कानपुर की नाक का संकट

एक तस्वीर से पूरी कहानी बयां करने की बात सही है तो एल्गिन मिल की यह तस्वीर इस बात को बहुत अच्छी तरह साबित करती है. 1862 में बनी इसी कपड़ा मिल की वजह से कभी कानपुर को ‘पूरब का मैनचेस्टर’ का खिताब मिला था. आज यह तस्वीर उसी मैनचेस्टर की बदहाली का एक संकेत है.

मिल के मेन गेट पर ही हमारा सामना कुछ मजदूरों से होता है. मिल से निकाले गए ये मजदूर पिछले 3,181 दिन से यहां विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. न्याय पाने के लिए लड़ रहे इन लोगों की आपबीती सुनते हुए आप उस शहर की कहानी से भी रूबरू होते हैं जो जाति और राजनीति के दांवपेचों से तालमेल नहीं बैठा पाया और धीरे-धीरे अपनी प्रतिष्ठा खोते हुए लाखों अधेड़ उम्र के बेरोजगारों का शहर बन गया. यहीं से कुछ दूरी पर महलनुमा लाल इमली मिल है. ढहने के कगार पर खड़ा लाल ईंटों से बना यह ढांचा ऐतिहासिक इमारतों की तरह लगता है. कभी यहां तकरीबन 20 हजार लोग काम करते थे. अब यहां सिर्फ 1,300 कामगार आते हैं.

इस औद्यौगिक शहर के पतन की कहानी का सबसे बुरा हिस्सा यह है कि मुद्दे के रूप में इस समस्या का वजन खत्म हुए भी एक दशक हो गया है.  65 साल के मोतीलाल साहू चाय की दुकान चलाते हैं. 26 साल पहले वे इन्हीं दर्जनों मिलों में काम करने वाले लाखों मजदूरों में से एक थे. साहू बताते हैं कि आज शहर के दस में से नौ रिक्शावाले मिल मजदूर या उनके परिवारों के ही सदस्य हैं. 70 के दौर की बात करते हुए उनके चेहरे पर चमक आ जाती है. तब वे सरकारी कर्मचारियों से भी ज्यादा पैसा कमाते थे. मोतीलाल कहते हैं, ‘यदि सरकार कुछ मिलें चालू कर दे तो वे दिन फिर वापस आ सकते हैं.’ लाखों लोगों की जिंदगी से जुड़ा होने के बावजूद यह समस्या राजनीतिक रूप से संवेदनशील उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कभी चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनी? इसका जवाब वे इन शब्दों में देते हैं, ‘हम कई नेताओं के पास जाकर बात कर चुके हैं. सभी ने वादा तो किया लेकिन हुआ कुछ नहीं.’ 
एक वर्ग इस असफलता का ठीकरा नेताओं पर भी फोड़ता है. एक उद्योगपति बताते हैं, ‘कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में जो फैसले लिए गए थे उन्हें मुलायम सिंह यादव ने इस डर से पलट दिया कि कहीं कल्याण इसका राजनीतिक फायदा न उठा लें. अपने दूसरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह (2003-07) ने कई दौरे किए, उद्योगपतियों को प्रदेश में निवेश के लिए आमंत्रित किया लेकिन खुद राज्य सरकार की सहमति न मिलने से ज्यादातर एमओयू जमीनी हकीकत नहीं बन पाए. कुल मिलाकर राजनीतिज्ञों की तरफ से स्पष्टता के अभाव ने प्रदेश में औद्योगिक विकास का माहौल खराब कर दिया.’

उत्तर प्रदेश में उद्योगपतियों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उद्योगों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा बर्बादी के कगार पर है. बिजली की भारी कमी के चलते ज्यादातर छोटी औद्योगिक इकाइयां दूसरे राज्यों में चली गई हैं.  सीवर लाइन के लिए सालों पहले खोदे गए गड्ढों की वजह से खराब हुई सड़कें आज भी बदहाल हैं.

दसवीं लोकसभा (1991) में इस क्षेत्र से सांसद रह चुकी सीपीएम की सुभाषिनी अली बताती हैं, ‘ प्रदेश में कानपुर दूसरे शहरों की अपेक्षा सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला क्षेत्र रहा है, इसके बाद भी सबसे ज्यादा उपेक्षा इसी शहर को झेलनी पड़ी. यदि आप उद्योगों को आकर्षित करना चाहते हैं तो आपको सड़कें, बिजली और परिवहन की सुविधाएं उपलब्ध करानी ही होंगी.’ शहर के शानदार अतीत से लेकर इसकी मौजूदा बदहाली तक के साक्षी रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद तिवारी कहते हैं, ‘ इस शहर में कभी बसपा और सपा का मजबूत जनाधार नहीं रहा है जबकि पिछले तकरीबन बीस साल से यही दो पार्टियां सत्ता में हैं. इन पार्टियों के बड़े नेता अक्सर पूछते हैं कि इस शहर से उन्हें क्या मिला है. वे सोचते हैं कि कानपुर की मिलें यदि चालू भी हो जाएं तो उसका फायदा उन्हें नहीं मिलेगा बल्कि केंद्र में बैठी सरकार इसका श्रेय ले लेगी. इसलिए उनकी योजनाओं में कानपुर कभी शामिल नहीं होता.’

