जिंदगी की पिराई

‘बहेलिया आता है
जाल फैलाता है
दाने का लोभ दिखाता है
हमें जाल में फंसना नहीं चाहिए.’

मगर महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में शोषण का जाल फैला ही नहीं है, उसे इतनी चालाकी से कसा भी गया है कि चिड़िया नहीं जानती कि वह जाल के भीतर है या बाहर. सभी शिकारियों ने हाथ मिला लिया है. इसलिए उनका शिकार अपने आप खेतों तक आने के लिए मजबूर है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मराठवाड़ा में गन्ना ज्यादा होता है. मगर उससे कहीं ज्यादा खेतों में शोषण की फसल उगती है. यह और बात है कि उसकी पैदावार का आंकड़ा किसी के पास नहीं.

सुबह-सुबह एक ट्रैक्टर से जुड़ी दो ट्रॉलियों में दर्जन भर मजदूर परिवार बैठे हैं. इन्होंने अपने साथ अनाज, कपड़े, बिस्तर और रोजमर्रा का जरूरी सामान बांध रखा है. बहुत छोटे बच्चे अपनी मांओं की गोद में हैं तो उनसे थोड़े बड़े अपनी बहनों के कंधों पर सोए हुए हैं. एक कोने में बकरियों के गले की रस्सियां ढीली करता एक बुजुर्ग भी है. ट्रॉलियों से बाहर पैर लटकाए सारे मर्दों के चेहरों पर एक जैसा रुखापन है और उनके पीछे बैठी महिलाओं के होठों पर चुप्पी. हम पूछते हैं, ‘कहां जाना होगा?’ एक का जवाब आता है, ‘बहुत दूर’, ‘कर्नाटक’, ‘बिदर के कारखाने के लिए गन्ना काटने’. हम फिर सवाल करते हैं, ‘लौटना कब होगा?’ जवाब आता है, ‘लौटना? बारिश के दिनों तक होगा.

उस्मानाबाद जिले से करीब 100 किलोमीटर दूर कलंब विकासखंड की इस सड़क पर दौड़ती इतनी सारी ट्रॉलियों का मतलब यह है कि यहां की बहुत सारी बस्तियां खाली हो रही हैं. वजह, मजदूर जोड़े (पति-पत्नी) चीनी कारखानों के लिए गन्ना काटने जा रहे हैं. यहां जोड़े का मतलब उन दलित, बंजारा और पारदी जनजातियों के बंधुआ मजदूरों से हैं जिनके पास खेती लायक जमीन नहीं है. यहां की बस्तियां सर्दी से बारिश तक खाली रहेंगी. यानी छह महीने तक पंचायती योजनाओं और विकास के सभी बदलावों से अछूती. इसका सबसे ज्यादा हर्जाना स्कूल में पढ़ने वाले उन बच्चों को भुगतना है जो घरवालों के साथ गन्ने के खेतों में गन्ना काटने जा रहे हैं.

मराठवाड़ा का उस्मानाबाद चीनी उत्पादन का केंद्र है. 1982 में यहीं सबसे पहले चीनी कारखाना लगा था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मराठवाड़ा के 30 कारखानों में से सात उस्मानाबाद में ही हंै. तेरणा चीनी कारखाना समिति के सदस्य शिवाजी गोंडबोले बताते हैं कि यहां का हर कारखाना आसपास के 50 किलोमीटर तक के खेतों से गन्ना उठाना चाहता है. इसके लिए वह दलालों की मदद लेता है. हर दलाल पांच से 10 लाख रुपये लेकर कारखाना समिति से करार करता है. बदले में वह 12 से 20 जोड़ों को छह से आठ महीनों तक बंधुआ मजदूरी करवाने की गारंटी देता है. इस तरह, एक कारखाने से तकरीबन 250 दलाल और उनसे 3,500 से ज्यादा जोड़े जुड़ जाते हैं.

दलित कार्यकर्ता बजरंग टाटे के मुताबिक यहां दलाल का मतलब ऊंची जाति के ताकतवर आदमी से है. दलाल जोड़ों को 25 से 30 हजार रुपये देकर छह से 10 महीनों तक बंधुआ मजदूरी पर चलने के लिए राजी करता है. कई दलालों के करार बहुत दूर के कारखानों से भी होते हैं, लिहाजा यहां के जोड़े अहमदनगर (200 किमी), पुणे (300 किमी), कोल्हापुर (500 किमी) और कर्नाटक के बेलगाम (700 किमी) तक जाते हैं. कोई भी दलाल अपने जोड़े लाने और उन्हें काम पर लगाते समय किसी तरह की रियायत नहीं बरतता. डोराला गांव के भारत सोनटके को दलाल से 20 हजार रुपये लेते समय नहीं पता था कि ऐन मौके पर उन्हें टीबी जैसी बीमारी हो जाएगी. वे पुणे में इलाज करवा रहे हैं. यह खबर पाते ही दलाल सोनटके के घर आया और उसकी पत्नी सहित बूढ़े माता-पिता को भी बंधुआ मजदूर बनाकर कोल्हापुर ले गया.

