एक और फांसी

क्या राष्ट्रवादी भावनाओं के उभार में खबर के दूसरे पहलू दबाना जायज है?

आखिरकार संसद पर हमले का षड्यंत्र रचने के आरोप में अफजल गुरु को फांसी हो गई. न्यूज मीडिया को काफी दिनों से इसका इंतजार था.  वह इस फांसी के लिए खुलकर पैरवी भी कर रहा था. हालांकि सरकार ने एक बार फिर से बहुत गुपचुप तरीके से फांसी दी, लेकिन न्यूज मीडिया को कोई शिकायत नहीं है. आखिर फांसी की तारीख, दिन और समय तय करते हुए सरकार ने अपनी राजनीति के साथ-साथ  न्यूज चैनलों का पूरा ध्यान रखा. उसने फांसी के लिए शनिवार का दिन चुना जो खबरों के लिहाज से एक नीरस दिन (लीन डे) माना जाता है. इस दिन न्यूज चैनल खबरों और दर्शकों की तलाश में भटकते रहते हैं क्योंकि मनोरंजन चैनल हिट रीयलिटी शो से लेकर ब्लॉकबस्टर फिल्में दिखाकर सारे दर्शक उड़ा ले जाते हैं.

लेकिन ‘लोकतंत्र के मंदिर’ पर हमला करने वाले ‘देशद्रोही’ अफजल गुरु को फांसी पर लटकाकर सरकार ने चैनलों को शनिवार को सुबह-सुबह ऐसी ब्लाकबस्टर ‘खबर’ दे दी कि उनमें सबसे पहले इस खबर को ब्रेक करने का श्रेय लेने की होड़ मच गई. यह और बात है कि इन चैनलों को इसकी कोई भनक भी नहीं थी. चैनल इसकी भरपाई अति नाटकीय कवरेज से पूरा करते दिखे. आम तौर पर शनिवार को चैनलों पर नजर न आने वाले स्टार एंकर/संपादक सुबह से ही आंखें मीचते हुए चैनलों पर ‘राष्ट्रीय जनभावना’ के प्रकटीकरण में जुट गए.

फिर क्या था, देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावनाएं स्टूडियो में उमड़ने लगीं. रिपोर्टरों की आवाज खुशी से थरथरा रही थी. लाइव रिपोर्टिंग करते रिपोर्टरों के अंदाज ऐसे थे कि आपके रोयें खड़े हो जाएं. हमेशा की तरह चैनलों पर उन सुरक्षाकर्मियों के परिवारजनों के इंटरव्यू चलने लगे जो संसद पर हुए हमले में मारे गए थे. ‘आज तक’ ने तो ऐसे सभी परिवारजनों को उनके संरक्षक मनिंदरजीत सिंह बिट्टा के साथ स्टूडियो बुला लिया, जहां उनके स्टार एंकर घंटे भर संसद हमले के दिन को याद करते हुए फांसी में हुई देरी पर बात करने से लेकर फांसी के बाद उनकी भावनाएं टटोलने में जुटे रहे.

हमेशा की तरह सभी चैनलों पर कांग्रेस और भाजपा के नेता ‘आतंकवाद से लड़ाई के मुद्दे पर एकजुटता’ और इस पर  ‘राजनीति न करने’  की कसमें खाते हुए और ‘तू-तू,मैं-मैं’ करते हुए खुलेआम राजनीति करते रहे. सच पूछिए तो यह राजनीति ही असल बात थी. लेकिन अफजल गुरु की फांसी की 24×7 कवरेज में उसी की सबसे कम चर्चा थी. सभी चैनलों और एकाध अपवादों को छोड़कर सभी अखबारों में इस फांसी के पीछे की राजनीति और उसके मायनों को खोलने की वैसी कोशिश नहीं की गई जिससे इस जटिल मामले के विभिन्न पहलू सामने आ सकें. कुछ चैनलों और अखबारों में सवाल उठाए गए लेकिन खानापूरी के अंदाज में.

आश्चर्य नहीं कि जिस कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताने में चैनल थकते नहीं हैं, अफजल गुरु को फांसी के बाद उस कश्मीर घाटी में कर्फ्यू और एसएमएस व संचार सेवाओं को ठप करने के केंद्र सरकार के एकतरफा फैसले पर चैनलों की भौंहें नहीं खींचीं. क्या यह सिर्फ संयोग था या फांसी की खबर की उत्तेजना में हुई एक चूक? जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं था और न ही कोई चूक. यह बहुत सोचा-समझा फैसला था. क्या यह चूक भर थी कि अफजल गुरु को फांसी देने के बाद कश्मीर घाटी से बहुत दूर दिल्ली में कश्मीरी पत्रकार इफ्तिखार गिलानी को घर में नजरबंद कर दिया गया लेकिन यह खबर किसी चैनल की सुर्खी नहीं बनी?
क्या यह सिर्फ संयोग है या सोच-समझकर लिया गया संपादकीय फैसला कि अफजल गुरु के परिवारजनों की इन शिकायतों को कोई तवज्जो नहीं दी गई कि उन्हें पूर्व सूचना नहीं दी गई? ऐसे कई गंभीर सवाल हैं लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी न्यूज मीडिया और चैनलों पर ‘राष्ट्रीय जनभावना’ के उभार में वे बेमानी हो गए या बना दिए गए.