वादी के हिंदू आतंकवादी

आखिर क्यों कई हिंदू नौजवान कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी संगठनों की तरफ आकर्षित हुए हैं? बाबा उमर की रिपोर्ट. 

मकई के खेतों और अखरोट के बागानों से गुजरते हुए नीलकांत कुमार आखिर में एक कब्र तक पहुंचते हैं. कब्र पर लगे पत्थर पर दर्ज है, ‘शहीद कुलदीप कुमार अल मारूफ कामरान फरीदी’. यह उनके बेटे की कब्र है. जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले में बसे जोहंड गांव का कुलदीप 2001 में हिजबुल मुजाहिदीन में शामिल हुआ था. तभी उसने इस्लाम धर्म भी अपनाया और अपना नाम कामरान फरीदी रख लिया. 26 अगस्त, 2006 को एक मुठभेड़ में मारे जाने तक वह इस संगठन में सेक्शन कमांडर बन चुका था. 65 साल के नीलकांत के लिए बेटे की याद भी एक तरह की दुविधा ही है. वे कहते हैं, ‘उसके अलग राह पर जाने से हमारे समाज ने हमारा हुक्का-पानी बंद कर दिया. लेकिन दूसरी तरफ वह एक अच्छा बेटा भी था जिसने एक बार मेरी दवाओं और घर बनाने के लिए 20 हजार रु कमाने की खातिर दिन-रात एक कर दिया था.’ 

एफआईआर के मुताबिक कुलदीप राष्ट्रीय राइफल्स आठ और 10 के फौजियों के साथ हुई मुठभेड़ में मारा गया और उसके पास से चार ग्रेनेड्स भी बरामद किए गए. नीलकांत कहते हैं,  ‘पुलिस चाहती तो मेरे बेटे और उसके साथी खालिद कश्मीरी (कश्मीरी आतंकवादी) को गिरफ्तार भी कर सकती थी लेकिन पुलिस ने खालिद को तो मौके पर ही मार दिया और मेरे बेटे को गोली मारने से पहले चार घंटे अपनी हिरासत में रखा.’ नीलकांत आगे बताते हैं, ‘मैंने सुना है एक फौजी ने मेरे बेटे से पूछा कि क्या वह अब भी हिंदू है. जब मेरा बेटा इस पर कायम रहा कि वह एक मुसलमान है तो उस जवान ने उसे गोली मार दी. अगर मेरे बेटे ने झूठ बोला होता तो आज वह जिंदा होता.’

कश्मीर मुद्दे की जटिलताओं की ही तरह यहां का आतंकवाद भी उतना ही जटिल है. इसके कई पहलू हैं. इनमें से एक यह भी है कि इस आतंकवाद ने दर्जन भर से ज्यादा हिंदू युवाओं को भी पकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों की तरफ खींचा है. कश्मीर की इस लड़ाई ने सिर्फ स्थानीय मुसलिम युवाओं को ही नहीं बल्कि कई विदेशी आतंकियों को भी अपनी ओर आकर्षित और शामिल किया है. एक अनुमान के मुताबिक इन विदेशी आतंकवादियों की संख्या लगभग 5000 के करीब है जिसमें पकिस्तान, अफगानिस्तान और सूडान तक के लोग शामिल हैं. लेकिन हिंदू आतंकियों के इस लड़ाई में शामिल होने का चलन यहां पहले कभी नहीं देखा गया था. कुलदीप उन दर्जन भर हिंदुओं में से एक था जो राजौरी, पुंछ, रियासी, रामबन, डोडा और किश्तवाड़ में इस्लामी संगठनों में शामिल हुए हैं. हिंदू युवाओं के हिजबुल मुजाहिद्दीन, लश्कर-ए-तैय्यबा और अल-बद्र जैसे पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों की ओर आकर्षित होने के पीछे क्या कारण हैं,  इसकी पड़ताल करने ‘तहलका’ डोडा और किश्तवाड़ के इलाकों में पहुंचा. हमें अहसास हुआ कि इसका जवाब भी कश्मीर मुद्दे जैसा ही उलझा है. 

‘कुछ पुलिसकर्मियों का मानना है कि पैसा और ताकत ही इन हिंदू युवाओं को मुस्लिम आतंकवादी संगठनों की और आकर्षित करते हैं’

