लड़ाई की कहानी

भारत-चीन युद्ध को पूरी तरह से समझने के लिए भारत की आजादी, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के निर्माण और उसके तिब्बत पर नियंत्रण की घटनाओं तक जाना होगा. या शायद इनके पहले हुई शिमला बैठक तक- जब भारत सरकार, चीन और तिब्बत, इन तीन पक्षों के बीच बैठक हुई थी जिसमें मैकमेहॉन लाइन का निर्धारण किया गया था. चीन ने ही इस समझौते की पहल की थी, लेकिन बाद में उसने ही यह कहते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था कि वह आंतरिक तिब्बत और बाहरी तिब्बत के लिए निर्धारित की गई परिभाषा से असहमत है. मार्च, 1947 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार ने एशियाई देशों के बीच संबंध बेहतर करने के लिए दिल्ली में एक बैठक आयोजित की. इसमें तिब्बत और चीन दोनों को आमंत्रित किया
गया था. 1949 में जब चीन या पीआरसी अस्तित्व में आया तब भारत शुरुआती देशों में था जिसने उसे तुरंत मान्यता दी और उसके बाद ‘एक चीन’ की नीति को अपना लिया.

1951 में चीन ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया. तिब्बत को स्वायत्तता देते हुए 17 बिंदुओं का समझौता तैयार किया गया जिसके मुताबिक उसे चीन की संप्रभुता में रहना था. इसके बाद समस्याविहीन भारत-तिब्बत सीमा समस्याग्रस्त चीन-भारत सीमा में बदल गई क्योंकि इसके बाद तिब्बत के क्षेत्र को लेकर चीनी दावों की छाया भारत के अधिकार के तहत आने वाले कुछ हिस्सों तक भी पहुंच गई थी.  भारत और चीन अधिगृहीत तिब्बत के बीच संबंधों से जुड़ी संधि भारत और चीन के बीच 1954 में हुई. भारत ने तिब्बत पर अपने सभी अधिकार छोड़ दिए, लेकिन इसके बदले में कोई मांग या शर्त नहीं रखी. ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ के इसी दौर में नेहरू ने पंचशील सिद्धांतों की नींव रखी. उनकी सोच थी इस तरह से सीमा को सुरक्षित रखा जा सकता है.

दो साल बाद 1956 में दलाई लामा का भारत आगमन हुआ. वे गौतम बुद्ध के प्रबोधन की 2,500वीं वर्षगांठ समारोह में भाग लेने भारत आए थे. दलाई लामा ने उस समय यह कहते हुए वापस तिब्बत लौटने से मना कर दिया था कि चीन स्वायत्तता संबंधी अपने वादे पर अमल नहीं कर रहा है. उसी साल चीन के राष्ट्र प्रमुख चाऊ एन लाऊ भारत यात्रा पर आए और उन्होंने नेहरू से अपने अच्छे संबंधों के आधार पर दलाई लामा को सहमत किया कि वे वापस ल्हासा चलें. लाऊ ने दलाई लामा को आश्वस्त किया कि चीन 17 बिंदुओं वाला समझौता ईमानदारी से लागू करेगा.

