कच्ची कॉलोनी पक्का फायदा

कोहरे और धुंध भरी दिसंबर की एक सर्द शाम. दिल्ली के शाहीन बाग इलाके का नजारा ऐसा है मानो कोई भयानक भूकंप यहां सब कुछ तबाह कर गया हो. हाड़ जमाने वाली ठंड में कांपते सैकड़ों परिवार अपने उजड़े मकानों और बिखरे सामान के बीच जमीन पर बैठे हैं. लगभग 500 परिवारों का यह समूह दिल्ली की उस बहुसंख्यक प्रवासी आबादी का हिस्सा है जो देश के दूसरे राज्यों से काम की तलाश में इस शहर तक पहुंचती है और फिर यहीं की होकर रह जाती है. ये 500 परिवार पिछले 10-12 साल से यहां रह रहे हैं जहां आज बर्बादी का मंजर दिख रहा है. यह प्रलय किसी प्राकृतिक आपदा के कारण नहीं बल्कि दिल्ली सरकार की अवैध बस्तियों को हटाने की मुहिम का नतीजा है. बिना कोई नोटिस दिए ही बीती तीन दिसंबर को दिल्ली सरकार द्वारा यहां बने लगभग 500 घर तोड़ दिए गए, जबकि यहां के लोगों की मानें तो 2010 में सरकार ने उनसे यह वादा किया था कि उनकी बस्ती को नियमित कर दिया जाएगा.

इसी बस्ती में रहने वाले 30 वर्षीय दिलबर कुछ कूड़ा इकट्ठा करके उसे जला रहे हैं. उन्होंने अपने दोनों बच्चों को इस आग की गर्माहट के पास बैठा दिया है. दिलबर लगभग आठ साल पहले असम से यहां आए थे. तब से ही वे कूड़ा बेचने का काम कर रहे हैं. वे बताते हैं कि इस इलाके में अपने रहने लायक जगह पाने के लिए उन्होंने पुलिस को 5,000 रु दिए थे. दिलबर कहते हैं, ‘अब भी मैं हर महीने 500 रु पुलिसवालों को देता हूं.’
पुलिस को नियमित रूप से पैसा देने वालों में दिलबर अकेले नहीं हैं. यहां रहने वाले लगभग सभी परिवार पुलिस को हर महीने 500 से 700 रु दिया करते थे. अब उस पुलिस ने इन परिवारों पर इतना रहम जरूर किया है कि रात होने पर इन्हें झुग्गी लगाने की अनुमति दे दी है. लेकिन साथ ही यह निर्देश भी दिए हैं कि सुबह होते ही ये लोग अपनी झुग्गियां हटा लें. पुलिस के इन निर्देशों के अनुसार ही ये लोग इस भीषण ठंड में बस थोड़ा और अंधेरा हो जाने के इंतजार में बैठे हैं ताकि रात बिताने लायक अपनी झुग्गी बना सकें.

झुग्गी बस्तियों का तोड़ा जाना दिल्ली के लिए कोई नई बात नहीं, लेकिन तीन दिसंबर के दिन जब इस बस्ती को तोड़ा जा रहा था तो उस वक्त यहीं से कुछ किलोमीटर की दूरी पर कई अवैध निर्माण कार्य प्रगति पर थे. अब भी हैं. दरअसल दिल्ली में बड़े बिल्डरों और रसूखदार लोगों द्वारा अवैध कॉलोनियों में बहुमंजिला इमारतें लगातार बनाई जा रही हैं और सरकार उन्हें सिर्फ अनदेखा ही नहीं कर रही बल्कि अपनी मौन सहमति देकर उनका समर्थन भी कर रही है. 2010 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों के चलते जब दिल्ली को सुंदर बनाने के लिए एक तरफ तीन लाख से ज्यादा झुग्गीवालों को बेघर करके उनकी झुग्गियां ध्वस्त की गईं तो उस वक्त भी अवैध कॉलोनियों में लाखों की कीमत वाले भवन बन रहे थे और बिक रहे थे.