पुलिस सूत्रों के मुताबिक अब तक पांच हिंदू आतंकी मारे जा चुके हैं और एक ने आत्मसमर्पण किया है जिसे बाद में अर्धसैनिक बल में शामिल कर लिया गया. बिपिन कुमार 1996 में हरकत-उल-अंसार में शामिल हुआ था. उसे नवंबर 2008 में एक मुठभेड़ में मार गिराया गया. भदरवाह इलाके में चार साल तक आतंक फैलाने के बाद हिजबुल मुजाहिद्दीन के उत्तम कुमार उर्फ सैफुल्ला का भी अगस्त 2005 में यही हश्र हुआ. भदरवाह में ही सक्रिय हिजबुल का एक अन्य आतंकी बिट्टू कुमार भी मारा जा चुका है. संगठन का एक और आतंकी सुभाष कुमार शान 27 जुलाई 2011 को मारा गया. 2003 में हिजबुल मुजाहिद्दीन में शामिल सुभाष 2011 तक डिप्टी डिविजनल कमांडर बन चुका था. आत्मसमर्पण करने वाला एकमात्र हिंदू आतंकी हरकत-उल-अंसार का सुनील कुमार है जिसने हथियार डालकर अर्धसैनिक बल में शामिल होने का फैसला किया. 

पुलिस सूत्रों के मुताबिक कई हिंदू आज भी इन आतंकी संगठनों में सक्रिय हैं. डोडा जिले के त्रोने गांव का सुरेश कुमार, किश्तवाड़ के सुर्कोट गांव का सचिन शर्मा, पदियारना के सरपंच की बेटी जानकी देवी , त्रिगम गांव निवासी राजू, रियासी जिले के गुन्दाली गांव का शाम लाल उर्फ़ शमसुद्दीन , नर्खुम्बा गांव का जगदीप सिंह और रियासी जिले के ही कृपाल सिंह (अल-बद्र) और कृष्ण लाल (लश्कर-इ-तय्यबा ) उन हिंदू युवाओं में से हैं जो मुस्लिम आतंकवादी संगठनों में सक्रिय हैं. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक तो यह सूची और भी लंबी हो जाती है . राजौरी और रियासी जिले के पाल्मा निवासी पुरषोत्तम लाल उर्फ काका खान, दर्योती निवासी शाम लाल और उसका भतीजा संजय लाल, दराज निवासी सतपाल, नौशेरा निवासी गुड्डू और राजौरी जिले का ही कृष्ण लाल भी उन हिंदुओं में से हैं जो आतंकी संगठनों में शामिल हैं. किश्तवाड़ के एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘ इन सभी नामों को ग्रुप ‘ए’ में रखा गया है, जिसको कि सबसे खतरनाक और सक्रिय माना जाता है. कई वर्षों से इनका खौफ बरकरार है. इनमें से सबसे खूंखार था सुभाष कुमार शान. कई लोगों को आतंकवादी बनने को उकसाने के अलावा वह तीन फौजियों की मौत के लिए भी जिम्मेदार था.’ 

कुछ पुलिसकर्मियों का मानना है कि पैसा और ताकत ही इन हिंदू युवाओं को मुस्लिम आतंकवादी संगठनों की और आकर्षित करते हैं. लेकिन पैसा ही एक मात्र कारण नहीं है. सुभाष कुमार शान के हिंसा अपनाने के पीछे और भी कई कारण सामने आए हैं. एक पुलिस अधिकारी बताते हैं,  ‘सुभाष को एक मुस्लिम लड़की से प्यार हो गया था. उसने इस्लाम कुबूल किया और अपना नाम बदल कर वासिफ अली रिजवी कर दिया. लेकिन लड़की ने उसे ठुकरा दिया और तब उसने बन्दूक उठा ली. उसके मां-बाप भी उससे खफा थे. उन्होंने तो उसका शव लेने से भी मना कर दिया था’. 

किश्तवाड़ से 27 किलोमीटर दूर पाल्मर तहसील में स्थित राजना गांव में 49 वर्षीय जीवन लाल और उनकी पत्नी पुष्पा देवी (44)  से जब हम मिले उस दौरान उनके पड़ोसी बशीर अहमद भी वहीं मौजूद थे.

लेकिन सुभाष के माता पिता कुछ और ही दास्तां बताते हैं. किश्तवाड़ से 27 किलोमीटर दूर पाल्मर तहसील में स्थित राजना गांव में 49 वर्षीय जीवन लाल और उनकी पत्नी पुष्पा देवी (44)  से जब हम मिले उस दौरान उनके पड़ोसी बशीर अहमद भी वहीं मौजूद थे. वे इस हिंदू परिवार के मुस्लिम बहुल क्षेत्र में बसने के बाद से हर सुख दुःख में साथ रहे हैं. जीवन लाल जो खुद पुलिस में सिपाही पद पर कार्यरत हैं, कहते हैं, ‘सुभाष जब 10वीं कक्षा में था तब उसका कुछ हिंदू लड़कों से झगड़ा हो गया था. उन लड़कों ने सुभाष को बड़ी बेरहमी से मारा था. जब मामला थाने पहुंचा तो मैंने ही दखल देकर मामला सुलझाया था. मुझे लगता है उसी हादसे ने सुभाष के मन में नफरत भर दी थी. हां, लेकिन उसने आतंकवादी बनने के बाद कभी भी उन लड़कों को कुछ नहीं कहा.’ सुभाष के मां-बाप पुलिस की कहानी को भी सिरे से नकारते हुए बताते हैं कि उन्होंने कभी भी अपने बेटे का शव लेने से इनकार नहीं किया. पुष्पा कहती हैं, ‘यह सब झूठ है . बल्कि सरकार ने ये कभी भी साफ नहीं किया कि जो मारा गया वह मेरा बेटा ही था. हमें तो उसकी मौत की खबर भी मीडिया से मिली. जब तक हम मारवाह (घटनास्थल) पहुंचे तब तक स्थानीय लोग उसका अंतिम संस्कार कर उसे पहाड़ों में दफना चुके थे.’ 