1954 में जब नेहरू चीन यात्रा पर थे तो उन्होंने चाऊ एन लाई का ध्यान कुछ गलत नक्शों की तरफ दिलाया जिनमें मैकमेहॉन लाइन और जम्मू-कश्मीर की जॉन्सन लाइन स्थायी सीमा की तरह दर्शाई गई थी (जबकि पहले के नक्शोंं में इसे बिंदुवार लाइन या अस्पष्ट लाइन की तरह दिखाया जाता था). चाऊ एन लाई ने सफाई दी कि चीन को पुराने नक्शे सुधारने का अभी समय नहीं मिला लेकिन जैसे ही उचित समय आएगा यह काम पूरा कर लिया जाएगा. नेहरू को लगा कि चीन का यह रवैया नक्शों  को लेकर भारतीय सोच पर सहमति की मोहर है. हालांकि उन्होंने 1956 में चाऊ एन लाई की भारत यात्रा के दौरान एक बार फिर उनका ध्यान इस तरफ दिलाया लेकिन इस पर ज्यादा जोर नहीं दिया. नेहरू ने उस समय अपने एक बयान में स्वीडन के एक बेहद काबिल राजनयिक के शब्दों का उल्लेख किया था जिसके मुताबिक क्रांति का रास्ता अपनाने के बावजूद चीन को अभी 20-30 साल गरीबी दूर करने और अपना दबदबा हासिल करने में लगेंगे इसलिए इन सालों में चीन को अलग-थलग करने के बजाय उसके साथ मैत्री संबंध विकसित किए जाएं. हालांकि 1960-62 में नेहरू ने उसी राजनयिक के शब्दों की व्याख्या कुछ इस तरह की कि अपने शुरुआती 20-30 साल चीन के लिए सबसे खतरनाक और उथल-पुथल भरे रहेंगे और फिर उसके रुख में परिपक्वता और नरमी आएगी. नेहरू के ये दो विचार कुछ हद तक चीन पर उनकी समझ की अस्पष्टता दिखाते हैं.

1956-57 में चीन ने अक्साई चिन में सड़क का निर्माण किया, लेकिन 1958 में यह बात तब उजागर हुई जब चीन की एक पत्रिका में छपे एक नक्शे में इसे चिह्नित किया गया. भारत ने इस पर अपना विरोध दर्ज कराया. बाद में भारत-चीन सबंधों पर जारी हुए श्वतेपत्रों में यह घोषणा की गई कि अक्साई चिन ‘अविवादित भारतीय क्षेत्र’ है. लेकिन भारत इस पर भी चिंता जता रहा था कि चीन के सैनिक बिना ‘उचित वीजा और दस्तावेजों’ के इस इलाके में आते-जाते रहते हैं. इससे कहा जा सकता है कि नेहरू उस समय भी लचीली नीति अपनाकर मोलभाव करते हुए शांतिपूर्ण समाधान के लिए तैयार थे. हां, लेकिन संसद और जनता को इस बारे में कुछ नहीं पता था.

बाहर से कोई संकेत नहीं दिख रहा था लेकिन नेहरू अपने रुख में बदलाव कर रहे थे. अशोक पार्थसारथी के मुताबिक उनके पिता दिवंगत जी पार्थसारथी (जीपी) को 1958 में बीजिंग में भारतीय उच्चायुक्त नियुक्त किया जा रहा था. मार्च में बीजिंग जाने से ठीक पहले वे नेहरू से मिलने पहुंचे. जीपी से नेहरू ने तब कहा था, ‘जीपी, विदेश मंत्रालय ने तुमसे क्या कहा है? हिंदी-चीनी भाई-भाई? तुम इस पर भरोसा करते हो? मुझे चीनियों पर रत्ती भर भरोसा नहीं है. वे धोखेबाज, पूर्वाग्रही, अहंकारी और अड़ियल हैं. तुम्हें वहां लगातार सतर्क रहना होगा. विदेश मंत्रालय के बजाय वहां से सभी टेलीग्राम सिर्फ मुझे भेजना. मेरे इस निर्देश का जरा भी जिक्र कृष्ण (तत्कालीन विदेश मंत्री- वीके कृष्ण  मेनन) से मत करना. मुझे पता है कि हम तीनों एक ही तरह के विचार रखते हैं फिर भी कृष्ण को लगता है और जो गलत है कि कोई भी कम्युनिस्ट देश हमारे जैसे गुटनिरपेक्ष देश के साथ खराब संबंध नहीं रख सकता.’

