उत्तराखंड: ‘ठंडे’ पर सरगर्मी

उत्तराखंड में जमीन से शुरू होने वाले विवादों का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा. ताजा विवाद ‘कोका कोला’ कंपनी को जमीन आवंटित करने का है. इस पर गहराई से नजर डाली जाए तो साफ दिखता है कि राज्य सरकार न सिर्फ निवेश की हड़बड़ी में स्थानीय हितों की उपेक्षा कर रही है बल्कि वह अतीत से कोई सबक सीखने को भी तैयार नहीं.

बीती 17 अप्रैल को राज्य सरकार ने हिंदुस्तान कोका कोला बेवरेज प्राइवेट लिमिटेड के साथ एक करार किया था. इसके मुताबिक कंपनी उत्तराखंड में 600 करोड़ रुपये का पूंजी निवेश करके प्लांट लगाएगी. मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की उपस्थिति में हुए इस करार को सरकार ने बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया. कोका कोला से हुए समझौते के अनुसार राज्य सरकार कंपनी को देहरादून जिले की विकास नगर तहसील के छरबा गांव में लगभग 70 एकड़ (368 बीघा) जमीन 95 लाख रुपये प्रति एकड़ (19 लाख रुपये प्रति बीघा) के भाव पर देगी. प्रस्तावित प्लांट में नान अल्कोहलिक कार्बोनेटेड बेवरेज और जूस बनेगा जिससे 1,000 लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलने की संभावना है.

कोका कोला का यह निवेश औद्योगिक क्षेत्र सिडकुल फेज-2 की शुरुआत होने के आठ महीने बाद उत्तराखंड में पहला बड़ा औद्योगिक पूंजी निवेश था. पिछले कुछ सालों से बड़े उद्योग उत्तराखंड की ओर रुख नहीं कर रहे थे. उल्टे औद्योगिक पैकेज में मिलने वाली छूट में हुई कटौती के कारण कई कंपनियां यहां से काम समेटने की फिराक में थीं. ऐसे में सरकार ने कोका कोला के निवेश को बड़ी उपलब्धि बताया. लेकिन इस बड़े पूंजी निवेश की खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी. करार के चार दिन बाद ही चर्चित पर्यावरणविद वंदना शिवा ने इस पर सवाल उठा दिए. 21 अप्रैल को देहरादून में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने सरकार के इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया. वंदना शिवा ने कोका कोला कंपनी को ‘पानी का लुटेरा’ बताते हुए आरोप लगाया कि देश में जहां भी कंपनी के प्लांट लगे हैं वहां पानी आम आदमी की पहुंच से बाहर चला गया है. उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि उसे पहले केरल के प्लाचीमाड़ा और उत्तर प्रदेश में बनारस के पास मेहंदीगंज जाकर वहां की हालत देखनी चाहिए और तब कोका कोला को छरबा में प्लांट स्थापित करने की इजाजत देनी चाहिए.

वैसे इस पूरे विवाद की पड़ताल की जाए तो सरकार की अदूरदर्शिता साफ दिखती है. देहरादून से लगभग 32 किमी दूर सहसपुर कस्बे से थोड़ा आगे बढ़ते ही छरबा गांव शुरू हो जाता है. सड़क पर ही राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता ग्राम सभा छरबा का बोर्ड लगा है. ग्राम प्रधान रोमी राम जायसवाल बताते हैं कि पिछले साल ही उनकी ग्राम सभा छरबा को राष्ट्रीय स्तर पर शराबबंदी के लिए प्रथम पुरस्कार मिला था. वे बताते हैं कि छरबा को जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कार मिले हैं. 80 के दशक में भी इसे उत्तर प्रदेश में सबसे अच्छे वृक्षारोपण के लिए पुरस्कार मिला था. गांव के पश्चिम में आसन और उत्तर में शीतला नदी बहती है. आसन में साल भर पानी रहता है लेकिन शीतला बरसाती नदी है. गांव छह किमी लंबाई और छह किमी चौड़ाई में बसा है, इसीलिए इसका नाम छरबा पड़ा. 1,659 परिवारों का यह गांव कई मायनों में आदर्श है. करीब 10 हजार की आबादी में 40 फीसदी मुसलमान हैं और 60 फीसदी हिंदू. गांव में छोटे बच्चों के लिए 18 आंगनबाड़ी केंद्र चल रहे हैं.