कानूनी तौर पर देखा जाए तो अवैध कॉलोनियों का निर्माण भी उतना ही गलत है जितना कि झुग्गी-झोपड़ियों का. लेकिन इन दोनों में एक मूल फर्क यह है कि जहां झुग्गियों को पहली नजर में ही पहचान कर अवैध घोषित किया जा सकता है वहीं अनधिकृत कॉलोनियों को एक नजर में पहचानना मुश्किल होता है. इसके अलावा दिल्ली आने वाले पर्यटकों की नजर में भी अनधिकृत कॉलोनियां वैसे नहीं अखरा करतीं जैसे ये झुग्गियां अखरती हैं और दिल्ली सरकार को शर्मसार करती हैं. अनधिकृत कॉलोनियों का आलम यह है कि पूर्व में कई ऐसी कॉलोनियों को नियमित करने के बाद भी दिल्ली की लगभग 50 लाख आबादी इन्हीं में रह रही है.

दिल्ली में आज 1,639 अनधिकृत कॉलोनियां हैं. इनमें रहने वाली शहर की एक-चौथाई आबादी यहां की राजनीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती है

यह समस्या कितनी पुरानी है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब 1957 में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का गठन हुआ तब भी दिल्ली में कई ऐसी कॉलोनियां मौजूद थीं. 1962-63 में पहली बार 103 अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित किया गया. इसके बाद भी इन कॉलोनियों के बसने का सिलसिला लगातार जारी रहा और 1977 में फिर से 567 अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित करने की घोषणा कर दी गई. लगभग 670 कॉलोनियों को नियमित करने के बाद भी आज दिल्ली में सरकारी आंकड़ों के ही मुताबिक 1,639 अनधिकृत कॉलोनियां मौजूद हैं. दिल्ली की लगभग एक-चौथाई आबादी इन्हीं बस्तियों में रह रही है जो स्वाभाविक तौर पर यहां की राजनीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए, शीला दीक्षित सरकार ने 2008 के विधानसभा चुनावों से ठीक दो महीने पहले यह घोषणा की थी कि यदि कांग्रेस तीसरी बार सत्ता में आती है तो इन कॉलोनियों को नियमित कर दिया जाएगा. सरकार द्वारा उस वक्त इनमें से अधिकतर बस्तियों को नियमितीकरण के अस्थायी प्रमाण पत्र भी बांटे गए. जानकारों का मानना है कि कांग्रेस की जीत के पीछे यही सबसे बड़ा कारण बना क्योंकि यह पहला मौका था जब इन अनधिकृत बस्तियों में रहने वाले लाखों लोगों को नियमितीकरण से संबंधित कोई सरकारी प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ हो.

कांग्रेस का यह दांव सफल रहा और वह लगातार तीसरी बार दिल्ली की सत्ता हासिल करने में सफल हो गई. लेकिन 2008 से चार साल बीत जाने तक भी इस संबंध में सरकार द्वारा कोई कदम नहीं उठाया गया. जब कुछ महीनों पहले हुए निकाय चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा और अगले विधान सभा चुनाव भी नजदीक आने लगे तो दिल्ली सरकार को एक बार फिर से अपने ब्रह्मास्त्र की याद आई और सितंबर में उसने 895 बस्तियों को नियमित करने की घोषणा करके इनकी सूची जारी कर दी. तुगलकाबाद इलाके की रेसिडेंट वेलफेयर असोसिएशन के उपाध्यक्ष सोमवीर चौधरी कहते हैं, ‘नियमितीकरण की ये घोषणाएं मात्र राजनीतिक चाल हैं. दिल्ली के हर क्षेत्र में खुले आम अवैध निर्माण कार्य हो रहा है और सरकार उस पर कोई भी रोक नहीं लगाती. इस अवैध निर्माण से पुलिस से लेकर पार्षद और विधायक तक की मोटी कमाई होती है, इसलिए अनधिकृत बस्तियां अस्तित्व में आती हैं. फिर जब लाखों लोग यहां बस जाते हैं तो सरकार इनके नियमितीकरण को ही मुद्दा बनाकर लंबे समय तक राजनीतिक लाभ लेती है.’

