मंजिल की राह हुई मुश्किल

पंजाब की राजनीति में पिछले कुछ विधानसभा चुनावों से देखा जा रहा है कि कांग्रेस और शिरोमणी अकाली दल व भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के बीच सत्ता की अदला-बदली हो रही है. इस हिसाब से अगर देखें तो 2012 में बारी कांग्रेस की है. राज्य की अकाली दल और भाजपा की मौजूदा सरकार को लेकर सूबे के लोगों में थोड़ा गुस्सा भी है. दो महीने पहले तक यह लग रहा था कि कांग्रेस आसानी से एक बार फिर प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो जाएगी. इसकी वजय यह थी कि उस समय अकाली दल-भाजपा सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी हुई थी और प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत सिंह बादल (देखें साक्षात्कार) अकाली दल से अलग होकर पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब (पीपीपी) के जरिए अकालियों का वोट काटते दिख रहे थे. लग रहा था कि मनप्रीत पंजाब की राजनीति में जो तीसरा कोण जोड़ रहे हैं उसका सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को होगा.

लेकिन अब ये स्थितियां नहीं हैं. क्लीन स्वीप की संभावना के साथ चुनाव की तैयारियों में जुटी कांग्रेस के लिए अब अपने बूते बहुमत पाना भी मुश्किल दिख रहा है. इसके लिए अकाली दल, भाजपा और पीपीपी की तरफ से की गई कोशिशों से कहीं अधिक जिम्मेदार कांग्रेस की अपनी गलतियां हैं. पंजाब की राजनीति को जानने-समझने वाले लोग और खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों का मानना है कि उम्मीदवारों के चयन में कांग्रेस ने जो गलतियां की हैं उससे क्लीन स्वीप की दावेदार इस पार्टी ने पंजाब चुनाव को बराबरी के टक्कर में तब्दील कर दिया है.

पंजाब विधानसभा में कुल 117 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए किसी भी दल या गठबंधन को 59 सीटें चाहिए. पिछले चुनावों में अकाली-भाजपा गठबंधन को 67 सीटें मिली थीं और उनकी सरकार प्रकाश सिंह बादल की अगुवाई में बन गई थी. सत्ता से बेदखल होने वाली कांग्रेस को जहां 44 सीटों से संतोष करना पड़ा था वहीं स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव जीतने वालों की संख्या छह थी. लेकिन इस बार राज्य में जो सियासी त्रिकोण बन रहा है उसमें 59 का जादुई आंकड़ा छूना अभी किसी भी राजनीतिक पक्ष के लिए आसान नहीं लग रहा. हालांकि, ओपीनियन पोल कांग्रेस को सत्ता के करीब दिखा रहे हैं. सर्वेक्षण एजेंसी सी-वोटर का ओपिनियन पोल बताता है कि कांग्रेस को 61 सीटें यानी पूर्ण बहुमत मिलने की संभावना है. वहीं अकाली दल को 40 और भाजपा को छह सीटें मिल सकती हैं. जबकि मनप्रीत बादल को छह सीटें मिल सकती हैं और अन्य को चार सीटें. यह पोल कांग्रेस की राह को जितना आसान बता रहा है, स्थितियां उतनी आसान हैं नहीं. अगर इस पोल की ही मानें तो कांग्रेस एक ऐसे मुहाने पर है जहां थोड़ी-सी गड़बड़ भी उसे 59 के जादुई आंकड़े के नीचे ला सकती है.

हालांकि, पंजाब में कांग्रेस के अभियान की अगुवाई कर रहे प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह यह दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी इस चुनाव में जीतेगी. चंडीगढ़ में आयोजित एक प्रेस वार्ता के वक्त ‘तहलका’ के एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘हमारी पार्टी 70 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगी. शिरोमणी अकाली दल और भाजपा का असली चेहरा राज्य के लोग देख चुके हैं. इस बार पंजाब की जनता हमारे साथ है.’ पंजाब की राजनीति को जानने-समझने वाले कई लोगों से बातचीत करने के बाद यह पता चला कि अमरिंदर सिंह जो बात कह रहे हैं, उनकी पार्टी वैसा प्रदर्शन करने के करीब दो महीने पहले जरूर थी लेकिन अब नहीं है. कारण बताते हुए पंजाब कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री कहते हैं, ‘एक तो मनप्रीत बादल की वजह से धर्मनिरपेक्ष वोटों का बंटवारा हो रहा है क्योंकि पीपीपी की नीतियां सेकुलर हैं और ये नीतियां खास तौर पर युवा वर्ग को खासा आकर्षित कर रही हैं.’ दूसरी वजह बताते हुए वे कहते हैं कि 1952 से लेकर अब तक के चुनाव में कांग्रेस में टिकट बंटवारे के बाद इतने बागी नहीं खड़े हुए जितने इस बार खड़े हैं. उनके मुताबिक इस बार करीब 40 सीटें ऐसी हैं जिन पर कांग्रेस के बागी उम्मीदवार खड़े हैं. इनमें से कोई भी अपना नाम वापस लेने को तैयार नहीं है.