[box]‘जिस भूमि का चयन सरकार ने कोका कोला प्लांट लगाने के लिए किया है उस पर ग्रामीण कृषि विकास के लिए अनुसंधान केंद्र स्थापित करना चाहते थे’[/box]

ग्राम सभा ने 120 आवारा गायों के लिए शेल्टर बनाया है. ये गायें ग्रामीणों ने समय-समय पर कसाइयों से छुड़वाई थीं. गांव के पूर्व प्रधान मुन्ना खां बताते हैं, ‘कसाइयों से गायों को छुड़वाने वालों में मुस्लिम भाई आगे रहते हैं.’ गांव के 70 साल के बुजुर्ग मोर सिंह बताते हैं, ‘गांव के लोग 40 साल पहले पानी के लिए दो कुओं, तालाब या तीन किलोमीटर दूर आसन नदी के पानी पर निर्भर थे.’ पानी न होने से तब गांव के अधिकांश खेत बंजर ही रहते थे. वे बताते हैं, ‘हालत इतनी बदतर थी कि पानी की कमी के चलते आस-पास के गांवों के लोग छरबा में अपनी बेटियों को ब्याहने से कतराते थे.’ सरकारें हैंडपंप लगाने की कोशिश करती थीं, लेकिन जल स्तर बहुत नीचे होने के कारण पानी नहीं आ पाता था. मोर सिंह बताते हैं, ‘तब गांववालों ने इस समस्या का हल खुद निकालने की सोची. आज 40 साल की मेहनत के बाद गांव में 68 एकड़ (520 बीघा) भूमि पर खैर, शीशम और पेड़ों की अन्य प्रजातियों का घना जंगल है. इससे जल स्तर 150 फुट के लगभग आ गया है. जहां कभी खराब भू जल स्तर के कारण हैंडपंप नहीं चल पाते थे, वहां आज 14 ट्यूब वेल और 22 हैंडपंप काम कर रहे हैं. ‘प्रधान रोमी राम जायसवाल बताते हैं, ‘गांव के बुजुर्गों की मेहनत से आज छरबा में अन्न और जल की कोई कमी नहीं है.’

लेकिन 18 अप्रैल की सुबह जब गांववालों को गांव की लगभग 70 एकड़ (368 बीघा) भूमि कोका कोला कंपनी को देने की खबर अखबारों के माध्यम से मिली तो उनके पांवों तले जमीन खिसक गई. कोका कोला को दी जाने वाली भूमि में गांव के लोगों द्वारा पाला-पोसा गया गांव का जंगल तो था ही पास बहने वाली शीतला नदी का बड़ा हिस्सा भी इसकी जद में आ रहा था. लोगों में रोष है कि जिनके जीवन पर इस फैसले का सबसे ज्यादा असर होना है उन्हें सरकार ने पूछा तक नहीं. प्रधान जायसवाल कहते हैं, ‘हमारी ग्राम सभा से कभी भी कोका कोला प्लांट स्थापित कराने का प्रस्ताव पारित नहीं कराया गया.  न ही सरकार ने इस विषय में हमसे कभी कोई राय या सहमति ली.’ गांव के लोग बताते हैं कि 2006 में तत्कालीन जिलाधिकारी ने गांव की भूमि दून विश्वविद्यालय को देने के लिए एक बैठक बुलाई थी.

ग्रामीणों ने शिक्षा के पवित्र उद्देश्य के लिए भूमि कुछ शर्तों पर देने पर सहमति जताई थी. उनकी पहली शर्त थी कि दो साल की समय सीमा के भीतर विश्वविद्यालय के भवन का निर्माण होना चाहिए. दूसरी शर्त के अनुसार ग्राम पंचायत की जमीन को लीज पर लिए जाने पर सरकार को ग्राम पंचायत के खाते में कुछ पैसा डालना था. सरकार ने 27 मार्च, 2006 को शासनादेश जारी करके छरबा गांव की लगभग 40 हेक्टेयर (520 बीघा) भूमि दून विश्वविद्यालय को सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बनाने के लिए आवंटित कर दी थी. लेकिन सात साल बीत गए और कुछ नहीं हुआ. हाल ही में गांववालों को राजस्व दस्तावेजों से पता चला कि लगभग छह महीने पहले सरकार ने ग्राम सभा की 520 बीघा भूमि ग्राम सभा के नाम से निकाल कर पहले तो दून विश्वविद्यालय के नाम स्थानांतरित कर दी और फिर गुपचुप तरीके से इसे सिडकुल के नाम दर्ज कर दिया. इसी जमीन में से 368 बीघा जमीन कोका कोला कंपनी को बेची जा रही है.

वैसे ग्रामीणों को बहुत पहले से इसकी आशंका थी. इसीलिए जिस भूमि का चयन सरकार ने हाल में कोका कोला प्लांट लगाने के लिए किया है उस पर ग्रामीण कृषि विकास के लिए अनुसंधान केंद्र स्थापित करना चाहते थे. दो साल पहले छरबा के ग्रामीणों ने विधानसभा के सामने इस जमीन पर कृषि अनुसंधान केंद्र स्थापित करने के लिए धरना भी दिया था. एक बैंक इस जमीन के 60 बीघा हिस्से में कृषि अनुसंधान केंद्र स्थापित करने के लिए ग्राम पंचायत की मदद करने के लिए तैयार था. पूर्ववर्ती निशंक सरकार ने तब इस जमीन को कृषि अनुसंधान संस्थान के बजाय जड़ी-बूटी शोध संस्थान को आवंटित करने का प्रस्ताव मंगवाया था. लेकिन यह प्रस्ताव भी रद्दी की टोकरी में चला गया. छरबा गांव की जमीन के विषय में यह भी दिलचस्प तथ्य है कि कुछ समय पहले जब प्रधान रोमी राम जायसवाल के नेतृत्व में ग्रामीण विधानसभा के सामने धरने पर बैठे थे तो मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, जो उस समय टिहरी के सांसद थे, ने ग्रामीणों का समर्थन करते हुए धरना स्थल पर आकर वादा किया था कि छरबा गांव की इस जमीन का अधिग्रहण नहीं होने दिया जाएगा. ग्रामीणों का आरोप है कि पहले अधिग्रहण तक न होने देने का वादा करने वाले बहुगुणा मुख्यमंत्री बनने के बाद इस जमीन को औने-पौने दामों में बहुराष्ट्रीय कंपनी को बेचने पर आमादा हैं.

