अहंकार, अपमान और अज्ञान की पीठ!

तहलका ने कुछ समय पहले एक आवरण कथा की थी. शीर्षक था साहित्य के सामंत (31 अगस्त 2011, https://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/947.html). यह बताती है कि हिंदी साहित्य से जुड़े कुछ संस्थानों और उनसे जुड़े लेखकों-आलोचकों-प्रकाशकों की इच्छा के बिना अदब की इस दुनिया का एक पत्ता तक हिलना मुश्किल है और कैसे हिंदी साहित्य की एक बड़ी दुनिया ने इसे अपनी नियति मानकर इससे समझौता कर लिया है.

लेकिन साहित्य की इस तिकड़मी और समझौतावादी दुनिया के पिछले दो हफ्ते बेहद हलचल भरे रहे. यह सब तब शुरू हुआ, जब युवा लेखक गौरव सोलंकी ने भारतीय ज्ञानपीठ को एक पत्र लिखकर प्रतिष्ठित नवलेखन पुरस्कार ठुकरा दिया और अपनी दो किताबों, ‘सौ साल फिदा’ और ‘सूरज कितना कम’ के प्रकाशन-अधिकार ज्ञानपीठ से वापस ले लिए. अपने पत्र में गौरव ने ऐसा करने की दो मुख्य वजहें बताईं. पहली, वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा अनुशंसित उनके कहानी संग्रह को ज्ञानपीठ के पदाधिकारियों द्वारा ‘अश्लील’ बताकर छापने से मना करना और दूसरा, इस पर सवाल-जवाब करने पर ज्ञानपीठ के ट्रस्टी और उच्चाधिकारियों द्वारा उन्हें अपमानित करना.
भारतीय ज्ञानपीठ को लिखे गौरव सोलंकी के कई पत्रों (पुरस्कार ठुकराने से पहले भी गौरव ने ज्ञानपीठ को कई पत्र लिखे थे) और उसके बाद से लगातार सामने आ रही जानकारियों से बेहद प्रतिष्ठित माने जाने वाले इस संस्थान के भीतर चल रही राजनीति की जो परतें खुलती हैं वे चौंका देने वाली हैं. प्रसिद्ध कथाकार उदय प्रकाश कहते हैं, ‘गौरव सोलंकी ने तो आवाज उठाई, उनकी सोचिए जो चुप रहे और हाशिये के भी बाहर धकेल दिये गए.’

‘अगर ज्ञानपीठ ज्यूरी के फैसलों को उलट रहा है तो मैं आगे से उसमें शामिल नहीं होऊंगा’ – नामवर सिंह, वरिष्ठ आलोचक

भारतीय ज्ञानपीठ तो पिछले कुछ वर्षों में इतने आरोपों और विवादों से घिरा रहा है कि हिन्दी के एक वरिष्ठ कहानीकार कहते हैं, ‘ये सुधरने वाले नहीं हैं.’ हताशा से भरे इस बयान पर सीधे विश्वास कर पाना मुश्किल है, इसलिए हमने हिंदी के वरिष्ठ और युवा सहित अनेक साहित्यकारों से बात की. इससे जो कहानी बनी, उसका अंत हिन्दी की किसी भी मार्मिक कहानी से ज्यादा मार्मिक था. लेकिन उस अंत से पहले कहानी की शुरुआत जानते हैं.

भारतीय ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा को पहला बड़ा धक्का तब लगा, जब मई, 2007 में ‘नया ज्ञानोदय’ (भारतीय  ज्ञानपीठ की मासिक साहित्यिक पत्रिका) में अजीबोगरीब शैली में लेखक-लेखिकाओं के  परिचय छपे. इससे लेखक समुदाय बौखला गया और उसने ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी साहू अखिलेश जैन को पत्र लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया. उस समय लेखकों ने बड़े पैमाने पर पत्र-पत्रिकाओं में इसके खिलाफ लेख लिखे और ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया को बर्खास्त करने की भी मांग की. लेकिन उनकी आवाज नहीं सुनी गई. यह रवीन्द्र कालिया के भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक और ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक के रूप में शुरुआती दिन थे.

