अभिशप्त लोकायुक्त

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16 अक्टूबर, 2013. उत्तराखंड के राजभवन में राज्य के पहले उपलोकायुक्त के शपथ ग्रहण समारोह की तैयारियां चल रही थीं. प्रदेश के सभी गणमान्य लोगों को निमंत्रण भेजे जा चुके थे. समारोह के लिए जब अतिथि राजभवन पहुंचे तो पता चला कि कार्यक्रम रद्द हो गया है. कारण यह था कि प्रदेश में नए लोकायुक्त अधिनियम को लगभग एक महीना पहले ही राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल चुकी थी. इस कारण जिस पुराने ‘उत्तर प्रदेश लोकायुक्त एवं उपलोकायुक्त अधिनियम 1975’ के अंतर्गत यह नियुक्ति की जा रही थी उसका अपना अस्तित्व ही संकट में आ चुका था.

इस घटना के साथ ही पिछले विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चित रहा ‘उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम’ एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में आ गया. इस अधिनियम और इसकी राजनीति पर चर्चा से पहले इनके चलते दब गई एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन डीके भट्ट को उपलोकायुक्त पद की शपथ दिलाई जानी थी वे इससे पहले उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के सदस्य थे. भट्ट ने नए पद पर नियुक्ति के लिए पांच अक्टूबर को लोक सेवा आयोग से त्यागपत्र दिया था. इस विवाद से जिस व्यक्ति को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ वह डीके भट्ट ही हैं. वे न तो उपलोकायुक्त के पद पर ही नियुक्त हो पाए और न ही अब लोक सेवा आयोग के सदस्य ही हैं.

नए लोकायुक्त अधिनियम को सितंबर में ही राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल चुकी थी. उत्तराखंड के विधि विभाग को इसकी सूचना भी प्राप्त हो चुकी थी और 180 दिन के भीतर इस नए कानून को राज्य में लागू किया जाना था. पुराने कानून के अंतर्गत किसी भी उपलोकायुक्त की नियुक्ति मुख्यमंत्री द्वारा लोकायुक्त की सहमति से की जाती थी. साथ ही इतने बड़े पद पर नियुक्ति के लिए कई विभागों से अनापत्ति भी ली जाती है. लेकिन जब भट्ट की नियुक्ति की जा रही थी तो किसी भी विभाग ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई. जब तहलका ने भट्ट से इस संबंध में बात करनी चाही तो उन्होंने इस पर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. उधर मुख्यमंत्री का इस संबंध में एक अजीबोगरीब और अविश्वसनीय बयान यह आया कि उन्हें नए अधिनियम को स्वीकृति मिलने की जानकारी ही नहीं थी.

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रदेश में करारी हार झेलनी पड़ी थी. इसके चलते राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था. 2011 आते-आते खंडूरी के बाद मुख्यमंत्री बने रमेश पोखरियाल निशंक और उनकी सरकार पर तरह-तरह के घोटालों के आरोप लगने लगे. उस वक्त अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पूरे देश में चरम पर था और चुनावों में सिर्फ छह महीने शेष थे इसलिए खंडूरी को एक बार फिर से राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया गया.

अपने दूसरे कार्यकाल में आते ही खंडूरी ने ‘उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम 2011’ बनवाया. इस अधिनियम को एक नवंबर 2011 को विधानसभा में सर्वसम्मति से पास किया गया. दो दिन बाद ही तत्कालीन राज्यपाल मार्ग्रेट अल्वा ने इस अधिनियम को स्वीकृति देने के बाद इसे केंद्रीय गृह विभाग के पास भेज दिया. चूंकि इसके कई प्रावधान समवर्ती सूची में आते थे, इसलिए ऐसा किया जाना जरूरी था. राज्य से इस अधिनियम के पास होते ही भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बना लिया और सारे प्रदेश में इस बात का प्रचार होने लगा कि उत्तराखंड ऐसा पहला राज्य बन गया है जिसने अन्ना हजारे के जन लोकपाल की तर्ज पर लोकायुक्त अधिनियम बना लिया है. इसके बाद भी खंडूरी विधानसभा चुनाव हार गए और लोकायुक्त का यह मुद्दा भी ठंडे बस्ते में चला गया था.

