आंदोलन की आंच

सालाना परीक्षाएं अनिश्चितकाल के लिए टल गई हैं और सारा काम-काज ठप पड़ा है. यह हाल उत्तराखंड स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय का है जो पिछले एक पखवाड़े से आंदोलन की आग में जल रहा है. विश्वविद्यालय के छात्रों और कर्मचारियों के बाद अब सामाजिक संगठन और राजनीतिक दल भी इस आंदोलन में कूद गए हैं. नतीजा यह है कि इस विश्वविद्यालय से जुड़े डेढ़ लाख से भी ज्यादा छात्र परेशान हैं.

आंदोलनकारी संगठनों का आरोप है कि ये हालात कुलपति प्रो एसके सिंह की हठधर्मिता के कारण हुए हैं. हालांकि सिंह इससे इनकार करते हुए कहते हैं कि वे नियमों के हिसाब से काम कर रहे हैं. स्थिति जिस तरह की है उससे लगता है कि अब यह आग उच्चस्तरीय राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना शांत होने वाली नहीं.

आंदोलन का फौरी कारण बनीं विश्वविद्यालय में नियुक्तियों के लिए हो रही परीक्षाएं और साक्षात्कार. 28 मार्च को सहायक कुलसचिव के पांच और जनसंपर्क अधिकारी के एक पद के लिए लिखित परीक्षा होनी थी. इसके नतीजे भी उसी दिन आने थे. अगले दिन साक्षात्कार होना था. परीक्षार्थियों को लिखित परीक्षा में कई खामियां नजर आईं. उन्होंने फौरन इस बारे में कुलपति को एक लिखित ज्ञापन दे दिया. परीक्षार्थियों का आरोप है कि देर शाम लिखित परीक्षा के नतीजे घोषित होते ही साफ-साफ नजर आने लगा कि इन खामियों का संबंध भाई-भतीजावाद से है.

इस परीक्षा का समन्वयक प्रो एके श्रीवास्तव को बनाया गया था. श्रीवास्तव मूल रूप से विश्वविद्यालय में कॉमर्स के प्रोफेसर हैं. विश्वविद्यालय में कोई पूर्णकालिक वित्त नियंत्रक नियुक्त नहीं है और उन्हें ही इस ताकतवर और मलाईदार पद का भी अतिरिक्त भार दिया गया है. छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और अब विश्वविद्यालय में ही काम कर रहे मनोज नेगी ने कुलपति को भेजे ज्ञापन में आरोप लगाया है कि लिखित परीक्षा का पैटर्न विश्वविद्यालय द्वारा जारी किए गए विज्ञापन में बताए गए पैटर्न से उलट था. ज्ञापन में यह भी आरोप लगाया गया है कि आवेदकों की न तो स्क्रूटनी की गई थी न ही उन्हें रोल नंबर दिए गए थे. विश्वविद्यालय ने  परीक्षार्थियों को भेजे प्रवेश पत्रों पर न तो उनके नाम लिखे थे और न ही फोटो चिपकाए थे. यानी परीक्षार्थी की सही पहचान के लिए कुछ भी सुनिश्चित नहीं किया गया था. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी के बदले कोई और भी आसानी से परीक्षा दे सकता था. परीक्षा में शामिल हुए कई लोग आशंका जताते हैं कि यह सब समन्वयक ने अपने चहेते प्रत्याशियों को फायदा पहुंचाने के लिए किया.

विज्ञापन के अनुसार परीक्षा में सारे प्रश्न बहुविकल्पीय आने थे. लेकिन परीक्षार्थियों के मुताबिक प्रश्नपत्र में खाली स्थान भरो और सही व गलत के विकल्प वाले प्रश्न भी थे. प्रश्नपत्र के फोटो स्टेट होने से भी गंभीर सवाल खड़े होते हैं. इस परीक्षा के उत्तर का विकल्प भरने के लिए दी गई ओएमआर शीट में रोल नंबर के साथ-साथ नाम भी लिखे गए. जबकि इस शीट का मकसद ही परीक्षार्थी की पहचान को हर तरह से छिपाना होता है. एक परीक्षार्थी कहते हैं, ‘जब बहुविकल्पीय प्रश्नों के अलावा अन्य प्रश्नों के उत्तर  प्रश्नपत्र पर ही लिखने थे तो ओएमआर शीट देने का नाटक क्यों किया गया?

