किसे मिलेगी कमान?

चुनाव के बाद मतगणना में एक महीने से भी ज्यादा वक्त होने के कारण उत्तराखंड में इस बार चर्चाओं के लिए खूब फुर्सत है. कौन-सी सीट से कौन जीतकर आ रहा है, किस पार्टी की सरकार बन रही है, किसी एक दल को बहुमत मिलेगा या गठबंधन की सरकार बनेगी, जैसी चर्चाएं हर नुक्कड़ और कोने में होती देखी जा सकती हैं.  हर चर्चा आखिर में मुख्यमंत्री की कुर्सी से जुड़े सवालों पर आकर अटकती है. जैसे किस दल या गठबंधन का मुख्यमंत्री कौन होगा? मुख्यमंत्री विधायकों में से बनेगा या वह गैरविधायक होगा? और ऐसे ही तमाम सवाल.

राज्य में 30 जनवरी को हुए विधानसभा चुनाव की मतगणना छह मार्च को होगी. 70 विधानसभा सीटों वाले उत्तराखंड में व्यापक जनाधार वाली पार्टियां कांग्रेस और भाजपा हैं. पिछली दो विधानसभाओं में 10 प्रतिशत से अधिक विधायक बसपा के थे. हरिद्वार जैसे मैदानी जिले में अच्छा जनाधार होने के साथ बसपा को पूरे राज्य में पिछले दोनों विधानसभा चुनावों में छह प्रतिशत से अधिक मत मिले थे. विधायकों की संख्या और मत प्रतिशत के लिहाज से यह प्रदर्शन क्षेत्रीय दल उक्रांद से बेहतर था. हाल के विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल के रूप में चुनाव लड़े उक्रांद के पंवार धड़े और टीपीएस रावत की पार्टी रक्षा मोर्चा ने न सिर्फ बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारे बल्कि कुछ सीटों पर जीत लायक मौजूदगी भी दिखाई. इनके अलावा कई निर्दलीय उम्मीदवार भी जीतने की स्थिति में दिख रहे हैं.  ये सभी निर्दलीय कांग्रेस या भाजपा का टिकट न मिलने पर बागी के रूप में चुनाव लड़े हैं.
वैसे तो उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला छह मार्च को ईवीएम करेगी लेकिन, अलग-अलग स्थितियों में कौन मुख्यमंत्री बन सकता है, इस पर विचार करने पर एक दिलचस्प खाका खिंचता नजर आता है.

क्या कहता है अतीत

उत्तराखंड में पिछले 12 साल में छह बार मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. 2000 में जब अलग राज्य बना था तब एक अंतरिम विधानसभा बनी थी. इसका गठन उस समय उत्तर प्रदेश में विधानसभा और विधान परिषद में मौजूद उत्तराखंड के सदस्यों की सिम्मलित संख्या से किया गया. भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य रहे वयोवृद्ध नित्यानंद स्वामी पर दांव खेला और उन्हें मुख्यमंत्री बनाया. हालांकि तब भाजपा के ज्यादातर विधानसभा सदस्यों ने इसका विरोध किया था. इसके साल भर बाद चुनाव से कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी भगत सिंह कोश्यारी को सौंपी गई. कोश्यारी भी उत्तर प्रदेश में विधान परिषद सदस्य रहे थे. यानी अंतरिम विधानसभा में वरिष्ठ और व्यापक जनाधार वाले नेताओं की मौजूदगी के बाद भी भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री के रूप में स्वामी और कोश्यारी को चुना.