दूसरा बड़ा हंगामा तब हुआ, जब ‘नया ज्ञानोदय’ के अगस्त, 2010 के अंक में छपे साक्षात्कार में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने लेखिकाओं को ‘छिनाल’ कहा और अपने संपादकीय में रवीन्द्र कालिया ने इस साक्षात्कार को ‘बेबाक’ बताया. इसके बाद फिर से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक विरोध में सड़कों पर उतर आए. लेकिन तब भी उनकी आवाज नहीं सुनी गई.

तीसरा बड़ा विरोध गौरव सोलंकी के पुरस्कार लौटाने के लिए लिखे पत्र के बाद शुरू हुआ है. युवा लेखकों द्वारा फेसबुक पर ‘ज्ञानपीठ के भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत’ नामक एक पेज भी बनाया गया है. ‘छिनाल प्रकरण’ में लेखकों की आवाज नहीं सुने जाने के विरोध में ज्ञानपीठ से अपनी पुस्तक ‘जानकी पुल’ वापस ले चुके लेखक प्रभात रंजन कहते हैं, ‘गौरव के प्रकरण ने भारतीय ज्ञानपीठ के पतन की एक झांकी दिखाई है, कि किस तरह भारतीय ज्ञानपीठ अपने कालिया-काल में साहित्य के एक बड़े प्रहसन में बदलता जा रहा है.’

अश्लीलता के आवरण और सरकारी पैसे का दुरुपयोग 

गौरव सोलंकी के पुरस्कार ठुकराने और अपनी पुस्तकें वापस लेने के बाद भारतीय ज्ञानपीठ ने उन्हें एक पत्र भेजा है, जिसमें कहा गया है कि लेखक शैलेन्द्र शैल से पुनर्मूल्यांकन करवाने के बाद गौरव की कहानियों में कुछ ऐसे तत्व पाए गए जिनसे ‘हिंदी के पाठकों के संस्कार आहत हो सकते हैं.’ यह पहला मामला नहीं है, जब वरिष्ठ साहित्यकारों की ज्यूरी के निर्णय से ज्ञानपीठ ने छेड़छाड़ की है. ज्ञानपीठ से जुड़े लेखक बताते हैं कि पहले भी कई बार उनकी पुस्तकों के अंश ‘अश्लीलता’ का हवाला देकर काटे जा चुके हैं.  नवलेखन-पुरस्कार विजेता युवा कथाकार विमलचन्द्र पांडेय कहते हैं कि कुछ साल पहले उन्हें भी अपने पहले कहानी संग्रह ‘डर’ के कुछ हिस्से इसी दबाव में काटने पड़े थे. कवि हरिओम राजोरिया की पुस्तक के साथ भी यही हो चुका है. वे कहते हैं कि ज्ञानपीठ की गड़बड़ियों को लेकर लेखकों और उनके संगठनों को भी सामने आना चाहिए.

‘ये अदबी दहशतगर्द इतने ताकतवर और चिकने घड़े हैं कि नए लोग इनके खिलाफ आवाज उठाने से डरते हैं’ – मुनव्वर राणा, शायर

अश्लीलता के ये आरोप तब हैं, जब नवलेखन पुरस्कार के निर्णायक मंडल के अध्यक्ष नामवर सिंह, गौरव सोलंकी की कहानियों के बारे में कहते हैं, ‘हमें उसकी रचनाएं अच्छी लगीं और हमने उसके पक्ष में निर्णय लिया.’ ज्ञानपीठ द्वारा अश्लील बताई जा रही कहानी पर उदय प्रकाश कहते हैं, ‘गौरव की यह कहानी हमारी नयी आर्थिक-सामाजिक नीतियों और नए तरह की सामाजिक बनावटों की बहुत रोचक, अपारंपरिक और पठनीय कहानी है. वह हमारे नए यथार्थ को पूरी कलात्मकता के साथ न सिर्फ व्यक्त करती है बल्कि उसे भरपूर युवा नैतिक साहस से आईना दिखाती है, यह बताने के लिए, कि यह चेहरा कितना विद्रूप है. ऐसी कहानियां किसी चालू (प्रचलित) सोच के लेखक-आलोचक के द्वारा आसानी से स्वीकृत नहीं होतीं.’