अब लगभग पूरे दो साल बाद इस अधिनियम को राष्ट्रपति की अनुमति मिली और यह फिर से चर्चा का विषय बन गया. आज सभी राजनीतिक दलों का इस अधिनियम पर अपना-अपना तर्क है. भाजपा इस अधिनियम को तत्काल लागू करने के लिए सरकार पर दबाव बना रही है तो मुख्यमंत्री इस अधिनियम को असंवैधानिक करार दे रहे हैं. मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा इस अधिनियम के संबंध में केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल से भी मुलाकात कर चुके हैं. और कपिल सिब्बल भी यह बयान दे चुके हैं कि इस अधिनियम को लागू नहीं किया जाएगा.

कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना कहते हैं, ‘केंद्र में भी लोकायुक्त के संबंध में एक बिल राज्यसभा की स्टैंडिंग कमिटी के समक्ष लंबित है. उसके पारित होते ही सभी राज्यों में एक जैसा लोकायुक्त बनेगा. ऐसे में अभी इस अधिनियम को लागू करने का कोई भी औचित्य नहीं है.’ धस्माना इस अधिनियम को लागू न करने के अन्य कारणों के बारे में कहते हैं, ‘इस अधिनियम में न्यायपालिका तक को लोकायुक्त के दायरे में लाया गया है. साथ ही इसमें कुछ अन्य बिंदु ऐसे हैं जिनको लेकर यदि कोई जनहित याचिका दाखिल कर दे तो उच्च न्यायालय ही इस अधिनियम पर रोक लगा देगी.’ लेकिन प्रदेश कांग्रेस के सभी लोग मुख्यमंत्री या धस्माना की बातों से सहमत नहीं हैं. विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल कहते हैं, ‘यदि इस अधिनियम में कोई संवैधानिक कमी होती तो राज्यपाल या राष्ट्रपति इसे पास ही क्यों करते. यह अधिनियम जब राष्ट्रपति के यहां से स्वीकृत होकर आ गया तो फिर इस पर विवाद करना उचित नहीं है.’

प्रदेश सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे ‘प्रगतिशील गणतांत्रिक मोर्चा (पीडीएफ)’ के सात विधायक भी इस अधिनियम को लागू किए जाने के पक्ष में हैं. पीडीएफ के सदस्य और वर्त्तमान शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी कहते हैं, ‘इस अधिनियम को इसी स्वरूप में लागू किया जाना चाहिए जैसे यह पास होकर आया है. यदि किसी के मन में चोर नहीं है तो इसे लागू करने से डर क्यों रहे हैं.’ नैथानी आगे बताते हैं, ‘जो लोग आज इसका विरोध कर रहे हैं, वे वही हैं जिन्होंने दो साल पहले खुद इस अधिनियम के समर्थन में वोट किया था. कांग्रेस का कोई भी विधायक ऐसा नहीं था जिसने विधानसभा में इस अधिनियम का विरोध किया हो.’

आज प्रदेश की कांग्रेस सरकार सबसे ज्यादा इसी बात पर घिर रही है कि यदि यह अधिनियम सही नहीं था तो दो साल पहले इसे सर्वसम्मति से पास क्यों किया गया. इस पर सूर्यकांत धस्माना कहते हैं, ‘उस वक्त सारे देश में अन्ना हजारे के आंदोलन का दबाव था. इसलिए हमने इसके खिलाफ वोट नहीं किया. लेकिन उस वक्त भी हमारे नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत ने यह बयान दिया था कि यदि कांग्रेस की सरकार बनेगी तो इस अधिनियम को लागू नहीं किया जाएगा.’

2011 में इस अधिनियम का विरोध करने वाले एकमात्र विधायक किशोर उपाध्याय कहते हैं, ‘मैंने उस वक्त भी इस अधिनियम के खिलाफ धरना तक दिया था. लेकिन हमारे नेता प्रतिपक्ष ने इसके समर्थन में वोट देने को कहा. मैंने तब उनसे यही कहा था कि मैं इसके समर्थन में वोट नहीं कर सकता और लिहाजा वोटिंग के समय मैंने वॉक आउट किया था.’ किशोर आज भी इस अधिनियम का विरोध करते हुए कहते हैं, ‘यह अधिनियम खंडूरी जी ने सिर्फ राजनीतिक लाभ लेने के लिए आनन-फानन में पास करवाया था. प्रदेश के किसी भी विधि-विशेषज्ञ की राय इस संबंध में नहीं ली गई थी. ‘