15,000 फुट जैसी ऊंचाइयों पर तैनात जवान वहां हल्के स्वेटर और किरमिच के जूते पहने हुए थे, जबकि ऐसी ऊंचाई पर तो भयानक ठंड भी एक दुश्मन होती है

यह इस बात का एक और सटीक उदाहरण है कि किस तरह नेहरू की सोच चीन को लेकर विपरीत ध्रुवों पर चलती थी. इसी साल चीन ने अरुणाचल प्रदेश के लॉन्गजू और खिजेमाने में घुसपैठ कर दी. इसके बाद लद्दाख के कोंग्का पास, गैलवान और चिप चाप घाटी में चीन की सेनाएं आ गईं. टाइम्स ऑफ इंडिया में ये खबरंे काफी पहले से आ रही थीं. पूरे देश में यह मुद्दा काफी गर्म था. मैं सेना के जनसंपर्क अधिकारी राम मोहन राव के साथ लद्दाख में बन रही सड़कों के मुआयने के लिए आयोजित दौरे में शामिल था और तब ही मुझे उड़ती-उड़ती खबरें मिलीं कि पूर्वी सीमा पर कुछ उथल-पुथल चल रही है. आखिर में हम चुशूल पहुंचे. यहां हवाई पट्टी सुरक्षित थी और पैंगांग झील भी.

तिब्बत में 1959 में खंपा विद्रोह भड़कने के बाद दलाई लामा तवांग के रास्ते भारत आ गए. सरकार ने उन्हें और उनके साथ आए तकरीबन एक लाख लोगों को शरणार्थी का दर्जा दे दिया. भारत-चीन संबंधों को एक नया मोड़ देने वाली इस घटना से चीन हतप्रभ और आक्रोशित था. इसके अलावा भारत पर चीन का संदेह बढ़ने की कुछ और वजहें भी थीं. भारत ने नंदा देवी पर्वत पर अमेरिका को एक जासूसी उपकरण लगाने की इजाजत भी दे दी थी ताकि तिब्बत में चीन की हरकतों पर नजर रखी जा सके.
चीन ने अब अपनी सेना और नक्शानवीसों को लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश की ओर आगे बढ़ने का आदेश दे दिया था.

उस समय सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया चीन की रणनीतिक योजना के हिसाब से अपनी योजनाएं बना रहे थे. लेकिन कृष्णा मेनन और उनके सहयोगी बीएन मलिक, जो कि आईबी के मुखिया थे और चतुर अधिकारी माने जाते थे, का मानना था कि भारत की सुरक्षा को असली खतरा पाकिस्तान से है. कृष्ण सेना अधिकारियों के प्रोमोशन, पोस्टिंग और सैन्य रणनीति में लगातार बढ़ते हस्तक्षेप से व्यथित थिमैया ने 1959 में नेहरू को अपना इस्तीफा दे दिया था. गंभीर संकट की आशंका भांपते हुए नेहरू ने थिमैया को इस्तीफा वापस लेने के लिए सहमत कर लिया. और दुर्भाग्य से उन्होंने अपने अधिकारों से समझौता होने के बावजूद इस्तीफा वापस ले लिया. मलिक और मेनन ने नेहरू के दिमाग में यह बात बिठा दी थी कि एक ताकतवर सेना प्रमुख कभी भी तख्तापलट कर सकता है (जैसा कि अयूब खान ने पाकिस्तान में किया था). नेहरू भी तब तक गंभीरता से यह नहीं मान रहे थे कि उत्तर की तरफ से भारत की सुरक्षा को कोई खतरा हो सकता है. हालांकि 1960 के दशक में उन्होंने संसद में कई बार उत्तरी सीमा को लेकर चिंता जाहिर की, लेकिन फिर भी उन्होंने इसे सुरक्षित करने के लिए जरूरी सैन्य तैयारियों पर उतना ध्यान नहीं दिया.

