मई, 1995 की एक दोपहर को सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु ठक्कर अपने वकीलों प्रशांत और शांति भूषण के साथ सर्वोच्च न्यायालय में बैठे हुए थे. उनसे जरा-सी दूरी पर मुख्य न्यायाधीश एएस आनंद एक ऐसा फैसला सुना रहे थे जो पूर्वी गुजरात के कम से कम पचास हजार लोगों की जिंदगी से जुड़ा हुआ था. यह फैसला 25 हजार करोड़ की लागत से नर्मदा नदी पर बनने वाले बांध को लेकर दसियों सालों से चल रहे आंदोलन को भी एक नयी दिशा देने वाला था. फैसला यह था कि सरदार सरोवर बांध के निर्माण को तब तक रोक दिया जाए जब तक इससे प्रभावित और विस्थापित हर व्यक्ति का पुनर्वास न हो जाए. यह नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) को मिली पहली कानूनी जीत थी.
लेकिन ठक्कर इस फैसले से ज्यादा खुश नहीं थे. ‘यह सीधा स्टे ऑर्डर नहीं है’, उनकी शिकायत थी’ और अदालत ने बांध पर तीन मीटर की दीवार बनाने की भी इजाजत दे दी है.’ यह सुनकर शांति भूषण की मुस्कान गायब हो गई. वे बोले, ‘हमें इतनी बड़ी जीत मिली है और तुम खुश नहीं हो. तुम कार्यकर्ता लोग कभी खुश नहीं हो सकते.’ यह किस्सा सुनाते हुए ठक्कर बताते हैं कि उनके मन में तब आगे की लंबी लड़ाई के विचार आ-जा रहे थे. उनकी चिंता गलत नहीं थी क्योंकि शीर्ष अदालत के इस आदेश का पालन उस साल के अंत में तब जाकर हुआ जब एनबीए के कार्यकर्ताओं ने नर्मदा नदी के आसपास के इलाकों से दिल्ली की ओर कूच कर दिया. ‘इससे उस कानूनी जीत का महत्व जरा भी कम नहीं होता है’, ठक्कर कहते हैं.
प्रशांत भूषण का रिकॉर्ड देखें तो पता चलता है कि उनकी वजह से पिछले एक दशक के दौरान मीडिया को कई बड़ी खबरें मिली हैं
तब से लेकर अब तक 55 वर्षीय प्रशांत भूषण दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में नागरिक अधिकारों से जुड़े 500 से ज्यादा केस लड़ चुके हैं. उनके पिता और पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण हालांकि मूलतः व्यावसायिक मामलों के धुरंधर वकील हैं लेकिन वे भी समय-समय पर भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग के जनहित से जुड़े मुद्दों की लड़ाई लड़ते रहे हैं. अगर थोड़ा कम करके कहा जाए तो देश भर में चल रहे सैकड़ों आंदोलनों को जब भी अन्याय या सरकार की अनदेखी के खिलाफ कानूनी मदद की जरूरत पड़ी तो पिता-पुत्र की यह जोड़ी हमेशा उनकी मदद के लिए मौजूद रही. यदि थोड़ा उदारतापूर्वक कहा जाए तो न्यायिक सक्रियता वाले आज के दौर में ये दोनों शख्सियतें राज्य और केंद्र की राजनीति पर इतना प्रभाव डालने लगी हैं जितना अब तक कोई भी गैरराजनीतिक व्यक्ति नहीं डाल सका है.
इस रास्ते पर चलते हुए उनके कई दुश्मन भी बने. मगर इसी राह ने उन्हें ऐसे कई दोस्तों का समूह भी दिया जो उनके विश्वासों और उनकी लड़ाइयों में यकीन रखते हैं. इस छोटे-से समूह को आप सिविल सोसायटी, दिल्ली का बौद्धिक कुलीन समाज या फिर अन्याय के खिलाफ सामूहिक रूप से लड़ने वाला एक व्यवस्था विरोधी बल भी कह सकते हैं. इस समूह की कोशिश होती है कि सरकार जो नीतियां बनाए उसके केंद्र में मुख्य रूप से देश के आम लोग हों. कार्यकर्ता और वकील दोनों भूमिकाओं में खड़ी भूषण जोड़ी इस समूह का एक अभिन्न हिस्सा है.