2002 में राज्य में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए. जनादेश कांग्रेस को मिला. चुनाव तब पार्टी के अध्यक्ष रहे हरीश रावत के नेतृत्व में लड़ा गया था. जीतकर आए विधायकों में से ज्यादातर उनके साथ थे. मगर पार्टी दिग्गज नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें चित कर दिया. ये वही तिवारी थे जो चुनाव से पहले कह रहे थे कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का चार बार मुख्यमंत्री रहने और केंद्र सरकार में हर मंत्रालय संभालने के बाद उनकी कोई आकांक्षा शेष नहीं रही. चुनाव के बाद उनके सुर बदल गए. तब उनका कहना था कि इस नवोदित राज्य को विकास की अच्छी दिशा देने के लिए उन्हें आलाकमान का हर आदेश स्वीकार है.  जानकार बताते हैं कि पुराने धुरंधर तिवारी ने मुख्यमंत्री पद के अन्य दावेदारों को हरीश रावत का भय दिखा कर आखिरी समय में ऐसी राजनीतिक परिस्थितियां बना दी थीं कि आलाकमान के पास तिवारी को चुनने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था. यानी प्रदेश में पहली निर्वाचित सरकार का मुखिया भी आलाकमान की पसंद से ही बना.

2007 के चुनावों में भाजपा को जनादेश मिलने के बाद भी ऐसा ही हुआ. तब चुनाव राज्य में स्वयं को बड़ा और जनाधार वाला नेता सिद्ध कर चुके भगत सिंह कोश्यारी  के नेतृत्व में लड़ा गया था. विजयी विधायकों में भी ज्यादातर कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थे. लेकिन संघ के आशीर्वाद के बावजूद भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री के रूप में सांसद भुवन चंद्र खंडूड़ी को देहरादून भेजा. इन्हीं खंडूड़ी को ढाई साल बाद मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया. मुख्यमंत्री पद से हटाते समय भाजपा विधायक दल के अधिकतर विधायकों का समर्थन खंडूड़ी के साथ था. विडंबना देखिए कि जब खंडूड़ी के साथ विधायक नहीं थे तो उन्हें मुख्यमंत्री पद का ताज पहनाया गया और जब वे ज्यादातर विधायकों का दिल जीत चुके थे तो उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का फरमान सुना दिया गया. आलाकमान ने तब विधायकों से नया मुख्यमंत्री चुनने को कहा. शर्त यह थी कि वह खंडूड़ी या कोश्यारी में से न हो. खंडूड़ी और उनके खेमे ने रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ का समर्थन किया. भाजपा विधायक दल में मतदान के आधार पर ‘निशंक’ मुख्यमंत्री चुने गए. यानी पहली बार आलाकमान की बजाय विधायकों ने अपना मुख्यमंत्री चुना. बाद में भाजपा आलाकमान ने चुनाव से ठीक छह महीने पहले निशंक को हटाकर एक बार फिर खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया.

यानी अब तक उत्तराखंड में मुख्यमंत्री चुने जाने के छह मौकों में से पांच मौकों पर पार्टी आलाकमान की ही चली. भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ने ही विधायकों की इच्छा के विपरीत फैसला किया.

अगर भाजपा जीतती है तो…

भाजपा ने उत्तराखंड विधानसभा चुनाव ही खंडूड़ी को आगे करके लड़ा है. पोस्टर, बैनर, होल्डिंग से लेकर पैंफ्लेट तक हर चुनाव सामग्री में एक ही नारा था -‘खंडूड़ी हैं जरूरी’. प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल, पूर्व मुख्यमंत्री कोश्यारी और निशंक चुनाव प्रचार सामग्री में एक कोने पर सिमटे रहे. राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी तो प्रचार सामग्री में जगह बनाने में ही असफल रहे. विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य में प्रचार करने आए भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने कहा कि भाजपा की पहली और एकमात्र पसंद खंडूड़ी ही हैं. इसलिए कोई भी मान सकता है कि यदि उत्तराखंड में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलता है या उसके गठबंधन की सरकार सत्ता में आती है तो स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री वे ही होंगे.