एक दशक बाद सीमा सड़क संगठन के तहत सीमावर्ती इलाकों में सड़कें बनाने का काम शुरू किया गया. इन इलाकों में सैन्य चौकियां भी बनाई गईं. लेकिन इनका कोई खास सैन्य महत्व नहीं था. लद्दाख में बनी 43 सैन्य चौकियों में से ज्यादातर ऐसी थीं कि किसी युद्ध के समय इनको वक्त पर सैन्य मदद भी उपलब्ध नहीं करवाई जा सकती थी. खानापूरी जैसी इन चौकियों की स्थापना का महत्व केवल राजनीतिक था. दरअसल नेहरू तब संसद में यह दावा करते थे कि भारत की एक इंच जमीन भी असुरक्षित नहीं छोड़ी जाएगी. लेकिन उन्होंने ही अक्साई चिन में चीनी कब्जे को ज्यादा तूल न देते हुए कहा था कि आबादी विहीन यह क्षेत्र बंजर है जहां ‘घास का एक तिनका भी नहीं उगता.’ अगस्त में नेहरू ने दावा किया कि भारतीय सैन्य बलों ने लद्दाख में चीनी कब्जे के कुल 12,000 वर्ग मील इलाके में से  2,500 वर्ग मील हिस्सा वापस ले लिया है. 15 अगस्त, 1962 को अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया की टिप्पणी थी कि चीन को लेकर सरकार की नीति चीनी व्यंजन चौप्सी जैसी है जिसमें थोड़ा-थोड़ा सब कुछ है. सख्ती भी, नरमी भी.  अखबार के शब्द थे, ‘हमें बताया जाता है कि सीमा पर स्थिति गंभीर है और नहीं भी. हम उन पर भारी पड़ रहे हैं और वे भी हम पर भारी पड़ रहे हैं. कभी कहा जाता है कि चीनी पीछे हट रहे हैं और फिर कहा जाता है कि वे आगे बढ़ रहे हैं.’

थिमैया का कार्यकाल खत्म हो रहा था, लेकिन इसके बाद भी पर्दे के पीछे से रक्षा नीति का संचालन जारी था. सेना प्रमुख के लिए थिमैया की पसंद पूर्वी कमान के कमांडर लैफ्टिनेंट जनरल एसपीपी थोराट थे लेकिन इस पद पर पीएन थापर को नियुक्त कर दिया गया. थोराट सरकार के सामने एक दस्तावेज प्रस्तुत कर चुके थे जिसमें कहा गया था कि नॉर्थ ईस्ट फ्रंन्टियर एजेंसी (नेफा यानी अरुणाचल प्रदेश) के लिए हिमालय पर्वत श्रेणी पर प्रथम सुरक्षा पंक्ति बनाने के अलावा भारत को असम तक सुरक्षा व्यवस्था तगड़ी करनी चाहिए ताकि किसी हमले की स्थिति में बेहतर तरीके से तैयार रहे.

हमारा1960 में गोवा को मुक्त कराने के अभियान के दौरान एक विचित्र बात हुई. उस समय जनरल केपी कैंडिथ के नेतृत्व में सेना की 17वीं इन्फैंट्री डिवीजन को गोवा में घुसने का काम सौंपा गया था. सेना के नए चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस) लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल भी इस डिवीजन के साथ थे. कौल और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने दो अलग-अलग समयों पर अभियान शुरू करने का एलान किया. किसी भी दूसरी परिस्थिति में इसके परिणाम विनाशकारी होते लेकिन गोवा को भारतीय सेना ने आसानी से फतह कर लिया. इससे शीर्ष नेतृत्व को यह भ्रम हो गया कि बिना किसी खास तैयारी के भी सेना चीन से लोहा ले सकती है. कौल को प्रमोशन देकर जब लेफ्टिनेंट जनरल और उसके बाद चीफ ऑफ जनरल स्टाफ बनाया गया था तो इस पर काफी विवाद हुआ था. दरअसल वे राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों के करीब माने जाते थे और कहा जाता था कि उन्हें शीर्ष नेतृत्व के लायक अनुभव नहीं था.