पिछले कुछ हफ्तों से शांति और प्रशांत भूषण एक ऐसे असंतोष से जूझ रहे हैं जो कुछ-कुछ 16 साल पहले नर्मदा पर हुए फैसले वाली उस घटना की याद दिलाता है. उन पर हमला उनके दुश्मनों की तरफ से ही नहीं हो रहा बल्कि उनकी राह के साथी भी उन पर सवाल उठा रहे हैं. भ्रष्टाचार को काबू करने के मकसद से बनने वाले लोकपाल विधेयक का प्रारूप तय करने के लिए बनी संयुक्त समिति का सदस्य बनने के बाद से ही पिता-पुत्र की इस जोड़ी पर कई तरह के आरोप लग रहे हैं. कोई उन्हें सत्ता का भूखा बता रहा है तो कोई भ्रष्ट और कोई घमंडी. नोएडा स्थित अपने ऑफिस में बैठे प्रशांत भूषण कहते हैं, ‘कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी ऐंड रिफॉर्म से पहले मेरी किसी भी अभियान में इतनी अहम भागीदारी नहीं रही.’ उनके मुताबिक उन्हें यकीन था कि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने के लिए लोकपाल निश्चित रूप से एक कारगर हथियार होगा और इसलिए उन्होंने इस अभियान में खुद ही एक सक्रिय भूमिका निभाने की जिम्मेदारी ली. कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े के साथ मिलकर प्रशांत ने इस विधेयक का सिविल सोसायटी संस्करण तैयार किया जिसकी एक तबके द्वारा यह कहकर आलोचना की जा रही है कि इसमें जरूरत से ज्यादा ही शक्ति का केंद्रीकरण हो रहा है और यह लोकतंत्रविरोधी है.
पूंजीवादी मॉडल में यकीन रखने वाले शांति इस व्यवस्था को काफी आदर्श मानते हैं
भूषण परिवार के एक सदस्य बताते हैं कि पहले-पहल प्रशांत विधेयक का प्रारूप तैयार करने वाली समिति में शामिल नहीं होना चाहते थे. उनका मानना था कि इससे ऐसा लगेगा कि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधित्व का 40 फीसदी हिस्सा तो पिता-पुत्र ने ही घेर लिया है, बल्कि उनका परिवार तो छुट्टियां मनाने अलास्का जाने की तैयारी में था जिसकी योजना आखिरी वक्त में टालनी पड़ी.
प्रशांत अब तक कई महत्वपूर्ण मुकदमे लड़ चुके हैं. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, नीरा राडिया टेप, बिनायक सेन राष्ट्रदोह मामला, एनरॉन, अरुंधति राय द्वारा अदालत की अवमानना, सूचना का अधिकार याचिका, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में भ्रष्टाचार, पन्ना मुक्ता ऑयलफील्ड और जजों द्वारा अपनी संपत्ति की घोषणा की मांग इनमें शामिल हैं. उनके इस रिकॉर्ड पर नजर डालें तो पता चलता है कि उनकी वजह से पिछले एक दशक के दौरान मीडिया को कई बड़ी खबरें मिली हैं. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों के दौरान वही मीडिया उनके खिलाफ खड़ा दिखा है.