लेकिन ‘खंडूड़ी हैं जरूरी’ नारे की सार्थकता सिद्ध करने के लिए खंडूड़ी को न केवल अपने विधानसभा क्षेत्र में भारी बहुमत से जीत हासिल करनी होगी बल्कि पार्टी को कम से कम साधारण बहुमत दिलाने के नैतिक दबाव की परीक्षा भी पास करनी होगी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि स्पष्ट बहुमत न मिल पाने की स्थिति में खंडूड़ी का मुख्यमंत्री पद के लिए दावा उतना मजबूत नहीं रहेगा. खंडूड़ी के राजनीतिक कौशल और प्रबंधन की परीक्षा इससे भी होगी कि उनकी पहल और स्वीकृति पर टिकट पाए नेताओं में से कितने जीतकर आते हैं. राज्य भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘पार्टी ने टिकट वितरण, प्रचार अभियान और पूरी चुनाव प्रक्रिया में खंडूड़ी को वैसी ही छूट दी थी जैसी गुजरात में नरेंद्र मोदी को मिलती है, इसलिए बेहतर नतीजे लाना भी उनकी जिम्मेदारी होगी.’

वैसे चुनावों में टिकट वितरण में खंडूड़ी के साथ पूर्व मुख्यमंत्री कोश्यारी की भी खूब चली. इसलिए नतीजे आने तक यह कहना मुश्किल है कि खंडूड़ी और कोश्यारी की पसंद में से किसके विधायक अधिक संख्या में आएंगे. विधानसभा चुनावों तक खंडूड़ी और कोश्यारी खेमा हर मामले में एक सुर में बोला है, परंतु जरूरी नहीं कि बाद में भी ऐसा ही रहे. पार्टी में तीसरे धड़े के रूप में स्थापित निशंक समर्थकों में से इक्का-दुक्का को ही टिकट मिला है, इसलिए संख्या बल पर शायद ही वे मुख्यमंत्री पद के लिए खुद को पेश कर पाएं. जानकारों की मानें तो अतीत को देखते हुए यह मानना मुश्किल है कि कोश्यारी ने खुद को मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से बिल्कुल अलग कर रखा है.

और यदि कांग्रेस जीती तो…

कांग्रेस ने उत्तराखंड में विधानसभा चुनावों में राज्य के किसी भी नेता को मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया. कांग्रेसी सांसदों में से फिलहाल मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदार हरीश रावत, सतपाल महाराज व विजय बहुगुणा हैं. जीत कर आने वाले संभावित विधायकों में से पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य, नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत और पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश का नाम भी मुख्यमंत्री पद के लिए उछल रहा है.

एनडी तिवारी भी उत्तराखंड में मतदान के बाद दो साल के लिए मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं. हैदराबाद राजभवन से वापस उत्तराखंड आने के बाद उन्होंने खुद को राजनीतिक दलों की विचारधारा से ऊपर उठा हुआ दिखाया था. लेकिन चुनावों से ठीक पहले उन्होंने राज्य की सभी 70 सीटों पर एक अनाम और अस्तित्वविहीन संगठन के माध्यम से अपने चेलों को चुनाव लड़ाने की धमकी दे कर अपने तीन समर्थकों को टिकट दिलवाया. हालांकि हाल की घटनाओं ने साफ संकेत दे दिए हैं कि अब 10 जनपथ की नजर में न तो उनकी कोई पूछ है न ही राज्य में अब उनकी कोई राजनीतिक पकड़ ही रह गई है. फिर भी राजनीतिक जानकार तिवारी की खेल बिगाड़ने की क्षमता को कम करके नहीं आंकते.