यानी दिल्ली की एक-चौथाई आबादी का निवास बन चुकी इन अनधिकृत बस्तियों का अस्तित्व कोई एक रात का नतीजा नहीं है. यह निरंतर होने वाली प्रक्रिया है. रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों से दिल्ली आकर बसने वालों की संख्या बहुत अधिक रही है. दिल्ली सरकार इन सभी प्रवासियों को रहने लायक मकान देने में हमेशा से विफल रही. ऐसे में भूमाफियाओं ने निजी और सरकारी दोनों ही जमीनों पर भवन बनाकर बेचने का काम शुरू किया. स्थानीय नेताओं ने अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए इन भूमाफियाओं को संरक्षण दिया और लोग इन बस्तियों में बसते चले गए. दिल्ली के नामी आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल कहते हैं, ‘बेईमानी के इस काम में लोक प्राधिकारियों की बड़ी ही ईमानदार साझेदारी है. इन बस्तियों को बसाकर नेताओं ने अपने राजनीतिक हित साधे हैं तो अधिकारियों ने आर्थिक मुनाफा कमाया है.’ चांदनी चौक इलाके का उदाहरण देते हुए सुभाष बताते हैं, ‘एक बार एक इंजीनियर ने इन सभी अवैध निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी थी. उन इंजीनियर साहब को लोग मुल्ला जी के नाम से जानते थे. जब भूमाफिया कई बार रिश्वत की पेशकश से भी मुल्ला जी को नहीं खरीद पाए तो उन पर जानलेवा हमला करवाया गया. उनकी हालत इतनी नाजुक हो गई कि उन्हें लंबे समय तक अस्पताल में रहना पड़ा. इस बीच किसी नए इंजीनियर को प्रतिनियुक्त कर दिया गया और अवैध निर्माण का धंधा फिर से शुरू हो गया. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे इन भूमाफियाओं को हर तरफ से संरक्षण मिला हुआ है.’

सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि हाल ही में नियमित की गई 895 अनधिकृत बस्तियों में से 583 बस्तियां सरकारी भूमि पर कब्जा करके बनाई गई हैं. जाहिर है कि जब इन बस्तियों को बनाया जा रहा था तो स्थानीय प्रशासन के संज्ञान में भी यह बात जरूर रही होगी. चौधरी बताते हैं, ‘ऐसे निर्माण कार्यों में दिल्ली नगर निगम, स्थानीय पुलिस, पार्षद, विधायक और जिलाधिकारी तक की मिलीभगत होती है. पार्षद की तो कमाई का सबसे बड़ा साधन ही यह अवैध निर्माण होते हैं. इसी कमाई के दम पर तो पार्षद जैसे छोटे-से चुनाव में भी प्रत्याशी करोड़ों रुपये खर्च करने से नहीं हिचकते.’ चौधरी आगे बताते हैं, ‘किसी भी अवैध निर्माण पर पार्षद और अन्य लोगों तक उनका हिस्सा पहुंचा दिया जाता है. यदि कोई निर्माण बिना इनको पैसे दिए हो रहा हो तो पार्षद तक उसके चेले यह खबर पहुंचा देते हैं. पार्षद फिर इंजीनियर और स्थानीय पुलिस को बुला कर अवैध निर्माण करने वाले को धमकाते हैं और अपना हिस्सा वसूल लेते हैं. निर्माण करने वाले भी यह पैसा चुपचाप दे दिया करते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि यह गैरकानूनी काम बिना पैसे दिए नहीं हो सकता.’