पिछले ही पखवाड़े एक दिन करीब 60 पत्रकार दिल्ली के प्रेस क्लब के एक हॉल में जमा थे. इनमें से ज्यादातर बेमौसम में अचानक हुई बरसात से भीग गए थे. हॉल में हो रहे शोर और धक्का-मुक्की के बीच प्रशांत ने वहां प्रवेश किया. आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल भी उनके साथ थे. इससे एक दिन पहले ही लोकपाल समिति की पहली बैठक हुई थी. प्रशांत इसके सदस्य तथा उनके पिता इसके सहअध्यक्ष हैं. उन्होंने अपनी बात शुरू की, ‘आप सभी को पता है कि एक सीडी की कॉपियां बांटी जा रही हैं जिसमें कथित रूप से मेरे पिता, अमर सिंह और मुलायम सिंह के बीच हुई बातचीत है…’ यह सीडी अज्ञात सूत्रों द्वारा इंडियन एक्सप्रेस अखबार को दी गई थी. इसमें जो कथित बातचीत थी उसमें अमर सिंह फोन पर मुलायम सिंह यादव को बता रहे हैं कि शांति भूषण उनके साथ ही बैठे हैं और वे चार करोड़ रु में अपने बेटे प्रशांत से सुप्रीम कोर्ट के एक जज को मैनेज करवा सकते हैं. जिस जज की बात की गई थी वह उस खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहा था जिसने 2006 के अमर सिंह टेप मामले और 2जी लाइसेंसों को चुनौती देने वाले मामले पर अपना निर्णय सुरक्षित रखा है. इन दोनों ही मामलों में प्रशांत भूषण वकील हैं. जैसे ही सीडी की खबर मीडिया में आई, संदेहों और आरोपों का सिलसिला शुरू हो गया. शांति भूषण ने कहा कि वे आज तक अमर सिंह से कभी नहीं मिले हैं. प्रशांत ने आरोप लगाया कि लोकपाल कानून का प्रारूप तय करने की प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए सरकार की अगुआई में यह साजिश हो रही है. दो दिन में ही पिता-पुत्र की यह जोड़ी सवालों के घेरे में आ गई. धारणा तथ्यों पर भारी पड़ गई.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रशांत ने कहा कि सीडी फर्जी है और इसमें छेड़छाड़ की गई है. उन्होंने यह भी कहा कि भले ही सिंह और यादव की आवाज असली लगती है मगर बातचीत के टुकड़े 2006 वाले टेपों से उठाए गए हैं. प्रशांत के मुताबिक उनके दो बेटों ने सिंह और यादव की आवाज के नमूनों के लिए पूरी रात जागकर 2006 के वे टेप सुने और पाया कि 2011 की सीडी में भी वही लाइनें इस्तेमाल की गई हैं. यह कहते हुए उनके चेहरे पर सुकून दिख रहा था. उन्हें लग रहा था कि वे लड़ाई जीत गए. मगर ऐसा नहीं था. उनकी तरफ सवाल उछलने लगे. पहला सवाल तो यही था कि जो वे कह रहे हैं उस पर क्यों यकीन किया जाए.
‘क्योंकि मेरे पास फॉरिंसिक विशेषज्ञों की रिपोर्ट है’, प्रशांत का जवाब था. ‘लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि जिन लोगों को आपने पैसे दिए हों वे झूठ बोल रहे हों?’ ‘अगर कोई नेता खुद टेस्ट करवाता और दावा करता कि सीडी के साथ छेड़छाड़ की गई है तो क्या आप उसे बेगुनाही का ठोस सबूत मान लेते?’ ‘क्या आप अमर सिंह पर यकीन कर लेंगे? तो हम आप पर भरोसा कैसे कर लें?’
सवाल कई थे और प्रशांत बार-बार यही कह पाए कि उनके पास सबूत है. इसके बाद विषय बदल गया. कॉन्फ्रेंस खत्म होने के बाद जब वे हॉल से बाहर निकले तो उनके चेहरे पर परेशानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. अपनी बेदाग ईमानदारी को हथियार बनाकर पिछले 25 साल में सौम्य व्यवहार वाले इस वकील ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हमलावर अभियान चलाया था और प्रतिष्ठा अर्जित की थी, मीडिया ने उन्हें इसकी क्षणभंगुरता का क्रूर एहसास करवा दिया था.