संसदीय राजनीति के लिहाज से देखें तो 1980 में पहली बार सांसद चुने गए हरीश रावत राज्य में नारायण दत्त तिवारी के बाद सबसे वरिष्ठ नेता हैं. वे हरिद्वार से सांसद हैं. इस चुनाव में सबसे ज्यादा टिकट उनके समर्थकों को मिले. राज्य की चारों लोकसभा सीटों पर हरीश रावत के समर्थक मौजूद हैं. कुमाऊं में पूर्व मंत्री महेंद्र सिंह माहरा व गोविंद सिंह कुंजवाल उनके समर्थक हैं और गढ़वाल में कोटद्वार से मुख्यमंत्री खंडूड़ी के विरुद्ध चुनाव लड़ रहे पूर्व मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी और प्रीतम सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं की गिनती भी उनके समर्थकों में होती है. इसके अलावा तीसरी बार विधायक बनने की संभावना वालेे एक दर्जन से अधिक विधायक भी हरीश रावत के कट्टर समर्थकों में गिने जाते हैं. लेकिन तमाम अनुकूल समीकरणों के बाद भी सांसदों में से मुख्यमंत्री न बनाने के आलाकमान के निर्णय और राज्य में मुख्यमंत्री पद के अन्य दावेदारों का कड़ा विरोध 2002 की तरह हरीश रावत की राह में रोड़े अटका सकता है. अन्य दावेदार सांसदों में पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री रहे सतपाल महाराज और विजय बहुगुणा हैं. दोनों का ही सांसद के रूप में दूसरा कार्यकाल है. 1996 में पहली बार सांसद बने महाराज को 10 जनपथ का सहारा है और वे हाल ही में उत्तर प्रदेश के चुनावों में अपनी रैलियों में जुटी भारी भीड़ को अपनी राष्ट्रव्यापी स्वीकार्यता का पैमाना बताते हैं. सांसदों में से मुख्यमंत्री न बनाए जाने की स्थिति में और किसी महिला के मुख्यमंत्री बनने की सूरत में महाराज अपनी पत्नी और पूर्व राज्य मंत्री अमृता रावत को भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में उतार सकते हैं. रावत भी दो बार विधायक रह चुकी हैं. महाराज को मुख्यमंत्री बनाने की स्थिति में वे उनके लिए अपनी विधानसभा सीट भी आसानी से छोड़ सकती हैं.
2007 के उपचुनाव में पहली बार टिहरी से सांसद बने विजय बहुगुणा भी संभावित दावेदारों में से एक हैं. बताया जाता है कि उन्हें अपनी बहन और उत्तर प्रदेश की कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के जरिए 10 जनपथ से काफी उम्मीदें हैं. राज्य में तिवारी के बाद बहुगुणा ही ब्राह्मण नेताओं में बड़ा नाम हैं. उनके पिता हेमवती नंदन बहुगुणा की ख्याति भी उनके पक्ष में काम करती है. हालांकि महाराज और बहुगुणा गुटों से जीत कर आने वाले विधायकों की संख्या कम है. इसलिए इन दोनों ही गुटों को आलाकमान के दम पर ही मुख्यमंत्री बनने का भरोसा है.

अगर मुख्यमंत्री विधायकों में से चुना जाता है तो तब कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य इस पद के स्वाभाविक दावेदार होंगे. 1989 में पहली बार विधायक बने आर्य जीतने की स्थिति में पांचवीं बार विधायक चुने जाएंगे. वे पिछली बार विधानसभा अध्यक्ष भी रहे थे. मृदुभाषी और दलित समुदाय से आने वाले आर्य के नेतृत्व में कांग्रेस वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में राज्य की पांचों सीटें जीतने में सफल रही थी. 2001 की जनगणना के अनुसार राज्य में 21 प्रतिशत दलित हैं. इस बार भी विधानसभा चुनावों में राज्य में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन रहने की संभावना है. आर्य के समर्थकों का कहना है कि जब हार की तोहमत प्रदेश अध्यक्ष पर लगाई जाती है तो जीत का ईनाम भी उन्हें ही मिलना चाहिए. आलाकमान भी 2014 के लोकसभा चुनावों में जीत के लिए पिछले चुनावों में कांग्रेस की जीत का आधार बने दलितों और मुसलिमों के गठबंधन को और मजबूती देना चाहेगा. हालांकि राजनीतिक पर्यवेक्षकों को संदेह है कि सरल आर्य शायद ही अकेले दिल्ली दरबार में अपनी बात दमदार तरीके से रख सकें.

नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत ने तो विधानसभा चुनाव ही मुख्यमंत्री बनने के नाम पर लड़ा है. रावत अपने जुझारू तरीकों से राज्य और कांग्रेस आलाकमान में अपनी अलग छवि बना चुके हैं. हालांकि जीत कर आने वाले उनके समर्थक विधायकों की संख्या नगण्य ही होगी.  हरक सिंह के अलावा पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश भी खुले रूप से मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर कर चुकी हैं. राज्य में वरिष्ठ ब्राह्मण नेता हृदयेश, उत्तर प्रदेश में कई बार राज्य विधानपरिषद में शिक्षकों का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं.  2002 में वे पहली बार सीधे चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंची थीं. तिवारी समर्थक रही हृदयेश का रुतबा पिछली कांग्रेस सरकार में नंबर-2 का था. लेकिन अपने दम पर विधायकों से उन्हें समर्थन मिलने की संभावना कम ही है. अब हरीश रावत के नजदीक हो गई हृदयेश को हरीश रावत खेमे के समर्थन का ही भरोसा रहेगा.

