फांसी का जश्न

मुंबई पर 26/11 के आतंकवादी हमले के दोषी अजमल कसाब को आखिरकार फांसी पर चढ़ा दिया गया. निश्चय ही, यह एक बड़ी खबर थी और उसकी विस्तृत कवरेज की उम्मीद थी. लेकिन न्यूज चैनलों और अखबारों ने उसे सिर्फ खबर भर नहीं रहने दिया और न ही उसे एक बड़ी खबर की तरह तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित तरीके से कवर किया. इसके उलट कसाब को फांसी की जैसी अतिरेकपूर्ण और भावनात्मक विस्फोट से भरी कवरेज की गई, उससे ऐसा लगा कि जैसे देश ने कोई युद्ध जीत लिया हो. कसाब को फांसी की खबर चैनलों/अखबारों पर राष्ट्रीय जश्न और देशभक्ति के खुले इजहार के मौके में बदल गई.

लेकिन कसाब की फांसी की कवरेज में भावनाओं के उद्वेग और उन्माद में तथ्य और तर्क के साथ-साथ संतुलन और अनुपात बोध भी किनारे कर दिए गए. यूपीए सरकार के फैसले पर कई जरूरी सवाल नहीं पूछे गए, कई तथ्यों को अनदेखा कर दिया गया और उसकी जगह उन्मादपूर्ण जश्न ने ले ली. हालांकि न्यूज चैनल तो ऐसे भावुक और अतार्किक कवरेज के लिए पहले से बदनाम रहे हैं लेकिन इस बार अखबार भी देशभक्ति के प्रदर्शन में होड़ करते नजर आए. किसी फांसी पर समाचार माध्यमों में ऐसा सार्वजनिक जश्न हैरान करने वाला था. देश के सबसे बड़े समाचार समूह के संपादक पर देशभक्ति का ऐसा दौरा पड़ा कि उन्होंने पहले पृष्ठ पर ‘21/11 वंदे मातरम’ शीर्षक से जोशीला, शौर्यपूर्ण और लगभग युद्धगान करता संपादकीय लिख डाला.

ऐसा लगा जैसे अखबारों/चैनलों का वश चलता तो वे सार्वजनिक तौर पर किसी चौराहे पर कसाब को फांसी पर लटका देते. उन्हें फांसी की लाइव कवरेज न दिखा पाना जरूर खल रहा होगा. यही नहीं, अगर मौका मिलता तो कुछ देशभक्त संपादक/रिपोर्टर कसाब के फांसी के फंदे को खींचने के लिए भी तैयार हो जाते. असल में, अखबारों/चैनलों के इस अतिरेक और उन्मादपूर्ण कवरेज की पृष्ठभूमि बहुत पहले से तैयार थी. यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कई सालों से कसाब और संसद पर हमले में दोषी करार दिए गए अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने की सार्वजनिक मुहिम चल रही थी. खासकर हिंदुत्ववादी संगठनों ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया हुआ था. अखबारों और चैनलों में उनकी हां में हां मिलाती हुई ऐसी सुर्खियां अक्सर दिख जाती थीं जिनमें कसाब पर हो रहे करोड़ों रुपये के खर्च और उसे बिरयानी खिलाने की ‘खबरें’ होती थीं और जिनमें उसे जल्दी से जल्दी फांसी पर लटकाने की व्यग्रता और न्याय प्रक्रिया की लेट-लतीफी पर तंज साफ दिखाई देता था. हैरानी की बात नहीं है कि अखबारों/चैनलों पर कसाब की फांसी के बाद अब संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को जल्दी से जल्दी फांसी पर चढ़ाने की मुहिम शुरू हो गई है. लेकिन इस मुहिम में छिपे बारीक सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी रुझान को देखना मुश्किल नहीं है.  

आखिर अखबार/चैनल खून के इतने प्यासे क्यों हो रहे हैं? लेखक सैमुएल जानसन ने बहुत पहले लिखा था कि देशभक्ति लफंगों (और भ्रष्टों) की आखिरी शरणस्थली होती है. क्या अखबारों/चैनलों की इस अंध-देशभक्ति और उन्माद के पीछे भी एक कारण यह है कि उनके भ्रष्ट और आपराधिक अंडरवर्ल्ड का पर्दाफाश होना शुरू हो गया है? कहीं देशभक्ति के झंडे से वे अपने धतकरमों पर पर्दा डालने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? सवाल यह भी है कि यह देशभक्ति कहीं हिंदी अखबारों के डीएनए में पहले से मौजूद सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी रुझान से तो नहीं उमड़ रही है?

आखिर हालिया इतिहास इस बात का गवाह है कि रामजन्मभूमि और आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर सारे हिंदी अखबार सवर्ण-हिंदू अखबार हो गए थे और कुछ उसके मुखपत्र तक बन गए थे. उसने भारतीय समाज और राजनीति को जितना गहरा नुकसान पहुंचाया, लगता है अखबारों/चैनलों ने उससे कुछ नहीं सीखा है.