विद्रोही दीदी

ममता बनर्जी,
उम्र-58,
मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

भारत की पहली महिला रेल मंत्री होना या देश के चौथे सबसे बड़े राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री होना अपने आप में किसी भी राजनेता के लिए बड़ी उपलब्धियां हैं. लेकिन बात जब ममता बनर्जी की हो तो उनकी व्यक्तिगत छवि अपनी इन सभी उपलब्धियों पर भारी पड़ती है. ‘दीदी’  को लोग इन उपलब्धियों के बजाय उनके ‘सकारात्मक विद्रोही’ होने के कारण ही एक जननेता के रूप में स्वीकार करते हैं. संघर्षों से भरा उनका राजनीतिक जीवन उनकी कई ऐसी विशेषताएं दिखाता है जिनके चलते वे राजनीतिक अवसान के इस दौर में भी उम्मीद की एक किरण जगाती हैं. 

अतीत बताता है कि कांग्रेस से अलग होकर कोई भी राजनीतिज्ञ सफलता का परचम नहीं लहरा पाया. वे चाहे पी चिदंबरम रहे हों या नारायण दत्त तिवारी या फिर वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, कांग्रेस से अलग हुए सभी बड़े नेता या तो वापस कांग्रेस में ही लौटे या फिर गुमनामी के अंधेरों में समा गए.  लेकिन ममता बनर्जी इन तथ्यों के बीच एक अपवाद के रूप में उभरती हैं. उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए भी अपनी शर्तों पर ही काम किया और उससे अलग होकर भी सफलता के झंडे गाड़े. सकारात्मक रवैया, जुझारू प्रयास और कभी हताश न होने की प्रवृत्ति उनके हथियार हैं.

1998 में कांग्रेस से अलग हुई ममता ने तृणमूल कांग्रेस नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई थी. लेकिन 2004 में हुए लोकसभा चुनावों में इसे सिर्फ एक सीट हासिल हुई.  फिर 2006 में हुए पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों में भी ममता की पार्टी को महज 10 फीसदी सीटों से संतोष करना पड़ा जबकि वाममोर्चे ने 80 फीसदी सीटें जीतीं.  लेकिन निराशा के इस दौर में भी ममता ने कभी वापस कांग्रेस की तरफ मुड़ने की नहीं सोची और प्रयास जारी रखा. आखिरकार उन्होंने वह किला फतह कर ही डाला जो पूरे विश्व में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली साम्यवादी सरकार (गणतांत्रिक रूप से चुनी गई) का अभेद्य गढ़ कहा जाने लगा था.

पश्चिम बंगाल में 34 साल राज करने वाली साम्यवादी सरकार को पछाड़ पाना जहां किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी के लिए लगभग असंभव-सा प्रतीत होता था वहीं ममता ने साम्यवादियों को अकेले ही और उन्हीं के हथियारों से मात दी. गरीबों, भूमिहीनों, मजदूरों और किसानों की पक्षधर कही जाने वाली साम्यवादी सरकार ने जब नंदीग्राम और सिंगूर में गरीबों की भूमि अधिगृहीत करके बड़े पूंजीपतियों को देने की ठानी तो ममता ही वह प्रमुख चेहरा बनीं जिनके नेतृत्व में इस अधिग्रहण का पुरजोर विरोध हुआ. जानकारों का मानना है कि भूमि अधिग्रहण का विरोध ही वह प्रमुख कारण था जिसने ममता को बंगाल में इतने बड़े स्तर पर लोकप्रियता दिलाई और उन्हें जननेता बना दिया.  मुख्यमंत्री पद संभालने के एक महीने के भीतर ही ममता बनर्जी ने अपने वादे के अनुसार अधिगृहीत भूमि वापस करने संबंधित प्रस्ताव विधानसभा में पास करवा दिया.

केंद्र की राजनीति में भी ममता का प्रदर्शन उनके निर्भीक और सधा हुआ राजनीतिज्ञ होने के कई उदाहरण पेश करता है. 1999 में पहली बार रेल मंत्री बनी ममता ने तब खुद को भाजपा सरकार से अलग कर लिया था जब 2001 में तहलका ने भाजपा के मंत्रियों के घोटालों में संलिप्त होने का खुलासा किया. वर्तमान की संप्रग सरकार से भी लंबे समय तक ममता की तनातनी चलती रही. जहां एक तरफ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध तो किया लेकिन इस विधेयक के पास होने में अप्रत्यक्ष भूमिका भी निभाई वहीं ममता ने इस मुद्दे पर अडिग रहते हुए सरकार से अपना समर्थन वापस लेकर एक बार फिर से अपनी ‘सकारात्मक विद्रोही’ होने की छवि पर मुहर लगा दी. 

ममता की एक खासियत यह भी है कि उनका पहनावा जितना साधारण है उनका व्यक्तित्व उतना ही असाधारण और तेवर तो ऐसे कि दीदी को उनके विपक्षी अक्सर यह कहते मिलते हैं कि वे ‘दीदीगीरी’ करने लगी हैं. भारतीय राजनीति में हावी होते परिवारवाद के बीच ममता एक ऐसी राजनीतिज्ञ हैं जिनका न तो नेहरू-गांधी की तरह कोई माईबाप रहा है और न ही काशीराम की तरह कोई मार्गदर्शक. अकेले अपने दम पर राजनीतिक बुलंदियां हासिल करने वाली ममता बनर्जी को 2012 में प्रसिद्ध ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की श्रेणी में शामिल किया गया है. ब्लूमबर्ग मार्केट्स मैगजीन ने भी उन्हें विश्व के 50 सबसे प्रभावशाली लोगों में शामिल किया है.

-राहुल कोटियाल