बगावत खत्म करने के लिए गठित कांग्रेसी समिति में कोई वरिष्ठ नेता नहीं है, इसलिए कोई इसे भाव नहीं दे रहा है

वैसे कांग्रेस ने अपने बागियों को मनाने के लिए एक तीन सदस्यीय समिति बनाई है. इस समिति में रमेश चंद्रा, अमेंद्र सिंह लिमड़ा और जगजीवन सिंह पाल शामिल हैं. यह समिति कितनी हल्की है इस बात का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि इन तीनों में से सिर्फ रमेश चंद्रा ही विधायक रहे हैं बाकी के दो तो अब तक कभी विधायक भी नहीं बने. यही वजह है कि कांग्रेस का कोई भी बागी उम्मीदवार इनकी बात मानकर अपना नाम वापस लेने के लिए तैयार नहीं है. चंडीगढ़ में पंजाब प्रदेश कांग्रेस समिति के कार्यालय में तो पार्टी के नेता आपसी हंसी-मजाक में इस समिति को कुछ वैसा ही बता रहे हैं जैसे किसी बात पर प्रणव मुखर्जी को मनाने के लिए सांसद के चुनाव में हारे हुए किसी व्यक्ति को भेज दिया जाए.

सूबे के प्रशासनिक हलकों में भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस की यदि संभावनाएं कमजोर हुई हैं तो इसके लिए उसके अपने फैसले ही जिम्मेदार हैं. राज्य में काम कर रही खुफिया एजेंसियों ने भी एक सर्वेक्षण किया है. इसके मुताबिक अकाली दल-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस दोनों को 45 से 50 सीटें मिलने की उम्मीद है. इस गोपनीय रिपोर्ट में कहा गया है कि मनप्रीत सिंह बादल की पीपीपी को नौ-दस सीटें मिल सकती हैं. इसमें यह भी कहा गया है कि तकरीबन 20 सीटों पर अभी स्थिति साफ नहीं है और इस पर उम्मीदवारों की अंतिम स्थिति के हिसाब से ही कोई नतीजा निकाला जा सकता है. पंजाब में काम कर रही खुफिया सरकारी एजेंसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने ‘तहलका’ से अपने सर्वेक्षण के नतीजों को साझा करते हुए बताया कि सूबे में कांग्रेस की हालत अच्छी थी लेकिन उम्मीदवारों के चयन में इस पार्टी ने गलती करके राज्य में चुनाव को कांटे का बना दिया है. इस अधिकारी ने बताया, ‘हमारा आकलन यह कहता है कि कांग्रेस ने 17 से 20 ऐसे लोगों को टिकट दिए हैं जो किसी भी कीमत पर नहीं जीत सकते. वहीं अकाली दल, भाजपा और पीपीपी की कुछ सीटें निश्चित हैं. इनकी संख्या भी 18 से 20 के बीच है. ऐसे देखा जाए तो 80 से 82 सीटें ऐसी बचती हैं जहां से कांग्रेस को 59 सीटें निकालनी हैं तब जाकर उसकी सरकार बन पाएगी. कई सीटों पर बागियों की मौजूदगी और पीपीपी की चुनौती की वजह से कांग्रेस के लिए 59 का जादुई आंकड़ा छूना आसान नहीं है.’

जिन सीटों पर कांग्रेस के बागी उम्मीदवार लड़ रहे हैं उनमें से मोहाली, जलालाबाद, धर्मकोट, बरनाला, पठानकोट, जालंधर कैंट, अमरगढ़, फतेहगढ़ साहिब, अमृतसर सेंटल, सुनाम, कोटकपुरा, डेराबस्सी, अमलोह, बठिंडा शहर, मौड़ मंडी, मानसा, बलाचौर और भदौड़ प्रमुख हैं. खुद अमरिंदर सिंह के भाई मलविंदर सिंह बागी होकर अकाली दल में शामिल हो गए हैं. वे समाना से टिकट मांग रहे थे जहां से कांग्रेस ने अमरिंदर सिंह के बेटे रणइंदर सिंह को टिकट दिया है. राज्य के दोआबा और माझा क्षेत्र में भी टिकटों में बंटवारे से असंतोष है. जालंधर में 13 कांग्रेस पार्षदों ने एकजुट होकर पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.