इन सब घटनाक्रमों के बीच नेहरू ने 12 अक्टूबर, 1962 को बयान दिया कि उन्होंने भारतीय सेना को ‘चीनियों को बाहर निकाल फेंकने’ का आदेश दे दिया है. दिलचस्प है कि दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर यह बयान देते समय वे कोलंबो की यात्रा पर रवाना हो रहे थे.
इससे पहले आठ अक्टूबर को एक नई फोर्थ कोर का गठन किया गया था जिसका मुख्यालय असम के तेजपुर में था. इसका उद्देश्य था पूर्वोत्तर में सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करना. पहले ले. जनरल हरबख्श सिंह को इसका मुखिया बनाया गया मगर जल्द ही उन्हें 33 कोर की जिम्मेदारी देते हुए सिलीगुड़ी भेज दिया गया और इसके बाद उन्हें फिर वेस्टर्न कमांड का जिम्मा दे दिया गया. फोर्थ कोर की जिम्मेदारी कौल को दी गई. लेकिन ऐसा लगता था कि नई दिल्ली में अपने राजनीतिक संपर्कों की वजह से वे खुद का अधिकार क्षेत्र इस जिम्मेदारी से भी ऊपर समझते थे. इससे नेतृत्व से जुड़े विवाद और गहरा गए. कई बार ऐसा लगता था कि सब मुखिया हैं और कई बार ऐसा लगता था कि नेतृत्व गायब है.

इस बीच सैन्य सलाह के खिलाफ और जमीनी हकीकतों के प्रतिकूल नेहरू के आदेश का पालन करते हुए जॉन दलवी के नेतृत्व में एक ब्रिगेड को थाल्गा चोटी (जिसे चीन मैकमेहॉन रेखा से काफी आगे आकर अपना बता रहा था) के नीचे नमका चू नदी के पास तैनात कर दिया गया. एक बार कड़ा मुकाबला करने के बाद ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा और चीनी सेना 25 अक्टूबर को नीचे तवांग तक आ गई. नमका चू युद्ध के दौरान मैं भारत में नहीं था लेकिन उसके तुरंत बाद ही लौट आया था और आते ही मुझे युद्ध पर खबर करने के लिए बंबई से तेजपुर जाने को कहा गया. अब तक नेहरू इस बात से सहमत हो चुके थे कि चीनी मैदानों तक कब्जा करने के लिए दृढ़संकल्प हैं. सारा राष्ट्र उस वक्त उदासी और गुस्से में पूर्वानुमान लगा रहा था. लेकिन सिर्फ एक आदमी ने सही अनुमान लगाए और वे थे टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक स्वर्गीय एनजे नान्पोरिया. अपने एक संपादकीय में उन्होंने बारीकी से समझाते हुए यह तर्क दिया कि चीन आक्रमण के नहीं बल्कि शांतिपूर्ण समझौते और बातचीत के पक्ष में है और भारत को वार्ता करनी चाहिए. सबसे बुरा यही हो सकता है कि चीन भारत को सबक सिखाए और वापस लौट जाए. आलोचकों ने इस बात पर नान्पोरिया की हंसी उड़ाई. मुझे भी यही लगा कि वे कुछ ज्यादा ही सरल हो रहे हैं. लेकिन घटनाओं ने उन्हें बिल्कुल सही साबित किया.

24 अक्टूबर को चौएनली ने प्रस्ताव रखा कि दोनों पक्षों की सीमाएं 20-20 किलोमीटर पीछे हट जाएं. तीन दिन बाद नेहरू ने इस प्रस्ताव को और विस्तृत करके 40-60 किलोमीटर करने की मांग की. चार नवंबर को चो ने यह प्रस्ताव रखा कि चीन मैकमेहॉन रेखा को मानने को तैयार है यदि भारत लद्दाख में मैक डोनाल्ड रेखा को मान ले तो (और दिल्ली समर्थित जोहन्सन रेखा की मांग त्याग दे जो कि और ज्यादा उत्तर की ओर स्थित थी). तब तक मैं असम के तेजपुर पहुंच गया था. मैं प्लांटर्स क्लब में रह रहा था जो अब तक मीडिया का ठिकाना बन चुका था. सेना ने नेफा स्थित मोर्चों पर प्रेस के दौरे का प्रबंध कर दिया था. कई भारतीय और विदेशी पत्रकार और कैमरामैन वहां मौजूद थे. लेकिन इन मोर्चों पर हमने जो देखा उससे हम हैरत में पड़ गए. 15,000 फुट जैसी ऊंचाइयों पर तैनात जवान वहां हल््के स्वेटर और किरमिच के जूते पहने हुए थे, जबकि ऐसी ऊंचाई पर तो भयानक ठंड भी एक दुश्मन होती है. उनकी तैयारियां भी पर्याप्त नहीं थीं.

