बंटवारा या बंटाधार?

देश के कई हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों राज्य के बंटवारे की फिजा गरमाई हुई है. लेकिन यहां की परिस्थितियां अन्य प्रदेशों से भिन्न हैं. यहां कोई बड़ा भावनात्मक जनउभार नहीं है. बाकी क्षेत्रों में जहां जनता सड़कों पर है वहीं उत्तर प्रदेश में सिर्फ नेता और राजनीतिक पार्टियां ही बंटवारे की लड़ाई लड़ रहे हैं. वीरेंद्रनाथ भट्ट का आकलन

पूरे प्रदेश में नए राज्य के लिए न कहीं धरना हो रहा है न प्रदर्शन न ही अनशन. फिर भी उत्तर प्रदेश को बांटने का प्रस्ताव यहां की विधानसभा ने पारित कर दिया है. इतने महत्वपूर्ण फैसले पर विधानसभा में कोई बहस तक नहीं हुई और मात्र तीन मिनट में ही बंटवारे का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. यह उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति की बानगी है जिसने हवा में प्रदेश को बांटने का मुद्दा खड़ा किया है. विपक्ष का आरोप है कि मायावती ने अपने पांच वर्ष के कुशासन, भ्रष्टाचार और ध्वस्त कानून-व्यवस्था से जनता का ध्यान बांटनेे की नीयत से राज्य के बंटवारे का खेल खेला है.
विपक्ष मायावती पर सीधा हमला करने की बजाए बंटवारे के तौर-तरीकों पर सवाल उठा रहा है. कांग्रेस और भाजपा इस प्रस्ताव का सीधा विरोध करने से बचते हुए राज्य पुनर्गठन आयोग बनाने की मांग कर रहे हैं.

राजनीति के कई जानकारों का पहली नजर में एक ही मत सामने आता है कि राज्य बंटवारे का प्रस्ताव जिस अफरा-तफरी में पारित किया गया है उसके पीछे मुख्यमंत्री मायावती की मंशा वह नहीं है जो ऊपर से दिखती हैै. प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव का कहना है कि राज्य का बंटवारा भ्रष्टाचार और कुशासन का विकल्प नहीं हो सकता. यदि बसपा को प्रदेश के विकास व जनता की भलाई की ही चिंता है तो उसे राजनीतिक, प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए ताकि व्यवस्था पारदर्शी व जनता के प्रति उत्तरदायी बने. इस लिहाज से बंटवारे का यह शिगूफा सरकार की अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक अक्षमता पर परदा डालने की कोशिश में उठाया गया कदम है.

अक्टूबर, 2007 में कांशीराम की पहली पुण्यतिथि के मौके पर लखनऊ में एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए मायावती ने पहली बार उत्तर प्रदेश के बंटवारे का जिक्र किया था. लेकिन तब उन्होंने एक शर्त रखी थी कि उनकी सरकार उत्तर प्रदेश विधानसभा में राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव पारित कर सकती है बशर्ते केंद्र सरकार इस संबंध में अपनी सहमति दे दे. लेकिन 21 नवंबर को विधानसभा से प्रस्ताव पास कराने के दौरान मायावती ने यह नहीं बताया कि क्या केंद्र सरकार ने उनके प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी है या वह संसद में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन संबंधी आयोग बनाने पर सहमत है.विधानसभा में प्रस्ताव पेश करने के दौरान मायावती ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन में राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है. इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य की विपक्षी पार्टियों को एकमत होना पड़ेगा.’ इस तरह से मायावती ने एक साथ कांग्रेस और सपा दोनों के पाले में गेंद डालकर चुनावी लाभ लेने की कोशिश की और विरोध करने की हालत में सपा और कांग्रेस की फजीहत होने की जमीन भी तैयार कर दी है.