ज्यूरी के एक और सदस्य तथा प्रसिद्ध कथाकार अखिलेश भी गौरव को ‘प्रतिभाशाली कथाकार’ मानते हैं. वरिष्ठ कवयित्री अनामिका, जिन्होंने बहुत-से और लेखकों की तरह ‘छिनाल प्रकरण’ के बाद से ही अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, वर्धा से निकलने वाली पत्रिका ‘बहुवचन’ और भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ में अपनी रचनाएं भेजनी बंद कर दी, कहती हैं, ‘गौरव के साथ यह गलत हुआ है. इस तरह की घटनाओं को अंजाम देना एक किस्म की कुंठा है. भारतीय ज्ञानपीठ में बैठे पदाधिकारियों की यह कुंठा बार-बार प्रकट हुई है. ये बूढ़े सुग्गे हैं. मैं नौजवान और तेजस्वी किस्म के लेखकों की ओर बहुत उम्मीद से देखती हूं. इस कीचड़ में छपाछप करने से बेहतर है कि मैं एक सुंदर भविष्य की उम्मीद करूं.’ साथ ही ‘स्त्रीकाल’ नामक पत्रिका के संपादक संजीव चंदन भारतीय ज्ञानपीठ के अश्लीलता के मानदंडों पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं, ‘क्या नया ज्ञानोदय में लेखिकाओं को छिनाल कहलवाना अश्लील नहीं है? पत्रिका में महिलाओं के परिचय में उनके शरीर सौष्ठव के बारे में लिखना अश्लील नहीं है?’

नया ज्ञानोदय के जिस अंक की बात संजीव कर रहे हैं और जिसका जिक्र हम पहले कर चुके हैं, उसमें लेखक-लेखिकाओं के परिचय कुछ इस तरह से छापे गए थे –‘दुबली-पतली और सुंदर कथाकार/अविवाहित कथाकार,  हर मंगलवार को मंदिर और शनिवार को हंस का कार्यालय/ करीब आधा दर्जन प्रेम और इतनी ही कहानियां.’ ‘नया ज्ञानोदय’ के इस अंक के संपादन सहयोगी कुणाल सिंह थे. वे आज भी वहां सहायक संपादक हैं. ज्ञानपीठ से जुड़े एक युवा कहानीकार का कहना है कि इन परिचयों के लेखक कुणाल सिंह ही थे. ‘नया ज्ञानोदय’ के स्तर पर वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने तब कहा था, ‘रवींद्र कालिया मेरे अग्रज रचनाकार हैं, लेकिन उन्होंने यह कहने को बाध्य कर दिया है. लुंपनिज्म और सेंसेशनेलिज्म को साहित्यिक पत्रकारिता का एक मूल्य बना देने से आनेवाले समय में किसी गंभीर विचार विमर्श के लिए कोई गुंजाइश नहीं होगी. सिर्फ सनसनियां, आक्रामकता होगी, उचक्कापन होगा, उजड्डता होगी. और संपादक जैसा चाहेगा, वैसा होगा.’

अगस्त, 2010 में ‘नया ज्ञानोदय’ में छपे वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति वीएन राय के साक्षात्कार के बारे में विस्तार से बात करें तो उसमें राय ने कहा था, ‘लेखिकाओं में होड़ लगी है, यह साबित करने की कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है.’ उन्होंने लेखिकाओं के लिए ‘निम्फोमेनियेक कुतिया’ जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल किया था. तब भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यालय से लेकर शास्त्री भवन, दिल्ली तक लेखक और पत्रकार सड़क पर उतरे थे. उस समय साहित्यकारों ने राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल से भी मुलाकात की थी और वीएन राय और रवीन्द्र कालिया को उनके पदों से हटाने की मांग की थी. वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण बलदेव वैद्य, गिरिराज किशोर और प्रभात रंजन ने तब विरोधस्वरूप अपनी किताबें ज्ञानपीठ से वापस ले ली थीं. वर्धा के एक न्यायालय ने कालिया, राय आदि को महिलाओं के अपमान के लिए नोटिस भी जारी किया था.