मनरेगा है मगर उसे निष्क्रिय अवस्था में रखा गया है ताकि ये लोग बंधुआ मजदूरी के इस नरक में पिसते रहें

तेरणा चीनी कारखाने के आसपास मजदूर जोड़े जमा हो रहे हैं. इन्होंने कुछ दिनों तक रुकने के लिए अस्थायी बस्तियां बना ली हैं. यहां से इन्हें छोटी-छोटी टुकडि़यों में बांटकर गन्ने के खेतों में भेजा जाएगा और उसके बाद खेतों में बस्तियां बनती जाएंगी. धाराशिव चीनी कारखाने से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर के एक ऊबड़-खाबड़ खेत में ऐसी बस्ती बन भी चुकी है. यह 12 आशियानों की ऐसी अस्थायी बस्ती है जिसका हर आशियाना पन्नी, कपड़े और कुछ लकडि़यों की मदद से किसी तरह खड़ा है. यहां आशियाने का मतलब उस एक कमरे से है जिसमें पैर पसारने भर की जगह है. काम से पहले बच्चों को पानी के लिए काफी दूर जाना पड़ता है और औरतों को खुले में नहाना होता है. कारखानों से ट्रॉलियों का आना-जाना देर रात तक चलता है.

14 साल से छोटी उम्र के लड़के जहां गन्ना कटाई से लेकर ढुलाई के कामों में शामिल होते हैं वहीं लड़कियां खाना बनाने से लेकर सफाई का काम करती हैं. इशाका गोरे तीसरी में है और उसकी सुनें तो यहां से जाने के बाद वह चौथी में बैठेगी. उसे नहीं पता कि जब तक वह स्कूल पहुंचेगी तब तक परीक्षाएं खत्म हो जाएंगी. इशाका का परिवार सांगली जिले के कराठ गांव से आया है. उसके पिता याविक गोरे के पास अपनी बेटी से जुड़ी भविष्य की सिर्फ एक योजना है, ‘यह पढ़े तो ठीक, नहीं तो पांच-छह साल में शादी करनी ही है. फिर जोड़ा बनाकर काम करेगी.’ यहां के परिवार अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में ही करते हैं. इनकी राय में परिवार में जितने ज्यादा जोड़े रहेंगे उतनी ज्यादा आमदनी होगी. ज्यादातर रिश्तेदारियां काम की जगहों पर हो जाती हैं. इस तरह, बाल विवाह की प्रथा यहां नये रूप में उजागर होती है.

शरणार्थी कैंपों से भी बदतर यहां की बस्तियों में बच्चों सहित बड़ों को भी खासी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. मसलन खाने का बंदोबस्त न हो पाना, सर्दी में बीमार पड़ना, गन्ना काटते समय धारदार हथियार लगना, सांप का काटना या बावडि़यों में गिरना आदि जानलेवा घटनाएं अब यहां आम बात हैं. इन खेतों से सरकारी अस्पताल 15 से 20 किलोमीटर दूर होता है. बीड़ जिले के राक्षसबाड़ी निवासी सुभाष मोहते बताते हैं, ‘दो साल पहले जब मेरी पत्नी पेट से थी तब कुछ औरतों ने खेत में ही पर्दा लगाकर गर्भपात कराना चाहा. अचानक उसकी तबीयत बिगड़ गई और वह मर गई.’ शंभु महाराज चीनी कारखाने के लिए गन्ना काटने वाली शोभायनी कस्बे अपने बच्चों को लेकर चिंतित हैं. उनके मुताबिक उनके बच्चे पास होकर भी उनसे दूर हैं. खेलने की उम्र में बहुत काम करते हैं. कभी चिड़चिड़ाते हैं तो कभी चुपचाप हो जाते हैं. वे कहती हैं, ‘गांव के बच्चों से बहुत अलग हैं यहां के बच्चे. गांव लौटकर और बच्चों के साथ घुलते-मिलते भी नहीं.’

मुद्रिका गोरे को चुनाव का साल राहत देता है. तब वोट की खातिर कोई भी उम्मीदवार उन्हें घर ले जाने के लिए तत्पर रहता है. मुद्रिका कहती हैं, ‘वोट डलवाने के बाद वापिस यहीं छोड़ दिया जाता है. उसके बाद सुध लेने वाला कोई नहीं होता.’ ज्यादातर मजदूर जोड़े बताते हैं कि दलाल दिए गए रुपयों के मुकाबले बहुत काम लेता है. परवानी जिले के मल्लिकार्जन मूले कहते हैं, ‘बीते साल गन्ने की पैदावार ज्यादा हुई तो दलालों ने मियाद पूरी होने के बाद भी काम लिया. हमने एक रात टेंपो से भागना भी चाहा. मगर उन्होंने बीच रास्ते में ही पकड़ लिया और खूब मारा-पीटा.’

हालांकि सरकार ने गांव में ही हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम देने के लिए मनरेगा चलाई है. मगर मराठवाड़ा में मनरेगा का सच जानने के लिए कलंब विकासखंड का कार्यालय काफी है. यहां 89 गांवों में से सात में ही काम चालू है. कुल 35 कामों में से एक ही पूरा हुआ है. 50 हजार से ज्यादा मजदूरों में से 50 प्रतिशत से भी कम को काम मिला है और जिन्हें मिला है उनका भुगतान होना शेष है. पंचायत विभाग के विस्तार अधिकारी बसंत बाग्मारे इसे ‘योजना की कागजी औपचारिकता’ से जोड़ते हैं. मगर सामाजिक कार्यकर्ता माया शिंदे कहती हैं, ‘पंचायतों में सवर्णों का राज है. उन्हें अपने खेतों में काम करने के लिए मजदूर चाहिए. अगर मजदूरों को मनरेगा का पता लग गया तो उनका काम बंद हो जाएगा. जाहिर है मनरेगा को निष्क्रिय बनाए बिना उनका काम नहीं चल सकता है.’

जाहिर है जब इलाके में स्थानीय प्रतिनिधि ही शिकार के इस खेल का एक हिस्सा बन गए हों तो यहां के ‘बंधुआ’ मजदूरों के लिए इस जाल से निकलना नामुमकिन-सा होगा ही.