संगम विहार भी दिल्ली की एक ऐसी ही अनधिकृत बस्ती है. इसे एशिया की सबसे बड़ी अनधिकृत बस्ती भी कहा जाता है. यहां रहने वाले आम आदमी पार्टी के युवा कार्यकर्ता राहुल बताते हैं, ‘इन बस्तियों में रहने वाले लोगों की कोई भी गलती नहीं है. इन लोगों ने तो अपनी कमाई खर्च करके मकान खरीदे हैं. यदि गलती है तो उन भूमाफियाओं की है जिन्होंने यहां भवन बनाए हैं और बेच रहे हैं.’ अनधिकृत बस्तियों में मकान और जमीन का दाम अपेक्षाकृत कम होता है जिसके चलते आम आदमी यहां आसानी से बस जाता है. पश्चिमी दिल्ली में स्थित ‘भाग्य विहार’ नामक एक अनधिकृत बस्ती में रहने वाले अजीत कुमार सिन्हा बताते हैं, ‘मैं रेलवे में तृतीय श्रेणी का कर्मचारी था. सरकारी वेतन से मैंने तीन बच्चों को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया. इसके बाद मेरी हैसियत नहीं थी कि मैं दिल्ली में घर भी खरीद सकूं. ऐसे में बस यहीं मुझे घर बनाने लायक जमीन मिल रही थी तो 1999 में मैंने इस बस्ती में 90 हजार रु में 100 गज जमीन खरीद ली.’ भाग्य विहार नामक इस बस्ती को इस बार भी नियमित नहीं किया गया है, लेकिन यहां के लोगों की मानें तो उनको नियमितीकरण की कोई ज्यादा आवश्यकता भी नहीं है. नियमितीकरण का लाभ यह है कि ये लोग अपनी जमीन की रजिस्ट्री करवा सकें, उस पर लोन ले सकें और उसे आसानी से बेच सकें. इसके अलावा सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नियमित बस्तियों को ही उपलब्ध करवाई जाती हैं. लेकिन दिल्ली की अधिकतर अनधिकृत बस्तियों में सभी मूलभूत सुविधाएं निजी कंपनियों द्वारा आसानी से प्रदान की जा रही हैं. और जहां तक जमीन और मकान बेचने का सवाल है तो यह काम भी मुख्तारनामों द्वारा आसानी से पूरा कर लिया जाता है. भाग्य विहार निवासी विजय कुमार कहते हैं, ‘बस्ती के नियमित होने पर हमें कई तरह के टैक्स भी देने होंगे जिनसे आज हम बचे हुए हैं. इसके अलावा जमीन की रजिस्ट्री पर भी बहुत ज्यादा खर्च होगा.’ इस बस्ती के कुछ लोगों को यह डर जरूर है कि यदि कभी कोई सख्त प्रशासक आया तो इनके घर तोड़े भी जा सकते हैं, लेकिन अधिकतर लोग इससे बेफिक्र हैं और मानते हैं कि चाहे जो भी हो उनके घर टूटेंगे नहीं. यहीं के एक निवासी नारायण देदाश बताते हैं कि दो महीने पहले ही जब वे किसी काम से दिल्ली सचिवालय गए थे तो अनधिकृत कॉलोनी प्रकोष्ठ के उपसचिव ने उनसे कहा, ‘इस बात की तो मैं गारंटी देता हूं कि तुम्हारे घर कोई भी नहीं तोड़ सकता. इसलिए निश्चिंत रहो और अब क्योंकि चुनाव आने वाले हैं तो अपने पार्षद और विधायक को पकड़ो और जितना भी काम कॉलोनी में करवा सकते हो करवा लो.’

अनधिकृत बस्तियों में अधिकतर जगह सड़क और बाकी मूलभूत सुविधाओं संबंधी कार्य क्षेत्रीय विधायक द्वारा अपने निजी खर्च से ही करवाए गए हैं. हालांकि 1998 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा इन बस्तियों में मूलभूत सुविधाएं प्रदान करने की अनुमति दी गई है लेकिन संगम विहार जैसी कई अनधिकृत बस्तियों में तो लोग इतने बेतरतीब तरीकों से बस चुके हैं कि यहां अब सारी सुविधाएं प्रदान करना लगभग असंभव ही हो चुका है. यहां की सड़कें इतनी संकरी हैं कि रोज घंटों जाम लगना यहां अब आम बात हो गई है. पानी की निकासी की भी कोई व्यवस्था यहां नहीं है और जिस तरह से यहां मकान बन चुके हैं उनमें अब भविष्य में भी यह व्यवस्था कर पाना मुमकिन नहीं लगता. इस अव्यवस्थित बस्ती के बीच ही एक आलीशान ‘हमदर्द पब्लिक स्कूल’ भी है जिसके मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करते ही यह विश्वास नहीं होता कि हम अब भी संगम विहार जैसी अव्यवस्थित अनधिकृत बस्ती में ही हैं. कई एकड़ में फैला यह भव्य स्कूल इस अनधिकृत बस्ती में सालों से चलाया जा रहा है. यहां आज लगभग 2,500 बच्चे पढ़ रहे हैं. नियमों के अनुसार अनधिकृत बस्ती में बने स्कूल को मान्यता नहीं दी जा सकती, लेकिन जब तहलका ने स्कूल की प्रधानाचार्या जाकिया माजिद सिद्दिकी से इस संबंध में बात की तो उनका कहना था, ‘मैं तो कुछ समय पहले ही इस स्कूल में आई हूं, इसलिए इस बारे में ज्यादा बता नहीं सकती.’