‘किताब छपने के लिए डेढ़-दो साल ज्यादा समय नहीं होता. ये लड़के हैं इन्हें कुछ नहीं पता’ – रवीन्द्र कालिया, निदेशक भारतीय ज्ञानपीठ

जब यह सब चल रहा था उस समय राय भारतीय ज्ञानपीठ की एक चयन समिति, जो प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए कृतियों का चयन करती है,  के सदस्य भी थे. लेखकों के भारी विरोध की वजह से भारतीय ज्ञानपीठ ने राय को अपनी चयन समिति से बाहर का रास्ता तो दिखाया, लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं हुआ. जानकार बताते हैं कि यह एक-दूसरे की पीठ खुजाने जैसा मामला था. आरटीआई कार्यकर्ता पीके शाही के मुताबिक कुलपति राय ने हिंदी विश्वविद्यालय के कार्यालय के लिए दिल्ली में ज्ञानपीठ के एक ट्रस्टी का मकान डेढ़ लाख रुपये प्रति महीना के महंगे किराये पर लिया था. बाद में ज्ञानपीठ से बाहर किए जाने पर राय ने कार्यालय किसी दूसरी जगह पर मात्र 40,000 रुपये महीने के किराये पर ले लिया. उधर ज्ञानपीठ ने राय को अपनी चयन समिति का सदस्य बना दिया था. कुलपति बनने के बाद राय ने रवींद्र कालिया की पत्नी को विश्वविद्यालय की अंग्रेजी पत्रिका ‘हिंदी’ का संपादक बना दिया था. इसके एवज में रवींद्र कालिया ने राय का साक्षात्कार छापा और इस मामले में बचाव भी किया.

संजीव चंदन एक-दूसरे को लाभान्वित करने के इस खेल का आधार वीएन राय और रवीन्द्र कालिया की पुराने दिनों की दोस्ती को बताते हैं. संजीव इस व्यक्तिगत विडंबना की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘राय-कालिया की इस दोस्ती का जिक्र ममता कालिया की पुस्तक ‘कितने शहरों में कितनी बार’ में भी है. नया ज्ञानोदय के विवादास्पद साक्षात्कार में इसकी पैरोडी पेश करते हुए राय एक प्रतिष्ठित लेखिका की आत्मकथा का शीर्षक ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ रखने की नसीहत देते हैं.’

ज्ञान का अपमान और ‘मैं जीवन भर तुमसे बदला लूंगा’

लेखकों और लेखिकाओं के पत्रिका द्वारा किए गए सामूहिक अपमानों के बीच में ज्ञानपीठ के पदाधिकारियों द्वारा अपने पद का फायदा उठाकर किए गए अनगिनत व्यक्तिगत अपमान भी हैं, जिनमें से ज्यादातर कभी सामने नहीं आते. गौरव सोलंकी भी अपने पत्र में ज्ञानपीठ के ट्रस्टी आलोक जैन द्वारा किए गए अपमान और दी गई धमकियों का जिक्र करते हैं. इसी सिलसिले में जब जनसत्ता के संवाददाता राकेश तिवारी ने आलोक जैन को उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए फोन किया तो उन्होंने गौरव सोलंकी के लिए कई बार ‘साले’ शब्द का प्रयोग किया. जनसत्ता के संपादक ओम थानवी के मुताबिक आलोक जैन इससे पहले भी वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राजकिशोर के एक लेख पर कुपित होकर उन्हें गोली मार देने की धमकी दे चुके हैं. तहलका ने जब गौरव प्रकरण के मसले पर आलोक जैन को फोन किया तब कुछ पूछने से पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि ‘इस मामले से मेरा कोई लेना-देना नहीं है और इस बारे में ज्ञानपीठ के अधिकारियों से बात कीजिए.’ युवा कहानीकार श्रीकांत दुबे, जिनका कहानी-संग्रह ‘पूर्वज’ कुछ महीने पहले ही ज्ञानपीठ से छपा है, वे भी ज्ञानपीठ के ‘अतार्किक, ढीले-ढाले और गैरजिम्मेदाराना रवैये’ की बात करते हैं और कहते हैं, ‘जब अपने इस अनुभव को मैंने फेसबुक पर लिखा, तो अनेक तरीकों से मुझे भी चेताया गया कि मैं गलती कर रहा हूं.’ कई लेखक अपने अनुभव बताते हैं कि कैसे उनकी रचनाओं को महीनों-सालों तक ज्ञानपीठ ने लटकाए रखा और जब उन्होंने अपनी रचनाओं की स्थिति जानने की कोशिश की तो या तो बात ही नहीं की गई या बुरी तरह अपमानित किया गया. इन उदाहरणों को देखा जाए तो पदों का यह अहंकार ज्ञानपीठ के हर स्तर पर मौजूद दिखता है.