इन खुले दावेदारों के अलावा कांग्रेस में कुछ छिपे रुस्तम भी हैं. इनमें से चकराता के विधायक प्रीतम सिंह चौहान भी हैं. खानदानी कांग्रेसी परिवार से आने वाले प्रीतम के पिता गुलाब सिंह उत्तर प्रदेश में आठ बार विधायक रहे. 1993 में पहली बार विधायक बने प्रीतम सिंह अब तक तीन बार विधायक और पिछली सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं. पिछले विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के अधिकतर विधायक प्रीतम को नेता प्रतिपक्ष बनाने के लिए अपनी सहमति कांग्रेस आलाकमान को दे चुके थे लेकिन बनाया गया हरक सिंह रावत को. प्रीतम को नेता प्रतिपक्ष न बनाने पर विरोध में ले. जनरल टीपीएस रावत ने कांग्रेस ही छोड़ दी थी. बाद में वे प्रदेश अध्यक्ष पद के दावेदार भी थे. हालांकि हरीश रावत और विजय बहुगुणा के समर्थन के बाद भी प्रीतम को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बनाया गया. अब हरीश रावत के मुख्यमंत्री न बनने की स्थिति में प्रीतम उनकी पहली पसंद हो सकते हैं. हरीश रावत के अलावा टिहरी संसदीय क्षेत्र की चकरौता विधानसभा के विधायक प्रीतम वहां के सांसद विजय बहुगुणा की भी पसंद बन सकतेे हैं. चकरौता विधानसभा का पूरा क्षेत्र अनुसूचित जनजाति का है, इसलिए राजपूत होने के साथ-साथ प्रीतम अनुसूचित जनजाति का भी कोटा पूरा करते हैं. जनसंख्या के हिसाब से राज्य में राजपूतों का प्रतिशत सबसे अधिक है. इसके अलावा अनुसूचित जाति के लोगों की जनसंख्या भी कुल जनसंख्या का लगभग चार फीसदी है. किसी एक खेमे की बजाय कांग्रेस की राजनीति करने वाले प्रीतम के नाम पर भी राज्य में कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता एकमत हो सकते हैं. प्रीतम दिल्ली में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के प्रिय भी हैं.

प्रीतम के अलावा कोटद्वार से चुनाव लड़ रहे सुरेंद्र सिंह नेगी भी हरीश रावत की पसंद बन सकते हैं. 1985 में पहली बार कांग्रेस के विधायक चुने गए नेगी यदि अप्रत्याशित रूप से मुख्यमंत्री खंडूड़ी को हराते हैं तो उनका मुख्यमंत्री पद पर दावा मजबूत हो जाएगा. जानकार बताते हैं िक जमीनी नेता और सरल स्वभाव के नेगी को भी कांग्रेस के अन्य बड़े नेताओं का आशीर्वाद आसानी से मिल जाएगा. नेगी के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक और विपरीत समय में भी कांग्रेस का साथ न छोड़ने वाले हीरा सिंह बिष्ट, शूरवीर सिंह सजवाण और अपेक्षाकृत कनिष्ठ किशोर उपाध्याय भी जीतने की सूरत में अपने पक्ष में कुछ अप्रत्याशित नतीजा ला सकते हैं.

राज्य में हवा का रुख कांग्रेस के पक्ष में है. 25 के लगभग सीटें त्रिकोणीय मुकाबले में फंसी हैं. अगर किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो उस सूरत में समर्थन देने वाले निर्दलीयों और छोटे दलों के नेताओं की पसंद भी मुख्यमंत्री के चयन में अहम हो जाएगी.