‘ऐसी बस्तियों को नियमित करके सरकार अवैध निर्माण करने वालों को प्रोत्साहन दे रही है. कायदे से तो अनधिकृत निर्माणों को तोड़ दिया जाना चाहिएसंगम विहार में पानी की भी भारी किल्लत है. निजी कंपनियों द्वारा प्रदान किए जाने वाले पानी का खर्च यहां के अधिकतर निवासी नहीं उठा सकते जिसके चलते उन्हें सरकारी पानी के टैंकरों पर निर्भर रहना पड़ता है. ऐसे में जब भी पानी का टैंकर बस्ती में आता है तो लोग उस पर टूट पड़ते हैं और यह अक्सर आपसी झगड़ों का कारण भी बनता है. लेकिन हमदर्द स्कूल की प्रधानाचार्या बताती हैं कि स्कूल के पास अपने पंप होने के चलते उन्हें पानी की भी कोई समस्या नहीं है. साथ ही वे कहती हैं, ‘इस जगह के नियमित होने या न होने से स्कूल किसी भी तरह से प्रभवित नहीं होता.’

दिल्ली की महंगी और आलीशान अनधिकृत बस्तियों के निवासी भी इस बात से बेफिक्र ही नजर आते हैं कि यह अवैध निर्माण कभी टूट भी सकता है. छत्तरपुर एक्सटेंशन की एक ऐसी ही आलीशान अनधिकृत कॉलोनी में रहने वाली एक महिला नाम न छपने की शर्त पर कहती हैं, ‘हमने यह नया घर 70 लाख रुपये में इसी साल खरीदा है. इतना पैसा हमने इसीलिए लगाया है क्योंकि आज नहीं तो कल यह कॉलोनी भी नियमित हो ही जाएगी. तोड़ने की ताकत तो किसी में नहीं है. अगर दिल्ली के सभी अवैध निर्माणों को सरकार तोड़ने लगी तो आधी से ज्यादा दिल्ली बेघर हो जाएगी और लगभग पूरी दिल्ली खंडहर.’ इस आलीशान कॉलोनी में भी पानी निजी कंपनियों द्वारा उपलब्ध करवा दिया जाता है और यहां के लोग इतने संपन्न भी हैं कि यह खर्च आसानी से उठा सकें. पार्किंग की समस्या वैसे तो पूरी दिल्ली में है लेकिन इस अनधिकृत कॉलोनी में बिल्डरों द्वारा भवन के साथ ही पार्किंग की भी जगह उपलब्ध करवाई जा रही है. इन महिला ने जो घर 70 लाख रु में खरीदा है, उतना ही बड़ा घर दिल्ली की किसी अधिकृत कॉलोनी में आज शायद करोड़ों की कीमत का होगा. इसलिए भी लोग बड़ी संख्या में इन अनधिकृत कॉलोनियों में बस रहे हैं.

दिल्ली की लगभग सभी अनधिकृत कॉलोनियों में प्रॉपर्टी डीलरों की भरमार है जो खुलेआम इन अनधिकृत भवनों को बेच रहे हैं. पुराने भवनों से लेकर नवनिर्मित मकानों तक हर तरह के भवन यहां आसानी से उपलब्ध करवा दिए जाते हैं. नियमितीकरण के जो पैमाने सरकार द्वारा तय किए गए थे उनमें एक शर्त यह भी थी कि 2007 से पहले हो चुके निर्माण कार्यों को ही नियमित किया जाएगा. लेकिन 2007 के बाद भी इन बस्तियों में कई निर्माण कार्य किए गए हैं और आज भी जारी हैं. तहलका ने कई संबंधित अधिकारियों से बात करने की कोशिश की लेकिन कोई भी इस बारे में कुछ बात करने के लिए तैयार नहीं कि आखिर इन अवैध निर्माणों पर कोई भी रोक क्यों नहीं लग रही है. सूचना के अधिकार के तहत इस संबंध में पूछने पर शहरी विकास विभाग के सूचना अधिकारी बताते हैं कि अनधिकृत कॉलोनी प्रकोष्ठ में इन निर्माण कार्यों से संबंधित कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं है. ओखला विधानसभा क्षेत्र में हो रहे निर्माण कार्यों के बारे में वहां के विधायक आसिफ मोहम्मद खान कहते हैं, ‘मेरा विधानसभा क्षेत्र ही अकेला नहीं है. अवैध निर्माण की समस्या तो पूरे दिल्ली में ही है. इसमें सबसे ज्यादा दोष दिल्ली पुलिस का है जो कि स्वयं अवैध निर्माण के धंधे में संलिप्त है. इन निर्माण कार्यों पर रोक तभी लग सकती है जब पुलिस को इस मामले से बिल्कुल अलग किया जाए और यह कार्य पूर्ण रूप से दिल्ली नगर निगम और दिल्ली विकास प्राधिकरण ही देखे. जो लोग बस चुके हैं, उनको तो हटाया जाना अब संभव नहीं है लेकिन आगे के लिए ऐसे निर्माणों पर रोक लगनी चाहिए.’ उधर, कुछ का मानना है कि अनधिकृत बस्तियों को नियमित करना अवैध कार्य करने वालों को पुरस्कृत करने जैसा ही है. आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल कहते हैं, ‘इन्हें नियमित करके सरकार अवैध निर्माण करने वालों को प्रोत्साहन दे रही है. कायदे से तो अनधिकृत निर्माण तोड़े जाने चाहिए ताकि लोग खुद भी ऐसी किसी भी जगह संपत्ति खरीदने से डरें. लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह संभव नहीं है क्योंकि दिल्ली का मुख्य वोट बैंक तो इन्हीं बस्तियों में बसता है और कोई भी सरकार उसे खोने का जोखिम नहीं उठा सकती’.