17 नवंबर को हम तेजपुर लौटे तो खबर मिली कि चीनी आगे बढ़ते ही जा रहे हैं. कई संवाददाता दिल्ली और कलकत्ता लौट गए ताकि अपने लेख और तस्वीरें ज्यादा सरलता से प्रकाशन के लिए भेज सकें. दरअसल खबरों को सेना द्वारा सेंसर किया जा रहा था और इसलिए उनके अखबार के दफ्तर पहुंचने में देर हो जाती थी. मुझे भी बाद में पता चला कि तेजपुर में तैनात प्रेस अधिकारी अपने पास आने वाली ढेर सारी खबरों को संभालने में अक्षम था और इसलिए मेरे द्वारा भेजी गई खबरों में से कुछ ही मेरे कार्यालय पहुंच सकीं और वह भी बुरी तरह से कटी हुईं.

18 नवंबर को खबर आई चीन ने ‘से ला’ को अपने कब्जे में ले लिया है. एक दिन बाद ही दुश्मन सेना अरुणाचल के कमेंग इलाके के पास हिमालय के निचले हिस्से में आ पहुंची. हमारे पक्ष में तब भी भ्रम की स्थिति बनी हुई थी.
19 नवंबर को कौल या किसी और ने फोर्थ कोर को वापस गुवाहटी लौटने के आदेश दे दिए. कहीं और से आदेश आ गया कि ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे तेजपुर को खाली कर दिया जाए. नुनमती रिफाइनरी को उड़ा दिया गया. जिला मजिस्ट्रेट ने अपनी पोस्ट छोड़ दी. छात्र जीवन के मेरे एक मित्र राणा केडीएन सिंह को तार-तार हो रही व्यवस्था का जिम्मा संभालने को कहा गया. उन्होंने शहर की घबराई हुई आबादी को किसी तरह स्टीमरों की सहायता से नदी के दक्षिणी किनारे पर शिफ्ट किया. जो लोग छूट गए या घाट पर देरी से पहुंचे, उन्हें जंगलों और चाय बागानों में ही छिपना पड़ा.

इससे एक दिन पहले भारतीय पत्रकार कस्बा छोड़ चुके थे. उन्होंने समाचार कवरेज से ज्यादा सुरक्षा को प्राथमिकता दी थी. नौ अमेरिकी और ब्रिटिश पत्रकारों के साथ तेजपुर में हम दो ही भारतीय पत्रकार बचे थे. एक मैं और दूसरे समाचार एजेंसी रॉयटर्स से जुड़े प्रेम प्रकाश. हमारे साथ वे 10-14 मनोरोगी भी भटक रहे थे जिन्हें स्थानीय मानसिक अस्पताल के कर्मचारियों ने वहीं छोड़ दिया था. वह मेरे जीवन की सबसे भयानक रात थी. तेजपुर एक भुतहा कस्बा लग रहा था. हम चांद की मध्यम रोशनी में किसी भी संकेत या आवाज की तलाश में चौकन्ने होकर गश्त कर रहे थे. भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी करेंसी चेस्ट (जिसमें बैंक की रकम रखी जाती है) जला दी थी. जले हुए नोट हवा में उड़ रहे थे और हमारे साथ घूमते मनोरोगी उनमें से कुछ में सुलगती चिंगारियों की पड़ताल कर रहे थे. कुछ आवारा कुत्ते और बिल्लियां वहां हमारे इकलौते साथी थे.