नोएडा प्लॉट मामले की सच्चाई उन ब्योरों में है जिन पर गौर नहीं किया गया
अपने नोएडा स्थित घर में शांति भूषण सीडी विवाद की बात करने पर अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देते हैं. ठहाका लगाते हुए वे कहते हैं, ‘चलिए मान लेते हैं कि मैं अपने एक साथी एक्स के साथ हुई सारी बातचीत रिकॉर्ड कर लेता हूं. इसके बाद में मनमोहन सिंह के सारे भाषणों और साक्षात्कारों के रिकॉर्ड लेता हूं. इसके बाद मेरी सीडी कुछ ऐसी होगी.’
मनमोहन- आप क्या कर रहे हैं?
एक्स- मैं एक सुंदर लड़की के साथ नहा रहा हूं.
मनमोहन-बहुत अच्छा. मैं भी आ जाऊं क्या?
एक बार फिर जोर से हंसते हुए पूर्व कानून मंत्री भूषण कहते हैं, ‘कुछ भी बनाया जा सकता है. अब आप क्या यकीन करेंगे कि हमारे प्रधानमंत्री ऐसा कर सकते हैं?’ उनके चेहरे पर इस बात का रत्ती भर भी डर नहीं दिखता कि जिंदगी भर की प्रतिष्ठा एक रात में उड़ सकती है. हालांकि प्रशांत और शांति भूषण का नाम आम तौर पर एक साथ और एक इकाई की तरह ही लिया जाता है, लेकिन ये दोनों ही बिलकुल अलग-अलग तरह के व्यक्तित्व हैं. प्रशांत अपने पिता को खांटी पूंजीवादी कहते हैं जिन्हें बांध, खदानें और सेज जैसी चीजें पसंद हैं. उधर शांति भूषण कहते हैं कि उनके वामपंथी बेटे को सभी नेताओं से नफरत है जबकि वे मानते हैं कि इस सब के बाद भी कांग्रेस देश में मौजूद सबसे बेहतर पार्टी है. शांति भूषण का मानना है कि उचित और न्यायपूर्ण पुनर्वास व मुआवजे के साथ विकास परियोजनाओं के लिए जमीन ली जा सकती है भले ही ऐसा जमीन मालिक की सहमति के बिना करना पड़े. वे काफी उत्साहित हैं कि उन्होंने अपने बेटे की मर्जी के खिलाफ टाटा नैनो खरीदी और यह बताते हुए भी उनके चेहरे पर बहुत रोमांच झलकता है कि कोका कोला के खिलाफ केस लड़ने के बाद प्रशांत द्वारा इस पेय पर घर में प्रतिबंध लगाने के बावजूद उनके पोते कभी-कभी चुपचाप इसे लाते हैं और इसका मजा लेते हैं.
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे प्रशांत के बड़े बेटे मानव बताते हैं कि उनके दादा को अगर मुक्त बाजार व्यवस्था में इतना अधिक विश्वास है तो इसकी वजह यह है कि इससे स्वत: होने वाले लाभ को उन्होंने अपने घर में देखा है. बताया जाता है कि शांति भूषण ने अपने घर और दफ्तर में काम करने वाले कई कर्मचारियों को आठ से दस लाख रु के बीच ब्याजमुक्त कर्ज दिया है और उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा में मदद की है. उनका विश्वास है कि अगर आर्थिक समृद्धि का फायदा कम सक्षम तबके तक अपने आप पहुंचने की घटना उनके घर में हो सकती है तो पूरे देश में भी ऐसा हो सकता है. मानव कहते हैं, ‘मेरे पिता और दादा हर समय तीखी बहस करते रहते हैं. मुझे लगता है कि हमारे यहां डाइनिंग टेबल इसी काम के लिए बनी है.’ अपनी आत्मकथा में शांति लिखते हैं कि वे किस तरह से पूरे घर में पिता के पीछे-पीछे तब तक बहस करते हुए घूमते रहते थे जब तक वे बहस में जीत नहीं जाते थे. प्रशांत भी आज ठीक ऐसा ही करते हैं.