इन सभी राजनीतिक मुद्दों से इतर इस अधिनियम का गुणदोष के आधार पर भी काफी विरोध हुआ है. 2011 में जब प्रदेश से इस अधिनियम को पास किया गया था तो अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने इसकी जमकर तारीफ की थी. तब भाकपा (माले) की राज्य कमेटी की तरफ से अन्ना टीम को इस अधिनियम के विरोध में एक पत्र लिखा गया था. भाकपा (माले) की राज्य कमेटी के सदस्य इंद्रेश मैखुरी बताते हैं, ‘इस अधिनियम के अनुसार किसी भी विधायक, मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ तब तक जांच शुरू नहीं हो सकेगी जब तक लोकायुक्त के सभी सदस्य सर्वसम्मति से इसकी अनुमति न दे दें. यानी नेताओं के खिलाफ जांच के लिए लोकायुक्त के हर सदस्य के पास वीटो है. जबकि इन सदस्यों को नियुक्त करने वाली चयन समिति का अध्यक्ष खुद मुख्यमंत्री ही होगा. ऐसे में तो यह असंभव है कि कभी किसी नेता के खिलाफ जांच हो भी पाए. ऊपर से इसमें  यह भी प्राविधान है कि शिकायतकर्ता पर एक लाख रुपये तक का जुर्माना किया जा सकता है. प्रभावशाली लोगों के खिलाफ शिकायत करने से लोग वैसे ही घबराते हैं, उस पर जुर्माने के डर से तो लोगों का सामने आना भी मुश्किल है.’

इंद्रेश इस अधिनियम पर हो रहे विवाद के बारे में बताते हैं, ‘पिछली भाजपा सरकार में अधिकारियों, विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ कुल 2,541 मामले लोकायुक्त कार्यालय में पंजीकृत हुए. इनमें से कई को दोषी पाते हुए तत्कालीन लोकायुक्त ने मुख्यमंत्री को रिपोर्ट भी सौंपी थी. यदि खंडूरी जी की नीयत साफ थी तो वे उन पर कार्रवाई करते. लेकिन एक भी दोषी अधिकारी पर कार्रवाई नहीं की गई. इस अधिनियम के प्रावधान तो भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने का काम करने वाले हैं. लेकिन जनता में यह भ्रम है कि मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के दायरे में लाने वाला यह अधिनियम शायद बहुत प्रभावशाली होगा. हमने प्रशांत भूषण को पत्र लिखकर उनसे इस अधिनियम की कमियों पर जवाब देने की मांग की थी. लेकिन उनकी तरफ से कोई भी जवाब नहीं आया. ‘

आज आलम यह है कि प्रदेश सरकार इस अधिनियम को संशोधित करने या फिर इसे नए अधिनियम से बदलने के भरसक प्रयास कर रही है. इस संबंध में सात नवंबर को कैबिनेट की एक बैठक भी बुलाई गई थी लेकिन प्रिंस चार्ल्स के देहरादून दौरे के चलते इसे रद्द करना पड़ा. अब यह बैठक 17 नवंबर को रखी गई है. हालांकि सरकार के लिए भी ऐसा करना आसान नहीं होगा क्योंकि उसके भीतर ही कई लोग इस अधिनियम के खुले समर्थन में हैं. इनका मानना है कि फिलहाल इस अधिनियम को लागू किया जाए और बाद में जरूरत पड़ने पर ही संशोधन किए जाएं.

बहरहाल राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलते ही यह अधिनियम उत्तराखंड राज्य का कानून बन चुका है जिसे लागू करने के लिए सरकार के पास 180 दिन का समय है. इसके बाद मौजूदा लोकायुक्त को निरस्त मान लिया जाएगा. लिहाजा वर्तमान लोकायुक्त के अस्तित्व और वैधता पर भी इस अधिनियम ने सवाल खड़े कर दिए हैं. साथ ही इस अधिनियम की धारा 12 के कुछ बिंदु ऐसे हैं जिनके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को भी निर्देशित किया गया है जिन्हें आपत्तिजनक माना जा रहा है. दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि के सहायक प्रोफेसर संतोष शर्मा बताते हैं, ‘बड़े पैमाने पर तो इस अधिनियम में कुछ भी ऐसा नहीं जिसके कारण इसे असंवैधानिक कहा जाए. लेकिन इसके कुछ बिंदु ऐसे जरूर हैं जो अन्य कानूनों से टकराव पैदा करेंगे.’ साथ ही कानून के जानकार यह भी बताते हैं कि यह अधिनियम पहली नजर में लुभावना भले ही दिखता हो लेकिन नेताओं पर कार्रवाई के मामले में इसके प्रावधान ऐसे हैं कि ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी.’