हिंदी के कई लेखक ‘नया ज्ञानोदय’ के सहायक संपादक कुणाल सिंह के हाथों भी अपमानित हो चुके हैं. लेकिन वे ऐसे व्यवहार और उसकी लगातार शिकायतों के बाद भी वहां कैसे बने रहे? यह पूछने पर ‘छिनाल प्रकरण’ पर भारतीय ज्ञानपीठ के खिलाफ चले अभियान की अगुवाई करने वाले एक लेखक कहते हैं, ‘रवींद्र कालिया ने अपने फेसबुक अकाउंट में ‘गतिविधियां और रुचि’ वाले विकल्प के आगे सिर्फ कुणाल सिंह का नाम लिखा है. इसी से आप कालिया जी के कुणाल के प्रति व्यक्तिगत स्नेह का अनुमान लगा सकते हैं.’

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता से जुड़े कई कर्मचारी बताते हैं कि कुणाल वहां के पूर्व निदेशक और वरिष्ठ आलोचक विजय बहादुर सिंह के साथ भी बेहद अपमानजनक व्यवहार कर चुके हैं. उसके बाद भाषा परिषद की सचिव कुसुम खेमानी ने एक भी साहित्यकार की अनुशंसा के बिना कुणाल को भारतीय भाषा परिषद का युवा पुरस्कार दिया. कर्मचारी बताते हैं कि विजय बहादुर सिंह इस समेत संस्था की कई अनीतियों का विरोध कर रहे थे और इस कारण उन्हें अनुबंध की अवधि पूरी होने से पहले ही पद छोड़ना पड़ा.
कथाकार दुष्यंत भी रवीन्द्र कालिया को लिखा एक पत्र दिखाते हैं जिसमें उन्होंने लिखा है कि अपनी कहानी की स्थिति पूछने पर ही कुणाल ने उनसे अपमानजनक व्यवहार किया. एक युवा लेखिका ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर तहलका को बताया कि कैसे ‘नया ज्ञानोदय’ में उनकी कहानी छापने की बार-बार घोषणा करने के बावजूद भी कई महीनों तक उनकी कहानी प्रकाशित नहीं की गई. इसकी वजह थी कि इस बीच पत्रिका के सहायक संपादक कुणाल सिंह ने एक दिन फोन करके उनसे ‘प्रेम निवेदन’ किया और इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर चौंकी लेखिका ने तुरंत इनकार कर दिया. इसके बाद कुणाल ने उनसे कहा, ‘मैं जीवन भर तुमसे बदला लूंगा.’ तात्कालिक रूप से यह बदला कहानी न छापने तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि जब महीनों बाद लेखिका ने पत्र लिखकर अपनी कहानी वापस ले ली और बाद में वह दूसरी पत्रिका में छपने ही वाली थी, तब बिना उनकी अनुमति के ‘नया ज्ञानोदय’ में वह कहानी छाप दी गई.

