कहानी: पारो आफ्टर द ब्रेक

उसने कभी शरतचंद्र का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था. उसने देवदास फिल्म भी नहीं देखी थी. उसके पति ने जरूर देवदास देखी थी और उसे पारो कहना शुरू कर दिया था. पारो के लिए पारो शब्द भी वैसा ही था जैसा कि रोपा होता या कोई भी दूसरा अनजाना शब्द, पर पारो के पास इतनी समझ थी कि उसके बच्चों का बाप जब उसे पारो कहता है तो उसकी अपनी महत्ता बढ़ जाती है. Read More>>

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    शिक्षा, सत्ता और संपत्ति से स्त्रियों को सदियों तक वंचित रखा गया. आज भारत की स्त्री के पास मुक्ति की जो भी चेतना है वह उसके लिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही ले कर आया है. स्त्री स्वातंत्र्य की इस चेतना ने हमारा जीवन बदल दिया. आज जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसे तैयार करने में हमारी पूर्ववर्ती महिला आंदोलनकारियों,  समाजसेवियों और चिंतकों ने बहुत श्रम किया है. Read More>>
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    मुझे मालूम नहीं
     कि आप वयोवृद्धा हैं या प्रौढ़ा या युवती, इसलिए वयोचित संबोधन नहीं कर पाने के लिए क्षमा चाहती हूं. तहलका में प्रकाशित आपका लेख ‘मर्दों के खेला में औरत का नाच’ पढ़ा, जिसमें आपने समकालीन स्त्री लेखन की समीक्षा करते हुए अपने सामाजिक सरोकारों की दुहाई दी है. लेखकों को आलोचनाओं से विचलित होकर उत्तर-प्रत्युत्तर के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए. Read More>>

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    नौ साल हो गए, उत्तरी दिल्ली के रोहिणी इलाके में तेरह साल तक रहने के बाद, अपना घर छोड़ कर, वैशाली की इस जज कॉलोनी में आए हुए. यह वैशाली का ‘पॉश’ इलाका माना जाता है. उत्तर प्रदेश की सरकार ने न्यायाधीशों के लिए यहां प्लाट आवंटित किए थे. ऐसे ही एक प्लॉट पर बने एक घर में मैं रहता हूं. Read More>>
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    कब से यह पत्र लिखना चाह रही थी. बार-बार कुछ स्मृतियां, बचपन की स्मृतियां कौंधती थीं. उन्हें आपसे पूछने का, सही-सही जानने का मन होता था. बहुत समय से सोचती रही, लिखना बस टल रहा था, सोच बराबर रही थी. टलते-टलते बीस वर्ष हो गए. आप भी कहेंगी, हद है यह तो! आपकी बड़ी-बड़ी आंखें हैरानी से खुल जाएंगी. सचमुच ऐसा भी क्या टालना! हमें अपने को स्थगित करना छोड़ना होगा. Read More>>

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    अविनाश, तू यह मत समझ कि तुझे शादी के लिए भेजा जा रहा है. वहां मेरे दोस्त ब्रिगेडियर सिन्हा का घर और बाग हैं, वहां तू बस उनके परिवार के साथ छुट्टियां बिताने जा रहा है.’ वह जानता है यह जाल शादी के लिए ही बिछाया जा रहा है. बस चलते ही, अच्छा मौसम होने के बावजूद अविनाश के मन की कड़वी स्मृतियां धुआं देने लगीं. सात साल हो गए. Read More>>
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    वह जब हमारी क्लास में पहली बार आया था तो उसे हमने किसी दूसरी दुनिया का बाशिंदा समझा था. मतलब एलियन जैसा कुछ- हमउम्र बच्चों में सबसे छोटा कद, काला रंग (हालांकि इससे हमें एतराज नहीं था क्योंकि क्लास में कई बच्चों का रंग काला था, मगर उसका काला कुछ अलग था, चिक-चिक करता-सा, जैसे करैत सांप अचानक गुजर गया हो… Read More>>

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