प्रशांत जहां जनहित याचिकाओं के विशेषज्ञ हैं वहीं उनके पिता ने अपने छह दशक लंबे करियर का ज्यादातर हिस्सा बड़ी-बड़ी कंपनियों की पैरोकारी करते हुए बिताया है. शांति भूषण के बारे में कहा जाता है कि वे हर बार अदालत में जाने के लिए दो से चार लाख रु के बीच फीस लेते हैं. हालांकि प्रशांत के तर्कों के बाद जब वे किसी मुद्दे से सहमत हो जाते हैं तो वे जनहित से जुड़े मामले भी लड़ते हैं. हालांकि यह बात भी है कि प्रशांत को अप्रत्यक्ष रूप से शांति भूषण जैसा पिता होने का फायदा भी मिलता है. वे भी इस बात को मानते हैं उन्हें बाकी दुनियावी चीजों के मोर्चे पर ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है. इस तरह से देखा जाए तो वित्तीय और सामाजिक सुरक्षा का फायदा उठाकर अपने काम को अपने से कम सक्षम लोगों के लिए केंद्रित करने का यह फैसला उनका अपना था.
लेकिन जनहित के लिए काम करने के इस फैसले का मतलब था ऐसे मामले हाथ में लेना जिनका मकसद व्यक्तिगत हित से आगे जाता हो. इस राह में सामाजिक कार्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में मौजूद उनके दोस्त हमेशा उनके काम आए. समय-समय पर उन्होंने अपने पिता की भी मदद ली. नर्मदा बचाओ आंदोलन वाला मामला इसका उदाहरण है. मेधा पाटकर याद करती हैं, ‘प्रशांत स्वाभाविक रूप से हमारे आंदोलन को समझते थे मगर शांति हमसे बिलकुल भी सहमत नहीं थे.’ लेकिन उनके नर्मदा घाटी आने के बाद स्थिति बदल गई. शांति भूषण ने पहले-पहले तो कार्यकर्ताओं को उनके लिए ठीक से इंतजाम न करने के लिए झाड़ पिलाई मगर कई आदिवासियों से मिलने के बाद उन्होंने पाटकर से कहा, ‘मैं अब तक दिमाग से काम कर रहा था. अब मैं दिल और दिमाग से करूंगा.’ आंदोलन के कार्यकर्ताओं के लिए यह एक उम्मीद जगाने वाला क्षण था.
प्रशांत के एक पुराने मित्र उनकी उस खासियत के बारे में बताते हैं जो अकसर प्रशांत की ताकत रही है मगर कभी-कभी कमजोरी भी. यह खासियत है अपनी सोच को लेकर बिलकुल निश्चित होना. वे हर नजरिये को सुन लेते हैं मगर अपने नजरिये से जरा भी दायें-बायें नहीं हटते. फिर भले ही ये अपने परिचितों को कोका कोला पीने से रोकने का मामला हो या फिर न्यायालय की अवमानना का जोखिम मोल लेते हुए आठ मुख्य न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए शपथपत्र दाखिल करने का. सिर्फ दो ही मोर्चे ऐसे हैं जहां पिता-पुत्र के बीच कोई टकराव नहीं होता. एक, जिसे परिवार पक्की बनिया कृपणता कहता है. शांति बड़े गर्व से वे कुरते पहनते हैं जो कभी फट गए थे और जिन्हें पहले उनकी पत्नी (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) सी दिया करती थीं. अब यह काम टेलर करता है. वे कहते हैं, ‘आदमी की दौलत कमाने से नहीं बल्कि बचाने से बनती है. अगर आपको अपनी आमदनी में से आधा बचाना हो तो आप अनुशासित हो जाते हैं.’ उधर, प्रशांत की मितव्ययिता का संबंध शायद उनकी विचारधारा से ज्यादा है क्योंकि उनके ही मुताबिक अगर आप बस में यात्रा करने का एहसास भूल जाते हैं तो आप उन लोगों को भी भूल जाते हैं जो अकसर बसों से ही यात्रा करते हैं.
