आगे पाठ, पीछे सपाट?

पिछले कुछ सालों के दौरान मध्य प्रदेश में भाजपा ने बेहद मजबूत छवि गढ़ी है. लेकिन प्रदेश सरकार की हालिया विकास यात्रा के रद्द होने और अपनी सरकार के खिलाफ ही मंत्रियों की बयानबाजी से अब संकेत मिलने लगे हैं कि यहां पार्टी की राह उतनी आसान नहीं रही. बृजेश सिंह की रिपोर्ट

मध्य प्रदेश में पिछले कुछ समय तक ऐसा लग रहा था मानो भाजपा के सामने अब कोई चुनौती ही नहीं बची है और 2013 फतह करने में उसे कोई खास दिक्कत नहीं आएगी. ऐसा मानने की वजहों में भाजपा संगठन और सत्ता की मजबूती के साथ ही कांग्रेस की अनबूझी निष्क्रियता भी शामिल थी. लेकिन पिछले कुछ दिनों में घटनाक्रम तेजी से बदले हैं. पार्टी का मिशन 2013 अब उतना आसान नहीं दिख रहा. ऐसा नहीं है कि प्रदेश भाजपा को अपनी कमजोर होती स्थिति का अंदाजा नहीं है. हाल ही में पार्टी ने अपनी उस बहुप्रतीक्षित यात्रा को रद्द कर दिया जिसे उसने विकास यात्रा का नाम दिया था. इस यात्रा के माध्यम से पूरे प्रदेश का दौरा करके सरकार जनता को अपनी लोकप्रिय योजनाओं की जानकारी देने के साथ ही उसे यह बताने जा रही थी कि उसने राज्य की जनता के लिए अब तक कितने अच्छे-अच्छे काम किए हैं. यात्रा के साथ ही पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव के लिए औपचारिक रूप से चुनाव प्रचार भी  शुरू करने वाली थी. प्रदेश के सभी विधानसभा क्षेत्रों से गुजरने वाली इस यात्रा की तैयारियों को लेकर सत्ता और संगठन ने दिन-रात एक कर दिया था. लेकिन अचानक यात्रा दो महीने तक के लिए टाल दी गई. यात्रा को टालने के कारण पर पार्टी का कहना था कि चूंकि इसी समय चुनाव आयोग नयी वोटर लिस्ट पर काम कर रहा है इसलिए यात्रा को टाल दिया गया.

सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के मामले सरकार के ‘सुशासन’ के दावे पर सवाल खड़े कर रहे हैं 

लेकिन सूत्रों का कहना है कि यात्रा को टालने के पीछे वोटर लिस्ट नहीं वरन कुछ और कारण है. कहा जा रहा है कि विधायकों, स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ ही विभिन्न जिलों के अधिकारियों ने सरकार तक यह बात पहुंचाई कि इस समय अगर यात्रा की गई तो पार्टी को किसानों की नाराजगी और गुस्से का सामना करना पड़ेगा. उल्लेखनीय है कि इस समय रबी की फसल बोने का समय चल रहा है. खाद, बीज और बिजली न मिलने की शिकायतें आम हो चुकी हैं. पूरे राज्य में किसान परेशान हैं. कहीं खाद नहीं मिल रहा है तो कहीं बिजली संकट छाया है. लगभग हर रोज प्रदेश के किसी न किसी कोने से किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं. इसी को ध्यान में रखकर जो रिपोर्ट भोपाल भेजी गई उसमें इस समय यात्रा से परहेज करने को कहा गया था.

विभिन्न क्षेत्रों से मिली फीडबैक में किसानों में व्याप्त रोष की बात कही गई थी. शीर्ष नेताओं तक यह बात पहुंचाई गई कि ऐसे में अगर उपलब्धियां गिनाने सरकार लोगों के बीच गई तो इससे उसे लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. लोगों पर इस यात्रा का नकारात्मक असर पड़ेगा. इधर सत्ता और संगठन तक यह फीडबैक पहुंचा और वहीं दूसरी तरफ संघ के अानुषंगिक संगठन भारतीय किसान संघ ने भी राज्य में किसानों की आत्महत्याओं और बीज, बिजली और खाद की किल्लत को लेकर सरकार को घेरना शुरू कर दिया. सरकार को भी उस समय की याद आ गई जब किसान संघ के आह्वान पर राज्य भर के किसान अपनी मांगों के साथ रातों-रात भोपाल पहुंच गए थे और उन्होंने पूरे शहर को एक तरह से अपने कब्जे में ले लिया था. कुछ उसी तरह की परिस्थितियां बनती देख सरकार ने तुरंत यात्रा को रद्द करके किसानों को कोई दिक्कत न होने देने की बात दोहरानी शुरू कर दी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर यात्रा के टालने के पीछे सत्ता और संगठन के बीच तालमेल के अभाव को कारण मानते हैं. वे कहते हैं, ‘यात्रा की योजना तो संगठन ने बनाई थी लेकिन सत्ता को वह वर्तमान समय में सही नहीं लगी इसलिए उसने इससे इनकार कर दिया.’