एक अहम सवाल यह भी है कि क्या इन बस्तियों को नियमित करने से यहां के निवासियों की जिंदगी में भी कोई बदलाव आएगा. 1977 में नियमित की गई बस्तियों में से कई ऐसी हैं जहां आज तक सभी सुविधाएं प्रदान नहीं की जा सकी हैं. इसके साथ ही अनधिकृत बस्तियों में बने भवनों के खसरा नंबर ढूंढ़ने में भी राजस्व विभाग को कई दिक्कतें आ रही हैं जिस कारण इन लोगों को आज भी जमीन या भवनों पर स्वामित्व का अधिकार नहीं दिया जा सका है. सरकार के पास फिलहाल बहुस्वामित्व वाले भवनों के पंजीकरण की भी कोई नीति मौजूद नहीं है, जबकि अनधिकृत बस्तियों में बने अधिकतर भवन ऐसे ही हैं जिन पर एक से ज्यादा लोगों का स्वामित्व है. इन तमाम बातों के कारण कई लोग नियमितीकरण की हालिया घोषणा को सिर्फ एक राजनीतिक चाल मान रहे हैं. हालांकि इन कॉलोनियों में बसने वाली दिल्ली की लगभग एक-चौथाई जनता सरकार के इस एलान से बेहद खुश है. आखिर सवाल अपने ही घर पर स्वामित्व के अधिकार का है तो खुश होना बनता भी है. लेकिन इस घोषणा के बाद भी लगभग 744 अनधिकृत बस्तियां सरकारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में मौजूद हैं और जिस तेजी से नए निर्माण हो रहे हैं यह संख्या भविष्य में और ज्यादा होगी. वैसे देखा जाए तो इन अवैध बस्तियों से हर किसी को फायदा ही हुआ है. सरकारी जमीनों पर कब्जा करके भूमाफियाओं को मुनाफा हुआ, उन पर निर्माण की मौन अनुमति देने पर लोक प्राधिकारियों ने भी मोटा मुनाफा कमाया, जो लोग इन बस्तियों में बस गए और बस रहे हैं उन्हें भी सस्ते दामों पर देश की राजधानी में घर मिल गया और फिर बार-बार नियमितीकरण का लालच देकर नेताओं का वोट बैंक भी बढ़ता ही गया.

इस लिहाज से दिल्ली की ये अनधिकृत बस्तियां सोने के अंडे देने वाली मुर्गी साबित हुई हैं और आज भी हो रही हैं. ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि क्यों इन पर रोक नहीं लग रही. फिर जब कभी सरकार को यह दिखाना होता है कि वह अवैध निर्माण और अतिक्रमण के प्रति गंभीर है तो शाहीनबाग की ही तरह कुछ गरीबों की झुग्गियां तोड़ दी जाती हैं. और वैसे भी कोई सरकार क्यों इन बड़े अवैध निर्माणों को रुकवाकर अपना ही चौतरफा नुकसान करेगी? कहावत है न कि सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारा नहीं करते.