यह सभी को पता है कि नया राज्य बनाने के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पास कराना राज्य सरकार की संवैधानिक बाध्यता नहीं है. राज्य के गठन का अधिकार संविधान में सिर्फ केंद्र सरकार को दिया गया है. ऐसे में मायावती के प्रस्ताव की चुनावी लाभ के इतर और क्या मंशा हो सकती है? और यदि उनकी नीयत साफ है तो जिस केंद्र सरकार को वे हर आंधी-पानी से बचाती आई हैं उस पर पांच साल में राज्य के पुनर्गठन का दबाव उन्होंने क्यों नहीं डाला? खैर प्रस्ताव पारित करवाने के साथ ही मायावती ने साफ कर दिया कि भाजपा, सपा व कांग्रेस उत्तर प्रदेश के विभाजन के खिलाफ हैं, ये सभी पार्टियां उत्तर प्रदेश और यहां की जनता का विकास होते हुए नहीं देखना चाहतीं.

राज्य के गठन का अधिकार संविधान में सिर्फ केंद्र सरकार को है. ऐसे में मायावती के प्रस्ताव की चुनावी लाभ के इतर क्या मंशा हो सकती है?

इधर बंटवारे का प्रस्ताव आने से उनकी अपनी पार्टी में थोड़ा सुकून का माहौल दिखा है. पिछले लगभग हर हफ्ते लोकायुक्त द्वारा बसपा मंत्री और विधायकों को भ्रष्टाचार संबंधी नोटिस दिए जाने से परेशान बसपा नेता बंटवारे के शिगूफे के बाद कुछ आश्वस्त नजर आ रहे हैं. बसपाइयों का मानना है कि बहन जी ने बंटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में पास करा कर बसपा के विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया है.

हालांकि बसपा बंटवारे को राजनीतिक लाभ का मुद्दा न मानकर विचारधारा का सवाल मानती है. उसके मुताबिक बाबा साहब अंबेडकर ने 1955 में उत्तर प्रदेश को तीन राज्यों में बांटने का सुझाव दिया था लेकिन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों के कारण इसे नकार दिया था. वैचारिकता के तर्क को खारिज करते हुए राजनीतिक टीकाकार डॉ प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘डाॅ अंबेडकर ने यह कब कहा था कि नए राज्यों के गठन का एलान ऐन चुनाव से पहले करो. यदि बसपा डॉ अंबेडकर की नीतियों और विचारों में इतनी ही गहरी आस्था रखती है तो उसे मूर्तियों, पार्कों व स्मारकों पर पांच साल लुटाने से पहले उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन का काम ही करना चाहिए था.’ उनका यह भी कहना है कि उत्तर प्रदेश में मायावती के पिछले पांच साल के कारनामों को देखते हुए कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि राज्य के बंटवारे से जनता का हित होगा.

मगर राजनीतिक लाभ की बातों को खारिज करते हुए जेएनयू के अध्यापक डॉ विवेक कुमार पूछते हैं, ‘1955 में राज्यों के पुनर्गठन का आधार क्या था? औपनिवेशिक मानसिकता वाले तत्कालीन सत्ताधीशों ने मनमाने तरीके से राज्य बना दिए. पुनर्गठन के नाम पर नवाब, अवध के ताल्लुकेदार, पश्चिम के रूहेले, बुंदेलखंड के बुंदेले, जमींदारों और रैयतवारों सभी को एक राज्य में ठूंस दिया गया.’ डॉ कुमार उत्तर प्रदेश के वर्तमान स्वरूप को कांग्रेस के हितों का पोषक मानते हैं. उनके मुताबिक तीन पहाड़ी ब्राह्मणों – गोविंद बल्लभ पंत, नारायण दत्त तिवारी और हेमवती नंदन बहुगुणा – को कांग्रेस ने इतनी विविधताओं वाले राज्य के ऊपर थोप दिया जिसका खामियाजा प्रदेश आज भुगत रहा है.

राज्य के बंटवारे के समर्थकों के अपने तर्क हैं. गिरी विकास अध्ययन संस्थान के निदेशक डॉ एके सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश को एक दिन तो बंटना ही है, चाहे आज हो या पांच साल बाद. उत्तर प्रदेश बेडौल है, इसका बंटवारा होना चाहिए, यह अहसास पं जवाहर लाल नेहरू को भी था लेकिन कांग्रेस ने अपने तात्कालिक हितों के चलते इसे नहीं होने दिया. 1955 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग के सदस्य पणिक्कर ने तो विरोध में मत भी दिया था. वे उत्तर प्रदेश के तीन हिस्सों के बंटवारे के पक्ष में थे.’