‘रघुनंदन शर्मा जैसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई इसलिए हो रही है कि उन्हें पॉवरफुल नहीं समझा जाता’

सूत्र बताते हैं कि क्षेत्र में किसानों के आक्रोश का  आलम यह है कि पार्टी के विधायक तक अपने क्षेत्र में नहीं जा रहे हैं. इसके अलावा भी सरकार और कई मोर्चों पर घिरती जा रही है. मंत्रियों से लेकर प्रशासन के छोटे-से-छोटे अधिकारियों पर आए दिन भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. आलम यह है कि राज्य में प्रशासनिक सेवा से जुड़े कर्मचारियों के अलावा छोटे-से- छोटे कर्मचारी के यहां पड़ रहे छापों में करोड़ों की काली कमाई उजागर हो रही है. अरविंद जोशी और टीनू जोशी के यहां छापे में निकली करोड़ों की काली कमाई तो इस कड़ी में महज एक उदाहरण है. हाल ही में प्रदेश के सागर ग्रुप पर पड़े आयकर विभाग के छापे में जब्त दस्तावेजों में जो डायरी बरामद हुई है उसमें भोपाल नगर निगम आयुक्त मनीष सिंह का भी उल्लेख है. सूत्रों की मानें तो मनीष के नाम के आगे लाखों की रकम लिखी है. आयकर विभाग पूरे मामले की जांच कर रहा है.

भ्रष्टाचार के अलावा नौकरशाहों की कार्यप्रणाली को लेकर भी लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं. आम आदमी तो दूर, सत्तासीन पार्टी के नेता, मंत्री और विधायक भी नौकरशाहों के व्यवहार से पीड़ित नजर आ रहे हैं. हाल ही में भाजपा के वयोवृद्ध नेता, पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर ने नौकरशाहों को लेकर अपनी पीड़ा साझा करते हुए बयान दिया था कि अधिकारी सुनते नहीं हैं. नौकरशाहों के अंदर सरकार का कोई भय नहीं है. ऐसी ही कुछ पीड़ा समय-समय पर प्रदेश के अन्य मंत्री और जनप्रतिनिधि भी जाहिर करते रहते हैं.

इन अवरोधों के अलावा पार्टी के नेताओं और मंत्रियों के वक्त-बेवक्त आने वाले बयान भी पार्टी को न सिर्फ परेशान कर रहे हैं वरन कांग्रेस को भी उस पर हमला करने के लिए पर्याप्त मौके दे रहे हैं.  हाल ही में पार्टी ने वरिष्ठ भाजपा नेता और राज्यसभा सदस्य रघुनंदन शर्मा को प्रदेश उपाध्यक्ष के पद से उनके विवादास्पद बयान के कारण हटा दिया. अपने बयान में शर्मा ने कहा था कि सरकार के मंत्री घोषणावीर हैं और हों भी क्यों नहीं जब उनके मुखिया (मुख्यमंत्री) खुद एक बड़े घोषणावीर हैं. इसके अलावा शर्मा ने प्रदेश के नौकरशाहों को नामर्द भी ठहराया था. शर्मा के इन बयानों से पार्टी इतनी नाराज हो गई कि उसने आनन-फानन में उन्हें पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष पद से हटा दिया. हालांकि पार्टी के ही कई नेता पार्टी के इस निर्णय को उचित नहीं मानते. एक नेता कहते हैं, ‘ शर्मा ने जो कुछ कहा उस पर पार्टी को चिंतन करना चाहिए था. अगर अपने ही चेहरे पर कालिख पुती है तो इसमें आईने का क्या दोष.’ राजनीतिक जानकार इस कार्रवाई को पार्टी के भीतर खत्म हो रहे आंतरिक लोकतंत्र के रूप में भी देख रहे हैं. उनका मानना है कि शर्मा ने कोई नयी बात नहीं कही है. उन्होंने सिर्फ उस सच को बोलने की हिम्मत दिखाई है जिसे भाजपा का हर नेता जानता है. लेकिन पार्टी अनुशासन के कारण कुछ बोलता नहीं. सभी जानते हैं कि घोषणाएं खूब हो रही हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है. योजनाओं का क्रियान्वयन कागजों पर हो रहा है.