ऐसा नहीं है कि अकाली दल में बागी नहीं हैं लेकिन उन्हें मनाने के लिए पार्टी का शीर्ष नेतृत्व प्रयासरत है. अकाली दल के बागी जरनैल सिंह औलख रोपड़ से निर्दलीय किस्मत आजमा रहे हैं. वहीं लुधियाना पश्चिम से जतिंदर पाल सिंह सलूजा, लुधियाना पूर्व से ईश्वर सिंह और लुधियाना मध्य से रविंदर पाल सिंह खालसा अकाली दल के बागी के तौर पर मैदान में हैं. कांग्रेस के ही एक नेता ने बताया कि अकाली दल के बागियों को मनाने के लिए खुद मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल उनके घर जा रहे हैं. यही वजह है कि मोहाली सीट पर बगावत का बिगुल फूंकने वाले बब्बी बादल अब अकाली दल के आधिकारिक उम्मीदवार बलवंत सिंह रामूवालिया के लिए चुनाव प्रचार करने लगे हैं. इस नेता ने बताया कि कांग्रेस के बागी यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि महाराजा यानी कैप्टन अमरिंदर सिंह उन्हें मनाने आएंगे लेकिन यह महाराजा के स्वभाव के उलट है इसलिए पार्टी में बगावत की आग ठंडी पड़ती नहीं दिख रही और कोई भी बागी नाम वापस लेने के लिए तैयार नहीं है.

कांग्रेस की सरकारों में मंत्री रहे और अभी प्रदेश कांग्रेस समिति में अहम जिम्मेदारी संभाल रहे एक नेता ने तहलका से बातचीत में माना कि सत्ता विरोधी लहर का नुकसान सिर्फ अकाली दल और भाजपा को ही नहीं होगा बल्कि कांग्रेस को भी इसका नुकसान उठाना पड़ेगा. वे कहते हैं, ‘पंजाब मुख्यतः तीन हिस्सों में बंटा हुआ है. ये हैं- मालवा, दोआबा और माझा. पिछले यानी 2007 के चुनावों में कांग्रेस ने मालवा में क्लीन स्वीप किया था. लेकिन इस बार यहां के लोगों में गुस्सा है. स्थानीय विधायकों से लोगों की नाराजगी है. इसलिए संभव है कि कांग्रेस को इस बार इस क्षेत्र में दिक्कत हो.’ मालवा में डेरा सच्चा सौदा का ढुलमुल रवैया भी कांग्रेस की परेशानी को बढ़ाने का काम कर रहा है. लंबे समय से पंजाब में राजनीतिक रिपोर्टिंग कर रहे संजीव पांडेय कहते हैं, ‘2007 में डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह ने बाकायदा प्रेस वार्ता आयोजित करके कांग्रेस का समर्थन करने की अपील की थी. इस वजह से कांग्रेस को इस क्षेत्र में जबर्दस्त सफलता मिली थी.

डेरा का संगरुर, बठिंडा, बरनाला, फरीदकोट और बांसा में व्यापक जनाधार है. इस चुनाव में डेरा ने किसी दल को समर्थन देने की बजाय उम्मीदवार आधारित समर्थन देने की रणनीति अपनाई है ताकि किसी की भी सरकार बनने की हालत में स्थितियां उनके अनुकूल रहें.’ कहा जाता है कि पिछले चुनाव में कांग्रेस का समर्थन करने की वजह से डेरा अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार के निशाने पर आ गई थी और प्रदेश सरकार ने कई जगह छापे मरवाए थे. 2009 के लोकसभा चुनावों में डेरा ने सुखबीर सिंह बादल से समझौता करके उनकी पत्नी हरसिमरत कौर बादल को बठिंडा से जिताने का रास्ता साफ किया. इसके बाद बादल सरकार द्वारा बंद करवाए गए डेरा के ‘नाम चर्चा घर’ अचानक एक-एक कर खुलने लगे.

कांग्रेस और अकाली दल के बीच कांटे की टक्कर में सरकार बनाने की चाबी मनप्रीत के पास रह सकती है