पिता और पुत्र इस पर भी एकराय हैं कि जिस व्यवस्था के लिए वे काम करते हैं, यानी न्यायपालिका, वह लोकतंत्र का ऐसा स्तंभ है जिस पर जवाबदेही सबसे कम है. 1970 के दशक में शुरू किए गए अपने कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी ऐंड रिफॉर्म के जरिए उनका मकसद है कि जजों और मुख्य न्यायाधीशों के लिए भी नैतिकता और पारदर्शिता के वही नियम हों जो विधायिका और कार्यपालिका के लिए होते हैं. शांति भूषण तो आठ मुख्य न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार का खुलासा करते प्रशांत भूषण के शपथपत्रों का समर्थन करके लगभग जेल ही चले गए थे. बिना किसी डर के वे उन्हीं अदालतों में उन्हीं जजों के सामने पैरवी करने जाते हैं जिन पर वे सवाल उठा रहे होते हैं.
लेकिन इतनी उपलब्धियों के बावजूद उन्होंने शायद ही सोचा हो कि उनकी निष्ठा भी एक दिन सवालों के घेरे में होगी. प्रशांत और शांति भूषण को अपने दोस्तों से अब वैसा अंधसमर्थन नहीं मिल रहा जैसा पहले मिला करता था. अरुंधति राय कहती हैं, ‘लोकपाल विधेयक के लिए हुए हालिया आंदोलन को लेकर मेरे कुछ गंभीर एतराज हैं लेकिन प्रशांत की व्यक्तिगत ईमानदारी पर मुझे पूरा भरोसा है.’ सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी कहती हैं, ‘मैं उनसे इसलिए नाराज हूं कि उन्होंने बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर जैसी सांप्रदायिक हस्तियों को इस मंच पर आने दिया.’ मजदूर किसान शक्ति संगठन की संस्थापक अरुणा राय भी कह चुकी हैं कि इस विधेयक की प्रकृति खतरनाक रूप से केंद्रीकृत है.
आरोप तब और भी तेज हुए जब उन्हें विधेयक का प्रारूप तय करने के लिए बनी संयुक्त समिति में शामिल किया गया. कहा जाने लगा कि उन्हें मनमाने तरीके से रखा गया और इसका आधार और कुछ नहीं बल्कि सिर्फ अन्ना हजारे की जिद और पिता-पुत्र का बेदाग रिकॉर्ड था. हालांकि समिति में ही शामिल केजरीवाल अब भी कहते हैं कि यह बस कीचड़ उछालो अभियान है जिसका मकसद भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई को कमजोर करना है. प्रशांत जहां आग बुझाने की कोशिश कर रहे हैं वहीं शांति भूषण को इसकी कोई परवाह नहीं है. उनका दावा है कि यह उनकी साफ अंतरात्मा से उपजा अात्मविश्वास है. उन्होंने कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह पर मानहानि का दावा भी ठोका है. सिंह ने इलाहाबाद में एक मकान के सौदे में भूषण पर स्टांप ड्यूटी की चोरी का आरोप लगाया था. सिंह ने लोकपाल समिति से उनके इस्तीफे की मांग भी की थी. मानहानि के नोटिस में एडवोकेट कामिनी जायसवाल ने कहा कि 70 साल तक भूषण परिवार इलाहाबाद के इस घर में रह रहा था जिसमें किराये की शर्तों के तहत 140 रु महीना किराया दिया जा रहा था. 1966 में शांति भूषण और मकान मालिक के बीच एक समझौता हुआ जिसमें तब के बाजार भाव के मुताबिक मकान को एक लाख रु में भूषण को बेचने की बात तय हुई. मगर जब मकान की 99 साल की लीज का नवीनीकरण हुआ तो यह संपत्ति फ्रीहोल्ड हो गई और मकान मालिक ने इसे भूषण को बेचने से इनकार कर दिया. सन 2000 में मामला इलाहाबाद सिविल कोर्ट में गया. 2010 में एक समझौता हुआ जिसके मुताबिक मकान मालिक संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा रख सकता था और शांति इसका दो तिहाई हिस्सा एक लाख रु में खरीद सकते थे. शांति कहते हैं, ‘मेरे हिस्से में मकान का वह हिस्सा है जहां मेरे पिता रहते थे, जहां मेरा बचपन बीता. इसलिए मुझे इससे इतना लगाव था.’