कोका कोला कंपनी कई दूसरी जगहों पर अपने प्लांटों को लेकर विवादों में रही है. भयानक जल दोहन किए जाने से जल स्तर नीचे जाने से स्थानीय खेती चौपट होने का उदाहरण हो या उसके प्लांट से निकलने वाले कचरे में मौजूद कैडमियम, क्रोमियम और लेड जैसे जहरीले रसायनों से स्थानीय जन-जीवन और पर्यावरण को होने वाला नुकसान, कंपनी लगातार सवालों के घेरे में रही है. सरकार को पता था कि कंपनी के लिए भूजल दोहन पर बवाल मचेगा, इसलिए अधिकारियों ने कोका कोला के साथ एमओयू करते समय ही यह घोषणा कर दी कि कंपनी भूजल का उपयोग नहीं करेगी. लेकिन सरकार ने अभी तक अधिकारिक रूप से यह नहीं बताया है कि पूरी तरह से साफ पानी पर आधारित कोका कोला कंपनी भूजल नहीं लेगी तो पानी आएगा कहां से. सरकारी अधिकारी अपुष्ट रूप से बताते हैं कि कंपनी को पानी यमुना पर बने डाकपत्थर बैराज या आसन बैराज से दिया जाएगा. इन बैराजों में इकट्ठा पानी से उत्तराखंड की तीन और उत्तर प्रदेश की दो जल विद्युत परियोजनाएं चलती हैं. पहले ही पानी की किल्लत के कारण ये परियोजनाएं पूरी क्षमता से नहीं चल पा रहीं. जानकारों के मुताबिक कोका कोला को पानी देने पर इन परियोजनाओं का भी ठप पड़ना तय है. यानी बिजली उत्पादन में कटौती.

सामाजिक कार्यकर्ता और जल बचाओ आंदोलन के सूत्रधार सुरेश भाई कहते हैं, ‘पानी राज्य सरकार की संपत्ति नहीं है, और न ही इस पानी के उपयोग के लिए राज्य सरकार अकेले कोई फैसला ले सकती है.’ सुरेश भाई का मानना है कि राज्य सरकार कोका कोला कंपनी को देने के लिए डाकपत्थर या आसन बैराज से पानी नहीं ले सकती. इससे पहले उसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली की सरकारों के अलावा केंद्र की भी सहमति लेनी पड़ेगी. जायसवाल कहते हैं, ‘सरकार गांववालों को धोखे में रखने के लिए बैराज से पानी लेने की बात प्रचारित कर रही है. वास्तव में कंपनी को पानी के लिए भूजल ही लेना होगा जिसके लिए गांववाले कभी राजी नहीं होंगे.’ छरबा के लोग अपने गांव के पानी और जंगल को बचाने के लिए हर हद तक जाने को तैयार हैं.

ग्रामीणों और पर्यावरणविदों की दूसरी आशंका प्लांट से निकलने वाले दूषित जल को लेकर है. इस गांव से निकलने वाला यह जल ढलान से होते हुए आसन नदी और आसन बैराज में मिलेगा. 4,440.40 हेक्टेयर में फैले आसन बैराज में हर साल करीब 250 से अधिक प्रजाति के विदेशी पक्षी आते हैं. पक्षी विशेषज्ञों का आकलन है कि इससे पक्षियों का यह बसेरा उजड़ जाएगा. छबरा गांव में दिख रहे गिद्धों की अच्छी-खासी संख्या भी इस क्षेत्र की जैव विविधता को सिद्ध करती है. कोका कोला विवाद के कारण सरकार की निकाय चुनावों से पहले फजीहत तो हुई ही, लेकिन दूसरी ओर छबरा गांव द्वारा सालों से किए जा रहे क्रांतिकारी कार्यों पर भी सबकी नजर पड़ी. गांववालों को आशंका है कि कोका कोला के कारण कहीं वे 40 साल पहले की पेयजल की किल्लत की स्थिति में न पहुंच जाएं जिससे उबरने के लिए उनके बुजुर्गों ने 40 साल तक तपस्या की है. यानी एक तरफ अदूरदर्शी तरीके से जमीन को बेचने का फैसला करने वाली राज्य सरकार है और दूसरी तरफ उसे मां की तरह पालने और बचाने के लिए संघर्ष करने वाले लोग. अब सवाल यह है कि उनके संघर्ष की परिणति क्या होगी.