पिछले उदाहरण बताते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति करने वाले नेताओं ने भी कानपुर के लिए बड़े-बड़े वादे किए लेकिन जमीन पर कुछ नहीं बदला. प्रधानमंत्री बनने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि कानपुर की मिलों की चिमनियों से धुआं निकलना फिर शुरू होगा. यह बयान काफी चर्चित तो हुआ लेकिन एनडीए सरकार के समय में भी शहर की किस्मत जस की तस रही. हाल की यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री और कानपुर से लोकसभा सांसद श्रीप्रकाश जायसवाल से जब भी औद्योगिक समूहों के प्रतिनिधि मिलते हैं तो वे राज्य सरकार की उदासीनता का हवाला देकर अपनी असमर्थता जाहिर कर देते हैं.

कुछ लोगों की राय में बाबरी मस्जिद ढहाने की घटना के बाद कानपुर के दंगों से बुरी तरह प्रभावित होने की वजह भी यही रही कि शहर की ज्यादातर मिलें और औद्योगिक इकाइयां सालों से बंद पड़ी थीं. अली कहती हैं, ‘एक बार जब मिलें बंद हो गईं तो कामगारों की एकता भी टूट गई. वे वापस अपनी पुरानी पहचान की तरफ लौटने लगे.’ हालांकि सांप्रदायिक द्वेष ज्यादा दिन तक कायम नहीं रहा और शहर बाद में धीरे-धीरे इस संकीर्णता से बाहर आ गया.

तो क्या प्रदेश के राजनीतिक आकाओं से शहर के उद्योग-धंधे दोबारा आबाद करने की उम्मीद की जा सकती है? जानकारों के मुताबिक यह हवा में महल खड़ा करने जैसा है. प्रमोद तिवारी कहते हैं, ‘ मुलायम सिंह और मायावती दोनों ही जातिवादी राजनीति की उपज हैं. यहां उद्योगों को पुनर्जीवित करना कोई मुद्दा ही नहीं है. फिर भी कोई ऐसा करना चाहे तो पहले यह देखना होगा कि उत्तर प्रदेश में सरकार के पास कोई औद्योगिक नीति है कि नहीं. फिर यह भी कि इसके तहत कानपुर के लिए कुछ खास किया जा सकता है. प्रदेश में किसी भी सरकार के पास अपनी कोई औद्योगिक नीति नहीं रही है, ऐसे में कानपुर के लिए अलग नीति की बात ही बेमानी है.’

एक बड़े उद्योगपति नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘जब कारोबारी दूसरे राज्यों में निवेश के लिए जाते हैं तो उनके लिए सुविधाओं का पिटारा खोल दिया जाता है : टैक्स में छूट, सस्ती दरों पर जमीन और जबर्दस्त बुनियादी सुविधाएं. वहां की सरकारें औद्योगीकरण के फायदे समझती हैं. कानपुर में तो हमें यही महसूस होता है कि सरकार हमें यहां से किसी भी तरह भगाना चाहती है. शहर में जो भी औद्योगिक इकाइयां बची हैं वे अपने दम पर सरकारी मुसीबतों को झेलते हुए यहां टिकी हैं.’

शहर के औद्योगिक ढांचे के बर्बाद होने की वजह सिर्फ राजनीतिक उपेक्षा ही नहीं है. जानकारों के मुताबिक इसके लिए कुछ हद तक मिल मालिक भी जिम्मेदार हैं. अपने अच्छे समय में जब कपड़ा मिलें भारी मुनाफा काट रही थीं तब उनके आधुनिकीकरण के लिए पैसा ही नहीं लगाया गया. नतीजा उनका उत्पादन घटता गया. लाखों की तादाद में मिल मजदूर होने की वजह से ट्रेड यूनियनों की भूमिका का भी यहां नकारात्मक असर पड़ा. जहां एक मिल में एक ट्रेड यूनियन होनी चाहिए वहां कानपुर की इन मिलों में एक समय में दस-दस ट्रेड यूनियनें बन गईं. इस समय जब केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों से मिलों को मदद मिलनी चाहिए थी, लेकिन उनकी नीतियों ने अचानक उन्हें बर्बाद कर दिया. इन हालात में मिल मालिकों ने भी कारोबार से हाथ खींचना शुरू कर दिया. इसके बाद सरकारी हस्तक्षेप हुआ और बीमारू मिलों को सरकार ने अधिगृहीत कर लिया. एनटीसी इसी का एक उदाहरण है और इस बात का भी कि सरकारी मिलें बाद में कैसे सफेद हाथी बनकर रह गईं.

सुभाषिनी अली इस बात से सहमति जताती हैं कि सुदूर और पिछड़े इलाकों को छूट मिलने का बुरा असर कानपुर पर पड़ा है. वे कहती हैं, ‘सरकार ने यह कभी नहीं सोचा कि जिस जगह कुशल श्रमिकों की भरमार है और जो पिछले 75 सालों से यहां काम कर रहा है, वहां क्यों नहीं कुछ नई मिलों या उद्योगों को शुरू करने के लिए सरकारी मदद या प्रोत्साहन दिया जाए.’ कानपुर के एक उद्योगपति अपने दर्द को इन शब्दों में साझा करते हैं, ‘यह शहर असहाय भी है और अनाथ भी. हमें कोई ऐसा प्रभावशाली आदमी चाहिए जो कानपुर की आवाज को लखनऊ के साथ-साथ दिल्ली तक पहुंचा सके. और जब तक यह नहीं होता, शहर का तिल-तिल कर मरना जारी रहेगा.’