आधी रात का वक्त रहा होगा. हमारे साथियों में से एक के पास ट्रांजिस्टर भी था जो चल रहा था. अचानक पेकिंग (बीजिंग का तत्कालीन नाम) रेडियो से एक घोषणा हुई. इसमें चीनी सरकार ने युद्धविराम का एलान करते हुए कहा कि अगर भारतीय सेना आगे नहीं बढ़ी तो उसकी सेना ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ वाली पुरानी स्थिति में चली जाएगी जहां वह अक्टूबर से पहले थी. इस खबर ने थके हुए हम लोगों को काफी राहत दी. हम पुराने वीरान से प्लांटर्स क्लब में आराम करने चले गए. खुशकिस्मती से वहां टूना फिश और बीयर जैसी खाने-पीने की सामग्री मौजूद थी जिससे हमारा काम चल गया.

अगली सुबह, सारी दुनिया में यह खबर थी. लेकिन आकाशवाणी (एआईआर) की खबरों के मुताबिक हमारे बहादुर जवान अब भी दुश्मन से लड़ रहे थे, शायद किसी में इतना साहस ही नहीं हो पा रहा था कि वह नेहरू को जगाकर इस संबंध में उनसे आदेश ले पाता. यह खबर इतनी बड़ी थी कि इसे उनकी इजाजत के बिना नहीं लिखा जा सकता था. उन दिनों जनरल से लेकर जवानों तक  और अधिकारियों से लेकर मीडिया तक हर कोई यह जानने के लिए रेडियो पेकिंग ही सुना करता था कि हमारे देश में क्या हो रहा है.

1962 में हुई उस किरकिरी की वजह और कुछ नहीं, राजनीति ही थी. राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने जब सरकार पर भोलेपन और लापरवाही का आरोप लगाया तो उन्होंने एक तरह से यही कहा. खुद नेहरू ने भी यह स्वीकार किया. उनका कहना था, ‘हम हकीकत से दूर हो गए थे. . . हम एक कृत्रिम दुनिया में जी रहे थे जो हमने ही बनाई थी.’ यह अलग बात है कि इसके बावजूद उन्होंने कृष्ण मेनन को मंत्रिमंडल में बनाए रखा. मेनन तभी हटाए गए जब जनता के भारी गुस्से के चलते नेहरू को लगा कि खुद उनकी कुर्सी खतरे में आ गई है.नेहरू टूट चुके थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. अरुणाचल के कस्बे बोमडीला में पराजय के बाद उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को सैन्य सहायता के लिए जो खत लिखा था वह उनकी दयनीय दशा दिखाता है. उनको डर था कि अगर चीनियों को रोका नहीं गया तो वे समूचे पूर्वोत्तर पर कब्जा कर लेंगे. नेहरू का कहना था कि चीन सिक्किम से लगी चुंबी घाटी में सेना का जमाव कर रहा है. उन्हें वहां से भी भारत में घुसपैठ की आशंका थी. उधर, लद्दाख के चुशुल पर चीनियों का कब्जा हो जाता तो उन्हें लेह के पहले रोका नहीं जा सकता था. भारतीय वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था क्योंकि भारत के पास अपने आबादी वाले इलाकों की रक्षा के लिए पर्याप्त हवाई सुरक्षा नहीं थी. इसिलए नेहरू ने अपने पत्र में अमेरिका से अनुरोध किया था कि वह उनको हर मौसम में काम करने वाले सुपरसोनिक लड़ाकू विमानों के 12 स्क्वैड्रन और रडार कवर की सुविधा तुरंत मुहैया कराए. उनका कहना था कि इन सबकी कमान अमेरिकी जवानों के हाथ में हो. कोई नहीं जानता कि नेहरू ने किन सूचनाओं के आधार पर कैनेडी को पत्र लिखा. निश्चित रूप से वह गुटनिरपेक्षता तार-तार हो गई थी जिसके वे सबसे बड़े पैरोकार थे.