जो भी हो, ‘ज्ञानपीठ’ द्वारा ’बदला लेने’ का यह सिलसिला न यहां शुरू हुआ, न खत्म. केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की साहित्यिक पत्रिका ‘गवेषणा’ के सहायक संपादक प्रकाश भी एक चौंका देने वाला अनुभव बताते हैं. प्रकाश ने ज्ञानपीठ के प्रबंध न्यासी साहू अखिलेश जैन को 30 जनवरी, 2009 को एक पत्र लिखकर कुणाल सिंह द्वारा की गई बदसलूकी की शिकायत की थी. प्रकाश ने इस पत्र की प्रति भारतीय ज्ञानपीठ के अन्य न्यासियों और निदेशक रवीन्द्र कालिया को भी भिजवाई थी.  पत्र में वे कहते हैं, ‘तुम हिंदी के दो कौड़ी के लेखकों में हो, और तुम्हारी किताब भी फाड़कर मैं डस्टबिन में डाल दूंगा.’ हालांकि कुणाल सिंह इन आरोपों का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘मैं नया ज्ञानोदय में एक अन्य कर्मचारी की तरह हूं. किस हैसियत से मैं ऐसा करूंगा. अगर मैंने किसी को अपमानित किया तो वे आज तक कहां थे?’ ‘अंबेडकर संचयन’ के संपादक रामजी यादव और कहानीकार प्रभात रंजन से इतर ज्ञानपीठ में काम कर चुके या छप चुके कई लेखक कुणाल के अहंकार भरे रवैये के बारे में बात करते हैं.

एक और बड़े बदले की कहानी महेन्द्र राजा जैन की है, लेकिन उनके मुताबिक उनसे बदला लिया निदेशक रवीन्द्र कालिया ने. महेन्द्र राजा जैन को भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से तत्कालीन निदेशक प्रभाकर श्रोत्रिय ने 2005 में जैनेन्द्र रचनावली का इंडेक्स तैयार करने का कार्यभार दिया था. गौरतलब है कि बाद में श्रोत्रिय की जगह रवीन्द्र कालिया ने ले ली. लगभग पूरे हो चुके इस काम को बीच में ही कालिया ने बंद करा दिया. बहुत खतो-किताबत करने और अंततः ज्ञानपीठ को कानूनी नोटिस भिजवाने के बाद राजा जैन को इस काम का आधा-अधूरा पारिश्रमिक ही मिल सका.

राजा जैन के साथ भारतीय ज्ञानपीठ का दूसरा प्रसंग तो और भी बुरा रहा है. प्रकाशन के लिए वर्ष 2004 में ही स्वीकृत ‘विराम चिह्न : क्यों और कैसे’ की पांडुलिपि लगभग छह साल बाद उन्हें वापस लौटा दी गई. इस किताब के बारे में महेंद्र राजा जैन को 2 जून, 2008 को लिखे गए एक पत्र में रवींद्र कालिया लिखते हैं, ‘ज्ञानपीठ से अब तक कोई व्याकरण की पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है. प्रयोग के तौर पर प्रथम संस्करण की 300 प्रतियां प्रकाशित करेंगे. अगर पुस्तक बाजार में चल निकली तो उसका अगला संस्करण प्रकाशित किया जा सकता है.’ इस सीधी और अच्छी लगने वाली बात के बाद तीखा मोड़ लेकर यह कहानी एक साथ कई लेखकों की साझी कहानी हो जाती है.

अपनी किताब के प्रकाशन को लेकर जैन ने भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियों को कुछ महीनों के दौरान कई पत्र लिखे. लेकिन उनके पत्रों का या तो जवाब नहीं दिए गए या फिर उन्हें गोलमोल जवाब दिए गए. यही सब गौरव के साथ हुआ. उनके मुताबिक, वे भी अपनी किताब वापस लेने का आखिरी पत्र लिखने से पहले रवीन्द्र कालिया और आलोक जैन को लगातार खत लिखते रहे थे, जिनके जवाब नहीं दिए गए.