इस बार का चुनाव कई बातों से मुद्दाविहीन चुनाव में तब्दील होता जा रहा है. इस बारे में चंडीगढ़ में रह रहे एक पूर्व केंद्रीय मंत्री तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार के खिलाफ महीने भर पहले तक लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप अब गौण होते जा रहे हैं. अब यहां सिर्फ इस बात की चर्चा हो रही है कि किसका रिश्तेदार कहां से चुनाव लड़ रहा है और कहां से कौन बागी उम्मीदवार मैदान में है.’ उनका मानना है कि अकाली दल और भाजपा भी केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने में नाकाम रहे हैं. हालांकि, जानकार यह जरूर बता रहे हैं कि पिछले कुछ हफ्तों में भाजपा ने खुद को काफी संभाला है. पिछले चुनाव में 19 सीटें जीतने वाली भाजपा के बारे में अनुमान लगाया जा रहा था कि इसकी सीटें काफी घट जाएंगी, लेकिन खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का विरोध करके भाजपा ने कारोबारी वर्ग के शहरी मतदाताओं को अपने साथ जोड़ा है. भाजपा ने इन लोगों के मन में यह बात बैठाने में कामयाबी हासिल की है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो केंद्र सरकार विदेशी निवेश की गाड़ी तेजी से आगे बढ़ाएगी.

पंजाब की राजनीति इस बार अदला-बदली फाॅर्मूले से थोड़ा अलग हटकर त्रिकोणीय संघर्ष में तब्दील हो गई है. इसमें तीसरा पक्ष है साझा मोर्चा. इस मोर्चे की अगुवाई मनप्रीत सिंह बादल की पीपीपी कर रही है और इसके तहत वाम दल भी राज्य में तीसरा विकल्प विकसित करने के लिए जोर लगा रहे हैं. इसका नुकसान अकाली दल व भाजपा गठबंधन के साथ-साथ कांग्रेस को भी हो रहा है. पांडेय मानते हैं कि मनप्रीत की वजह से कांग्रेस की राजनीति भी प्रभावित हो रही है. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस ने मनप्रीत के प्रभाव को रोकने के लिए उनके खास दो सहयोगी कुशलदीप ढिल्लों और जगवीर सिंह बराड़ को तोड़ा क्योंकि मनप्रीत कई जगहों पर कांग्रेस के वोटों का नुकसान कर रहे है.’ अकाली दल की संभावनाओं पर पीपीपी के असर के बारे में वे कहते हैं, ‘मनप्रीत ने लंबी विधानसभा क्षेत्र में अपने चाचा प्रकाश सिंह बादल के खिलाफ अपने पिता गुरदास बादल को खड़ा कर दिया है.

उल्लेखनीय है कि अब तक के चुनावों में प्रकाश सिंह बादल के चुनाव क्षेत्र में प्रचार और प्रबंधन की कमान गुरदास बादल ही संभालते थे. इसलिए लोग यह मान रहे हैं कि प्रकाश सिंह बादल हारेंगे तो नहीं लेकिन उनके लिए जीत उतनी आसान नहीं रहेगी जितनी गुरदास बादल के रहते होती थी. कई ऐसी सीटें हैं जहां मनप्रीत अकाली दल व भाजपा के वोटों में बिखराव की वजह भी बनेंगे.’ विधानसभा के चुनावी मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के लिए कांग्रेस और अकाली दल में टिकटों के बंटवारे के बाद हुई बगावत भी जिम्मेदार है क्योंकि इन दोनों पार्टियों के बागी न सिर्फ स्वतंत्र तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं बल्कि कई पीपीपी में शामिल होकर मनप्रीत बादल की पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं. इसलिए कई सीटें ऐसी हो गई हैं जहां मुकाबला पार्टी आधारित न होकर उम्मीदवार आधारित हो गया है और इस वजह से पीपीपी की संभावनाओं को थोड़ी मजबूती और मिली है.

पंजाब की राजनीति समझने वाले लोगों का अनुमान है कि कांग्रेस और भाजपा-अकाली गठबंधन के बीच कांटे की टक्कर में नई सरकार बनाने की चाबी मनप्रीत सिंह बादल के पास रहेगी. मनप्रीत सिंह बादल तहलका को बताते हैं कि ऐसे में वे किसी के साथ सियासी सौदा करने की बजाय दोबारा चुनाव की मांग करेंगे. हालांकि, जानकारों का मानना है कि मनप्रीत की पार्टी के विधायक सत्ता से दूर रहने का बोझ नहीं उठा सकते क्योंकि वे किसी बड़ी पार्टी से नहीं हैं इसलिए खर्च का बोझ उन पर रहेगा. इसलिए कहा जा रहा है कि मनप्रीत को किसी न किसी के साथ तो आना पड़ेगा. बादल परिवार से जुड़े रहे एक खास व्यक्ति बताते हैं कि प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल के साथ मनप्रीत सिंह बादल को व्यक्तिगत समस्याएं हैं इसलिए उनके कांग्रेस के साथ जाने की ज्यादा संभावना है. नीतियों के मसले पर भी मनप्रीत कांग्रेस के ज्यादा करीब लगते हैं. कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं से उनकी नजदीकी भी उन्हें त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में कांग्रेस के करीब लाने की संभावना को बल देती है.