खबरों के जिंदा होने की खबर

सुना है कि हिंदी न्यूज चैनलों पर ‘खबर’ की वापसी हो रही है. हालांकि ऐसी अफवाहें, माफ कीजिएगा, ‘खबरे’ काफी समय से चल रही हैं, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश चैनलों पर अब भी ‘खबर’ के नाम पर सिनेमा, क्रिकेट, मनोरंजन, रियलिटी शो से लेकर ज्योतिष, बाबाओं, तांत्रिकों और असामान्य, पारलौकिक और बेसिर-पैर की ‘परा-खबरों’ का बोलबाला है. तमाम चर्चाओं-आलोचनाओं और आत्ममंथनों के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में चैनलों पर हार्ड न्यूज की विदाई और ‘परा-खबरों’ का दबदबा बढ़ता ही गया है.

इसलिए इस ‘खबर’ पर भरोसा नहीं हो रहा है कि चैनलों पर ‘खबरों’ के दिन लौटने वाले हैं. ऐसे दावे कई बार किए गए लेकिन नतीजा, वही चैनल के तीन पात- मनोरंजन, क्रिकेट और पारलौकिक. याद कीजिए, कोई तीन साल पहले बहुत जोर-शोर से ‘न्यूज इज बैक’ (खबर लौट आई है) नारे के साथ न्यूज 24 चैनल शुरू हुआ था, लेकिन वहां खबरों को गायब होने में ज्यादा समय नहीं लगा. हालांकि कई खबर-जलों का तो यह भी कहना है कि वहां कभी ‘खबर’ थी  ही नहीं, इसलिए उसके लौटने या गायब होने की चर्चा बेकार है.

चैनलों को लगता है कि उनसे चतुर-सुजान कोई नहीं है, लेकिन लोगों को बेवकूफ बनाने के चक्कर में वे खुद बेवकूफ बनने लगे हैं  इसी आधार पर कुछ खबर-जलों ने चैनलों पर ‘इतिहास के अंत’ की तरह ‘खबर के अंत’ का एलान कर दिया. दूसरी ओर, चैनलों के कुछ तेज-तर्रार संपादकों ने यहां तक कहना शुरू कर दिया कि बदलते समय और समाज के साथ ‘समाचार’ की परिभाषा भी बदल रही है और चैनल जो दिखा रहे हैं और दर्शक जो देख रहे हैं, वही ‘खबर’ है. यह भी कि ‘खबर’ का दायरा बढ़ रहा है. इस पर भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी?

लेकिन ‘खबरों’ के इस बढ़ते दायरे में पर्यावरण, विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य या विकास-विस्थापन संबंधी खबरें या उत्तर-पूर्व, उड़ीसा जैसे पिछड़े इलाकों की खबरें फिर भी गायब रहीं और चैनलों की ‘खबरों’ का दायरा बढ़ते हुए सीधे पारलौकिक ‘खबरों’ तक जा पहुंचा. नतीजा, हिंदी न्यूज चैनलों के सौजन्य से दर्शकों को दूसरे लोक (जैसे स्वर्ग की सीढ़ी) के साथ-साथ अपना परलोक सुधारने की और मौसम के हाल की बजाय सीधे प्रलय की संभावित तिथियों की ‘खबरें’ मिलने लगीं. इस मायने में खबरें सचमुच ‘स्वर्गवासी’ हो गईं.
इसके बावजूद मजा देखिए कि हर कुछ महीनों में ‘खबर’ के फिर से जिंदा होने की खबरें भी उड़ने लगती हैं. इधर पिछले कुछ महीनों से जी न्यूज ‘फाॅर द सेक आॅफ न्यूज’ यानी ‘खबरों की खातिर’ की पंचलाइन के साथ बाकायदा एक मीडिया अभियान चला रहा है जिसमें न्यूज चैनलों पर टीआरपी के लिए खबरों की पवित्रता से खिलवाड़ करने की शिकायत करते हुए ‘खबर’ को फिर से उसकी जगह पर बहाल करने की अपील की गई है. मीडिया वेबसाइटों के मुताबिक, अब ‘आज तक’ ने भी फैसला किया है कि वह टीआरपी की परवाह किए बगैर ‘खबरें’ दिखाएगा. कुछ खबर-जलों का कहना है कि यह फिसल पड़े तो हर गंगे वाली बात हो गई. यानी जब ऊलजुलूल दिखाकर भी टीआरपी की दौड़ में इंडिया टीवी से जीत नहीं पा रहे तो ‘खबर’ याद आने लगी. फिर भी अगर यह खबर सही है तो इसका स्वागत होना चाहिए. आखिर पिछले कुछ सालों में कंटेंट और खबरों के स्तर पर ‘आज तक’ में जितनी गिरावट आई है उसने मेरे जैसे बहुतेरे लोगों को बहुत निराश किया है. 

असल में, न्यूज चैनलों खासकर हिंदी चैनलों के भटकाव को लेकर काफी दिनों से खतरे की घंटी बज रही है. कई चैनलों में खबरों के नाम पर ‘खबर’ के साथ जो मजाक चल रहा है वह बेतुकी हदों तक पहुंच चुका है. खबर और कल्पना, खबर की प्रस्तुति और ड्रामा और न्यूज चैनल और मनोरंजन चैनल के बीच का फर्क मिट चुका है. नतीजा यह कि लोग न्यूज चैनलों का मजाक उड़ाने लगे हैं. उन्हें हल्के में लेने लगे हैं. उनके आलोचकों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है. उनका सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव घटने लगा है. यही नहीं, उनके खासकर हिंदी चैनलों के दर्शक भी ऊबने और घटने लगे हैं. टैम मीडिया रिसर्च के मुताबिक, 2008 की तुलना में 2010 में कुल टीवी दर्शकों में हिंदी न्यूज चैनलों के दर्शकों की संख्या 4.8 फीसदी से घटकर 3.4 फीसदी रह गई. यही नहीं, उनकी जीआरपी (दर्शकों तक पहुंच और चैनलों पर खर्च समय) में भी काफी गिरावट आई है.

कहते हैं कि आप कुछ लोगों को कुछ बार बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन सभी लोगों को हर बार बेवकूफ नहीं बना सकते. सभी लोगों को सभी बार बेवकूफ बनाने की कोशिश में अब चैनलों के बेवकूफ बनने की बारी है. लोग हिंदी न्यूज चैनलों के नाटक (खींचो, तानो, खेलो) से तंग आ गए हैं. वे चैनलों की ट्रिक्स समझने लगे हैं. उन्हें पता चल गया है कि स्वर्ग का रास्ता किधर से है, पाताललोक कहां है, धरती कितनी तरह से और किन तारीखों को खत्म हो सकती है और शनिवार को क्या खाना-पहनना और दान देना है.
चैनल अब सुरंग के आखिर में पहुंच चुके हैं. वहां से आगे का रास्ता बंद है. उनके पास वापस लौटने के अलावा और कोई चारा नहीं है. जो लौटेंगे वे न्यूज चैनल के रूप में बचेंगे और जो सुरंग में फंसेंगे वे अंधेरों में खो जाएंगे.

चैनल मानें न मानें, उनके लिए उलटी गिनती शुरू हो चुकी है. हालांकि मनुष्य की कल्पनाशक्ति का कोई अंत नहीं है और चैनलों की कल्पनाशक्ति की कल्पना करना मेरे वश से बाहर है लेकिन ऐसा लगता है कि