खैर, राजा जैन के मामले में लगभग चार महीने बाद 9 मई, 2009 को रवींद्र कालिया ने उनसे मिलकर ‘विराम चिह्न  क्यों और कैसे’ की पांडुलिपि लौटा दी. जैन अपने साथ हुए इस दुर्व्यवहार की वजह कुछ इस तरह बताते हैं, ‘रवींद्र कालिया जब भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ के संपादक थे तब उन्होंने लिखा था कि ‘इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की किसी साहित्यिक कृति का उल्लेख नहीं है. भारतीय भाषा परिषद ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की इस अनदेखी के प्रति एक आंदोलन शुरू किया है.’ मैंने इस गलती की ओर पत्र लिखकर उनका ध्यान दिलाया कि इनसाइक्लोपीडिया में लगभग 150 पन्नों में भारतीय भाषाओं के बारे में छपा हुआ है. लेकिन कालिया जी ने वागर्थ के अगले अंक में फिर से वही सब दोबारा लिख डाला. तब मैंने पाठकों को सही जानकारी देने के लिए ‘समयांतर’ में  लेख लिखा. कालिया जी ने इसे गांठ बांध लिया और उसका बदला मुझसे ज्ञानपीठ में आकर निकाला.’ राजा जैन से जुड़े मसले पर तहलका ने रवींद्र कालिया का पक्ष जानने की कोशिश की लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई. गौरव सोलंकी ने भी तहलका में साहित्य के सामंत वाली कवर स्टोरी में मठाधीशी और गुटबाजी के खिलाफ एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘बल्ब बड़ा या सूरज’. इस कवर स्टोरी में रवींद्र कालिया को भी साहित्य के एक सत्ताकेंद्र के रूप में दिखाया गया था.

तो क्या इस लेख का छपना ही गौरव के साथ जो कुछ हुआ उसकी वजह है. ‘यह लेख भी एक वजह हो सकती है क्योंकि आलोक जैन और रवीन्द्र कालिया ने कहा भी कि मेरे एटीट्यूड और बेबाकी से उन्हें प्रॉब्लम है. वह लेख अगस्त, 2011 में छपा था. उन्होंने मेरे साथ सब उसके बाद ही किया. मैं तो खुद महीनों से असल वजह जानना चाहता हूं.’ गौरव कहते हैं.

ये घटनाएं भले ही प्रकाश, महेन्द्र राजा जैन, गौरव सोलंकी और कई दूसरे लेखकों के साथ घटी हों, लेकिन हिन्दी साहित्य की एक परेशान करने वाली तस्वीर तो बना ही जाती हैं. शायद इसीलिए वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा कहती हैं, ‘ज्ञानपीठ के व्यवसाय में भले ही इजाफा हुआ होगा, लेकिन सच तो यह है कि भारतीय ज्ञानपीठ ने अपना गौरव  खोया है, उसके मूल्यों में गिरावट आई है.’
गौरव सोलंकी पर भी पहले रवींद्र कालिया का साथ देने और अब व्यक्तिगत मनमुटाव के चलते पुरस्कार लौटाने के आरोप लग रहे हैं. इसके जवाब में गौरव कहते हैं, ‘अगर किसी पत्रिका में कुछ कहानियां छपना दोस्ती है तो इस देश की दर्जन भर पत्रिकाएं और अखबार मेरे दोस्त हैं. मेरा इससे पहले का अनुभव ठीक ही था.  आप इसे व्यक्तिगत कैसे कह सकते हैं? गांधी जी से किसी भी कीमत पर अपनी तुलना नहीं कर रहा हूं लेकिन उन्हें जब काला कहकर अंग्रेजों ने ट्रेन से फेंका तभी उनकी लड़ाई शुरू हुई.’

यह पूछने पर कि अब वे चाहते क्या हैं, गौरव आगे कहते हैं, ‘मैं कुछ नहीं चाहता, न कोई ईनाम, न किताब छपवाना, न ये कि वे मुझसे माफी मांगें. बस ये हो कि हिंदी के लेखक ऐसे भ्रष्ट और पूर्वाग्रही सिस्टम से आजाद हों किसी तरह. ये संस्थाएं शायद अपना चरित्र न बदलें लेकिन हमें इनका बहिष्कार करना होगा. और कोई भले ही न करे, लेकिन मैंने तय किया है कि जितना बन पड़ेगा, नया रास्ता खोजूंगा। भले ही सब लिखा हुआ हमेशा के लिए मुझे अपने कमरे में रखना पड़े.’

गौरव सोलंकी प्रकरण का हिंदी साहित्य की दशा पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन युवा कवि और साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ के संपादक गिरिराज किराड़ू का यह निष्कर्ष ज्यादा उम्मीद नहीं जगाता- ‘गौरव प्रकरण ने ज्ञानपीठ  को ही नहीं, हम युवा हिंदी लेखकों को भी एक्सपोज कर दिया है. सचमुच, जॉर्ज बुश से ज्यादा मुश्किल है, अपने बॉस का विरोध करना.’