मीडिया के बड़े हिस्से में यह जानकारी आई कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भूषण को स्टांप ड्यूटी की चोरी के मामले में दिया गया नोटिस लोकपाल विवाद के पहले का है, इसलिए इसे लांछन लगाने की कोशिश नहीं माना जा सकता. लेकिन हमेशा की तरह सच्चाई ब्योरों में छिपी हुई है. इस मामले में भी भूषण की गलती नहीं थी. यह सच है कि उन्हें लोकपाल विवाद के पहले एक नोटिस मिला था. लेकिन पांच फरवरी को उन्हें मिला यह नोटिस स्टांप ड्यूटी की चोरी के बारे में नहीं, स्टांप ड्यूटी तय करने के बारे में था. इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यह नोटिस सितंबर, 2010 में भूषण द्वारा स्टांप कलेक्टर को दिए गए एक प्रार्थनापत्र के जवाब में आया था, जिसमें स्टांप ड्यूटी निर्धारित करने की अपील की गई थी. नोटिस में मामले की सुनवाई के लिए 22 अप्रैल की तारीख तय की गई थी.
इसी बीच कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने भूषण पर आरोप लगाया कि उन्होंने 1.33 करोड़ रुपयों की स्टांप ड्यूटी बचाई है. उसी दिन स्टांप ड्यूटी कलेक्टर ने 1.33 करोड़ रुपयों का उल्लेख करते हुए एक रिमाइंडर नोटिस जारी किया. भूषण के अनुसार फरवरी के नोटिस में रुपयों का कोई जिक्र नहीं था. सुनवाई की तारीख भी बदलकर 22 अप्रैल की जगह 28 अप्रैल कर दी गई. भूषण का कहना है कि उन्हें यह नोटिस तब मिला जब उनका वकील 22 अप्रैल को पेश होने के लिए पहुंचा. उनका सवाल है कि जब उन्हें ही नोटिस नहीं मिला था तो इसके बारे में दिग्विजय सिंह को जानकारी कैसे मिली. कुछ ऐसा ही नोएडा प्लॉट मामले में भी हुआ जिसमें पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल विकास सिंह के वक्तव्य और मीडिया द्वारा की गई उसकी व्याख्या से बहुत-सी गलत जानकारियां फैलीं. जैसे यह कि शांति और उनके बेटे जयंत भूषण को नोएडा अथॉरिटी ने 2009 में करोड़ों रु के प्लॉट 35 लाख रु में आवंटित कर दिए. सिंह भी उसी योजना के तहत प्लॉट के लिए अभ्यर्थी थे. उन्होंने मीडिया को बताया कि प्लॉटों के आवंटन की प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं बरती गई और इसके खिलाफ उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है. घटनाओं की तेज रफ्तार और टीवी पर दिए जा रहे बयानों और उनके जवाबों के बीच यह पता लगाना मुश्किल है कि इसकी जड़ क्या थी. लेकिन जल्दी ही इसे सच्चाई की तरह स्वीकार कर लिया गया कि भूषण परिवार को 15-20 करोड़ के प्लॉट महज 35 लाख में मिले. जो किसी को नहीं पता था या किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई वह यह था कि सिंह की याचिका कोई जनहित याचिका नहीं थी. अपनी याचिका में उन्होंने शिकायत की है कि उनको आवंटित प्लॉट खराब लोकेशन (सेक्टर 162) पर है, जबकि कुछ ‘पसंदीदा व्यक्तियों’ को दिल्ली के ज्यादा करीब पड़ने वाली जगहों पर प्लॉट मिले हैं. उन्होंने यह भी अपील की कि यदि उन्हें बेहतर प्लॉट नहीं दिया जाता तो सारे आवंटन रद्द कर दिए जाएं और प्लॉटों की नीलामी हो. साफ है कि याचिका पर हाेने वाले निर्णय से सिंह के हित जुड़े हुए थे. इसलिए इसे जनहित याचिका नहीं माना जा सकता, जैसा कि चर्चा हो रही थी.