तेजपुर में धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर लौट रही थी. 21 नवंबर को तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इलाके के लोगों को आश्वस्त करने के लिए वहां की हवाई यात्रा की. अगले दिन इंदिरा गांधी भी वहां की यात्रा पर आईं. इस बीच नेहरू ने राष्ट्र के नाम संबोधन भी दिया. उन्होने खास तौर पर असम के लोगों को संबोधित किया. उन्होंने कहा कि परीक्षा की इस भयंकर घड़ी में असम के लोगों से उनको गहरी सहानुभूति है. उन्होंने वादा किया कि संघर्ष जारी रहेगा. यह अलग बात है कि असम के लोगों में यह भाषण कोई उत्साह नहीं जगा पाया. कई तो आज भी कहते हैं कि नेहरू ने तो उन्हें विदाई ही दे दी थी.

मैं एक महीने तक तेजपुर में रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि प्रशासन बोमडीला लौटेगा. ऐसा क्रिसमस के ठीक पहले एक राजनीतिक अधिकारी (डीएम) मेजर केसी जौहरी के नेतृत्व में हुआ. मैं उनके साथ हो लिया. नेफा के लोग एकजुट होकर भारत के साथ खड़े रहे थे और जौहरी का उन्होंने जोश के साथ स्वागत किया. इस दौरान कई चीजें भारत के पक्ष में रही थीं. भूमिगत नगा विद्रोहियों ने भारत की इस पस्त स्थिति का फायदा नहीं उठाया था. उधर, पाकिस्तान को ईरान और अमेरिका ने कहा था कि वह भारत की इस हालत को अपने फायदे के लिए न इस्तेमाल करे और उसने अपनी बात रखी. हालांकि उसने बाद में चीन के साथ नया रिश्ता कायम कर लिया. पश्चिमी जगत और अमेरिका को भारत के साथ सहानुभूति थी, लेकिन उस दौरान अमेरिका पहले से ही चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच बढ़ते मतभेद और क्यूबाई मिसाइल संकट में उलझा हुआ था.

सीओएएस जनरल चौधरी ने इस हार की आंतरिक जांच के आदेश मेजर जनरल हेंडरसन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर पीएस भगत को दिए. हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट आज भी एक अत्यंत गोपनीय क्लासिफाइड दस्तावेज है, हालांकि उसके कुछ हिस्से नेविल्ले मैक्सवेल ने प्रकाशित किए थे जो 1960 के दशक में भारत में लंदन के अखबार द टाइम के संवाददाता थे. उनकी रिपोर्ट का लब्बोलुआब यही था कि राजनीतिक नौसिखिएपन और अंदरूनी गुटबाजियों की वजह से भारत को योजना और कमान के मोर्चे पर असफलताएं हाथ लगीं. मेरा मानना है कि हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट में ऐसी कोई बात नहीं है जिसे गोपनीय रखे जाने की जरूरत हो. राजनीतिक और सैन्य स्तर पर हुई गलतियों को छिपाकर कौन-सा मकसद हल होने वाला है? जब तक देश उसके बारे में जानेगा नहीं तब तक वह सही सबक नहीं सीख पाएगा.

जैसे भारत ने अब तक यह सबक नहीं सीखा कि सीमा रेखा से ज्यादा सीमा पर बसा इलाका महत्वपूर्ण होता है. इसका नतीजा यह है कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तरी असम में अभी तक विकास कार्यों की अनदेखी जारी है. दरअसल भारत को यह डर है कि कहीं इससे भड़ककर चीन एक बार फिर चढ़ाई न कर दे. हालांकि अब जो वैश्विक समीकरण हैं उनको देखते हुए यह मुमकिन नहीं लगता कि 1962 की स्थिति फिर आ सकती है. तब से कई लोग 1962 में क्या हुआ था, इसके बारे में अपनी-अपनी तरह से बता चुके हैं. हरेक की अपनी कहानी है. लेकिन 1962 की लड़ाई में हमने जो कुछ भी खोया उसमें सच्चाई सबसे महत्वपूर्ण चीज थी.

(बीजी वर्गीज द टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक और युद्ध संवाददाता रहे हैं)