बशीर अहमद का मानना है कि सुभाष के बंदूक उठाने के पीछे सुरक्षा बलों द्वारा किया गया वह नरसंहार भी हो सकता है जिसने सारे पाल्मर को हिला कर रख दिया था. वे कहते हैं , ‘मैं मुस्लिमों के नहीं बल्कि हिंदुओं के नरसंहार की बात कर रहा हूं’. अहमद के मुताबिक फौजियों ने कृष्ण लाल नामक एक ग्रामीण को गोली मार दी थी, उसके भाई अमर चांद को भी इतनी यातनाएं दी गईं कि उसकी भी मौत हो गई और एक पूर्व सैनिक पन्दिथि रघुनाथ को भी मार दिया गया. बशीर कहते हैं, ‘ यहां हिंदू हो या मुसलमान, दोनों ने ही भुगता है. लगता है सुभाष इन्ही नरसंहारों से प्रभावित हुआ था और तभी उसने हथियार उठाये थे’ उधर, किश्तवाड़ के डिप्टी पुलिस अधीक्षक चौधरी अबरार का मानना है कि सुभाष वैचारिक रूप से इस्लाम से प्रभावित था. किश्तवाड़ में मौजूद हिंदूू आतंकवादियों के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘किश्तवाड़ में सात ऐसे आतंकी सक्रिय हैं. लेकिन वे सभी फिलहाल फरार हैं. काफी लंबे समय से उनकी कोई भी गतिविधि दर्ज नहीं की गई है. 

वहीं किश्तवाड़ नगर के पास स्थित सुर्कोट निवासी सुरेश शर्मा अपने बेटे की मौत की गुत्थी सुलझाने में ही उलझ कर रह गए हैं. पुलिस का मानना है कि सचिन शर्मा अक्टूबर 1998 से ही हिजबुल मुजाहिद्दीन के साथ काम कर रहा था जब वह नवीं में पढ़ता था. लेकिन सुरेश शर्मा पुलिस के इस तर्क को मानने से साफ इनकार करते हैं. शर्मा कहते हैं,  ‘14 साल पहले एक सुबह वह घर से निकला और फिर कभी लौट कर नहीं आया. अगर वह आतंकवादी होता तो पुलिस उसे गोली मार देती और उसकी लाश सबके सामने पेश करती. अब तो हमें लगता है कि शायद उसने आत्महत्या कर ली होगी’. एनएचपीसी में कार्यरत शर्मा बताते हैं कि उनके परिवार ने सालों तक पुलिस और फौज की यातनाएं सही हैं. घर पर कभी भी कोई तलाशी लेने आ जाता, परिवार के सदस्यों की तसवीरें खींचता और कभी पकड़े गए आतंकवादियों को घर पर लाया जाता जो ये कबूल करते थे कि वे उनके बेटे को जानते हैं. शर्मा सवाल करते हैं , ‘हम कैसे विश्वास कर लें जब तक हम अपने बेटे को या उसके शव को नहीं देख लेते’ 

हिंदू आतंकियों की गतिविधियों का नजदीक से अध्ययन करने वाले पत्रकार सय्यद अमजद शाह ‘माहौल और संगत के प्रभाव’ को ही हिंदुओं के आतंकवाद को अपनाने का मुख्य कारण मानते हैं और बताते हैं कि इनमें से कई आतंकी तो सीमा पार कर पकिस्तान जा चुके हैं . शाह कहते हैं कि हिंदूओं के आतंकवादी संगठनों से जुड़ने के पीछे पैसा भी एक कारण हो सकता है, लेकिन कुल मिलकर वैचारिक और सैद्धांतिक कारण ही हैं जो इन्हें हथियार उठाने को प्रेरित कर रहे हैं. वे कहते हैं ‘ यदि पैसा ही एक मात्र कारण है तो यह सिलसिला सिर्फ इतने छोटे स्तर पर ही देखने को क्यों मिल रहा है? बन्दूक की नोक पर कमाया हुआ पैसा और शोहरत तो सैकड़ों युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकता था. मामला इससे कहीं ज्यादा जटिल है.’