मगर नए राज्यों के गठन का आर्थिक पहलू भी है. नई सरकारों पर जबरदस्त वित्तीय बोझ आएगा जिसका खामियाजा अंततः जनता को भुगतना पड़ेगा. डाॅ सिंह का कहना है कि यह बड़ा मुद्दा नहीं है. यदि वर्तमान इलाहाबाद हाई कोर्ट में 140 जज हैं तो बंटवारे के बाद प्रत्येक राज्य में 35 जज आएंगे. थोड़ा-बहुत खर्च बढ़ता है तो यह बेजा नहीं होगा.

लेकिन सिंह के तर्क पूर्व में कई बार धराशायी हो चुके हैं. उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड के बंटवारे के दौरान भी प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के आनुपातिक बंटवारे का प्रावधान था लेकिन उत्तराखंड सरकार ने उत्तर प्रदेश के कर्मियों को अपने यहां समायोजित करने से इनकार करके नए कर्मचारी नियुक्त किए. प्रशासनिक सेवा में भी नए लोगों की भर्ती हुई. ऐसा इसलिए हुआ कि राज्य सरकार की अपनी राजनीतिक मजबूरी है. नियुक्तियों और तबादलों का अर्थशास्त्र भी इसका बड़ा कारक रहा था. नतीजा आज भी उत्तर प्रदेश के कई विभागों में जरूरत से ज्यादा अधिकारी हैं और उत्तराखंड में धड़ाधड़ नई नियुक्तियां हो रही हैं. यही समस्या बिहार और झारखंड के संदर्भ में भी खड़ी हुई थी.

वर्तमान उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में कुल आबादी का 37 प्रतिशत निवास करता है. पूर्वांचल का हिस्सा 40 प्रतिशत है व मध्य में 18 प्रतिशत आबादी है जबकि बुंदेलखंड में मात्र 5 प्रतिशत लोग आते हैं. मजे की बात है कि बंटवारे के बाद बुंदेलखंड के अलावा बाकी तीनों क्षेत्रों के आर्थिक रूप से सक्षम, समृद्ध व आत्मनिर्भर होने की संभावना है. मगर जमीनी हालत यह हैं कि इन तीनों ही क्षेत्रों में बंटवारे को लेकर कोई जनांदोलन नहीं है. ले-देकर बुंदेलखंड में आंदोलन की सुगबुगाहट रहती है लेकिन उसमें भी अगर मध्य प्रदेश के हिस्से वाला बुंदेलखंड शामिल नहीं हुआ तो अलग बुंदेलखंंड बनने-न बनने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.

खनिज संपदा से संपन्न झारखंड या फिर गोवा जैसे छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता और विराट भ्रष्टाचार के उदाहरण हमारे सामने हैं. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा तो काफी अरसे से जेल में भी हैं और राज्य अभी भी अस्थिरता के कुचक्र से बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है.
जानकारों का यह भी मानना है कि बंटवारे से उत्तर प्रदेश की देश की राजनीति में हैसियत कम हो जाने के सवाल को यदि दरकिनार कर भी दें तो भी यह सवाल तो बना ही रहेगा कि अगर कोई हिस्सा पिछड़ा और अविकसित है तो उसके लिए जिम्मेदार हमारा अक्षम राजनीतिक नेतृत्व और नकारा प्रशासनिक मशीनरी ही तो है. राज्य का चार हिस्सों में बंटवारा इसका हल कैसे हो सकता है.

राज्य के पिछड़े इलाकों के विकास की भरपाई केवल बंटवारे का चलन शुरू करके नहीं की जा सकती. इसे शुरू करना आसान है लेकिन रोकना मुश्किल. इस तरह की क्षणिक अवसरवादिता का अंत कहां होता है? कम से कम मायावती जी को तो नहीं पता है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here