी (अगर कोई कहे कि प्यार था ही नहीं). जो है, यह उसके बारे में भी बात नहीं करती और जो नहीं है, उसके न होने के बारे में भी. हां, यह कुछ भी नहीं कहती. कुछ-कुछ अपने टाइटल गीत की तरह.

-गौरव सोलंकी