सिंह ने अपनी याचिका 13 अप्रैल को दाखिल की थी, यानी भूषण के लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए बनी कमेटी में नामित होने के बाद. इतना ही नहीं, 16 अप्रैल को उनकी याचिका खारिज हो गई थी. जब 20 अप्रैल को उन्होंने यह बखेड़ा खड़ा किया तो उन्होंने मीडिया को नहीं बताया कि उनकी याचिका खारिज हो चुकी है. जब उनसे पूछा गया तो अपने बचाव में उन्होंने कहा कि अपनी याचिका खारिज होने का निर्णय उन्हें तब तक नहीं मिला था. मीडिया ने अपनी तरफ से मान लिया कि ‘पसंदीदा व्यक्ति’ भूषण ही थे. जबकि भूषण को उसी प्लॉट के एक किलोमीटर के दायरे के भीतर ही प्लॉट मिले हैं जिसे सिंह ने खराब लोकेशन बताया है. ध्यान देने की बात यह है कि भूषण ने सिंह से 19 महीने पहले प्लॉट के लिए आवेदन किया था, लेकिन उन्हें सिंह के साथ ही और उतने ही दाम पर (3,500 रु प्रति वर्गमीटर) प्लॉट दिए गए. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि भूषण ने अखबार में छपे विज्ञापन के आधार पर आवेदन किया था. कई लोग पूछ सकते हैं कि क्या यह जमीन लेने में हितों का टकराव नहीं हुआ क्योंकि जयंत भूषण मायावती मूर्ति मामले में उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ और प्रशांत भूषण व शांति भूषण ताज कॉरिडोर मामले में मायावती के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे हैं. हितों का टकराव इसलिए नहीं संभव था कि मुख्यमंत्री मायावती के पास इस आवंटन में कोई विशेषाधिकार नहीं था. भूषण को पहले आवेदन देने के बावजूद सिंह के साथ ही प्लॉट मिले. लेकिन जिस बात के चलते यह पूरा हंगामा हुआ, उसका तो अब भी पता नहीं लग सका कि भूषण को ही ‘पसंदीदा व्यक्ति’ कैसे मान लिया गया. जब सिंह खुद ही अपने प्लॉट का मूल्य अदा किए गए पैसे से कम मानते हैं तो उसी इलाके में भूषण को आवंटित प्लॉटों की कीमत 20-25 करोड़ रु कैसे मान ली गई? भूषण 20-25 करोड़ रु के प्लॉट सिर्फ 35 लाख में पा गए, इस प्रचार की जगह सच्चाई यह है कि हर प्लॉट की कीमत 3.67 करोड़ रु है और 90 वर्षों के लिए 9.18 लाख रु सालाना लीज का किराया है. कुछ मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सिंह ने जोर देकर कहा था कि भूषण ने सिर्फ 35 लाख रु अदा किए, जबकि भूषण ने स्पष्ट किया है कि वे अब तक 83 लाख रु अदा कर चुके हैं. बाकी पैसा 16 किस्तों में ब्याज सहित अदा किया जाना है.