ऐसा नहीं है कि शर्मा वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सरकार की आलोचना की है. समय-समय पर अन्य भाजपा नेता भी सरकार और संगठन को घेरते रहे हैं. मंत्री बाबूलाल गौर ने तो प्रदेश के विकास पर ही प्रश्न उठा दिया था. ऐसा नहीं है कि गौर की बयानबाजी शांत हो गई है वरन हर दिन गौर के मुख से कुछ न कुछ ऐसा जरूर निकल जाता है जो पार्टी की फजीहत के लिए पर्याप्त हो गया है. एक अन्य मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने भी अपने अधिकारों में हुई कटौती को यह कहकर प्रस्तुत किया था कि मेरी स्थिति शोले के ठाकुर जैसी हो गई है क्योंकि मेरे हाथ कटे हुए हैं. इन नेताओं की लिस्ट में वित्त मंत्री राघव जी ,वन मंत्री सरताज सिंह, सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन, कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया समेत और कई नाम हैं जो पार्टी और संगठन के लिए आए दिन समस्या खड़ी करते रहते हैं. सबके सामने सरकार की आलोचना करने वाले भाजपा नेताओं से बहुत बड़ी संख्या उन नेताओं की है जो नाम न छापने की शर्त पर सरकार या संगठन की खुले दिल से आलोचना कर रहे हैं. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘बयानबाजी इसलिए हो रही है कि नेताओं में असंतोष है. कुछ लोग अपनी बात खुल कर कह रहे हैं वहीं कुछ मुंह बंद किए हुए हैं.’ वहीं इस मामले पर पत्रिका के मध्य प्रदेश ब्यूरो चीफ धनंजय सिंह कुछ अलग ही राय रखते हैं. उनके मुताबिक, ‘कार्रवाई रघुनंदन शर्मा जैसे लोगों के खिलाफ हो रही है क्योंकि वे इतने पॉवरफुल नहीं हैं. अगर अनुशासन की इतनी ही चिंता है तो ये लोग कैलाश विजयवर्गीय या बाबूलाल गौर पर कार्रवाई करके बता दें.’  

पार्टी अभी इन मामलों से जूझ ही रही थी कि उसे सबसे बड़ा झटका हरदा नगरपालिका चुनाव हारने से लगा. हरदा नगरपालिका में कांग्रेस की जीत के साथ ही भाजपा का लंबे समय से चल रहा चुनावी रथ जीत की पटरी से उतर गया. हाल में हुए विधानसभा के सभी उपचुनाव और नगरीय निकायों के सभी चुनाव भाजपा ने जीते. कुक्षी, सोनकच्छ और जबेरा जैसे कांग्रेसी गढ़ों में भगवा फहराने के साथ ही भाजपा ने मंडीदीप जैसे नगरीय निकाय के चुनाव में जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. पार्टी हर चुनाव में जीतती आ रही थी, लेकिन जीत की यह यात्रा हरदा नगरपालिका चुनाव में आकर रुक गई. हालांकि नगरपालिका चुनाव परिणाम के प्रभाव को बहुत बड़े स्तर पर नहीं देखा जा सकता है. कोई और राज्य होता तो शायद इसकी चर्चा भी नहीं होती, लेकिन पिछले कुछ समय से मध्य प्रदेश में नगरपालिका चुनाव भी कुछ इस अंदाज में हो रहे हैं मानो लोकसभा का चुनाव हो रहा है.

इन नगरीय निकाय चुनावों तक में भाजपा मुख्यमंत्री से लेकर लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज समेत तमाम मंत्रियों और विधायकों को झोंक रही है. जब नगरपालिका जीतने के लिए इस तरह से युद्धस्तर की तैयारी की जा रही हो तो फिर परिणाम महत्वपूर्ण हो जाता है. कुछ ऐसी ही तैयारी से भाजपा ने मंडीदीप नगरपालिका पर अपना परचम फहराया. लेकिन इस बार हरदा में उसे अनपेक्षित रूप से हार का सामना करना पड़ा. भाजपा का हरदा नगरपालिका का चुनाव हारना उसके लिए जहां एक बड़ा झटका है वहीं कांग्रेस जो राज्य में लंबे समय से मरणासन्न पड़ी हुई है उसके लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है.

खैर, अभी विधानसभा चुनाव होने में दो साल का वक्त है और इन दो साल में काफी कुछ बन-बिगड़ सकता है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपनी आंतरिक कमियों, नौकरशाही की गड़बड़ियों और पिछले आठ साल में पार्टी और सत्ता विरोधी लहर से किस तरह निपटती है.