यह परीक्षा उन पदों के लिए हो रही थी जिन पर चुने जाने वाले परीक्षार्थी भविष्य में विश्वविद्यालय में होने वाली हर परीक्षा की जिम्मेदारी संभालेंगे. यही वजह है कि विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ प्रोफेसर मायूसी के साथ कहते हैं, ‘इस तरह पास होकर आए लोग कैसे परीक्षा की गोपनीयता और मर्यादा को समझ पाएंगे?’

आंदोलनकारियों का सीधा आरोप है कि परीक्षा समन्वयक श्रीवास्तव ने इस परीक्षा में अपने करीबियों को पास कराने के लिए यह सब किया था. यह भी एक संयोग ही था कि सहायक कुलसचिव और जनसंपर्क अधिकारी दोनों पदों पर लिखित परीक्षा में अच्छे अंक पाने वाले कुछ अभ्यर्थी श्रीवास्तव ही थे. आरोप लग रहे हैं कि इन प्रशासनिक पदों पर अपने नजदीकियों को घुसा कर एक लॉबी भविष्य में भी विश्वविद्यालय प्रशासन पर अपना कब्जा जमाए रखना चाहती है.

29 मार्च को परीक्षार्थियों ने साक्षात्कार होने नहीं दिए और विश्वविद्यालय में तालाबंदी कर दी. इसके बाद कुलपति ने लिखित परीक्षा में हुई गड़बड़ियों के लिए एक जांच समिति बना दी. शाम को जांच समिति ने परीक्षा में गड़बड़ी की आशंका को तो नकार दिया लेकिन स्वीकार किया कि प्रश्नपत्र का  पैटर्न अलग था. इस रिपोर्ट के आधार पर कुलपति ने इस परीक्षा की प्रक्रिया को निरस्त कर दिया.

लेकिन इससे लोगों का गुस्सा शांत होने की बजाय और भड़क गया. परीक्षार्थियों ने 30 मार्च से आंदोलन का एलान कर दिया. कर्मचारी संघ, संविदा पर काम करने वाले अध्यापकों और विश्वविद्यालय के अध्यापकों का एक बड़ा वर्ग भी अपनी-अपनी मांगों के साथ आंदोलन में कूद पड़ा. वित्त नियंत्रक श्रीवास्तव को उनके अतिरिक्त पदभार से हटाने के अलावा आंदोलनकारियों की मांगें में नौ और मांगें जुड़ गईं. 31 मार्च को वित्त नियंत्रक ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.

सूत्रों के मुताबिक राजनीतिक आकाओं के हस्तक्षेप से नियुक्ति पाए एक-एक परिवार के कई कर्मियों के समूह विश्वविद्यालय में मौजूद हैं

अब स्थिति यह है कि विश्वविद्यालय बचाओ आंदोलन एक सूत्रीय कुलपति हटाओ आंदोलन में बदल गया है. आंदोलनकारियों का आरोप है कि कुलपति हठधर्मी हैं और उन्हें एक चौकड़ी ने घेर रखा है, जिसमें शामिल होने की शर्त योग्यता नहीं बल्कि चाटुकारिता है. पूर्व छात्र नेता और आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष इंद्रेश मैखुरी आरोप लगाते हैं कि कुलपति ने संदेहास्पद अंक तालिका वाले प्रो एलजे सिंह को परीक्षा ओएसडी बना रखा है. वे कहते हैं, ‘संदेहास्पद अंक तालिका के बल पर नौकरी पाने वाले व्यक्ति से निष्पक्ष परीक्षा संपन्न कराने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?’

हालांकि तहलका से बातचीत में कुलपति सिंह इन आरोपों से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘विश्वविद्यालय में कई पदों पर पूर्णकालिक अधिकारी नियुक्त नहीं हैं. इसलिए जो भी इन अतिरिक्त जिम्मेदारियों को कार्यकुशलता और निष्पक्षता के साथ निबाहे मैं उसे जिम्मेदारी देने को तैयार रहता हूं.’ सिंह आगे कहते हैं कि वे खुद के ऊपर लगने वाले आरोपों की जांच सीबीआई तक से कराने के लिए तैयार हैं.

आंदोलनकारियों ने कुलपति के विरुद्ध 18 आरोपों वाली एक चार्जशीट जारी करके उसे ज्ञापन के रूप में राष्ट्रपति भवन और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय भेजा है. चूंकि यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसलिए कुलपति को उनके पद से हटाने का अधिकार राष्ट्रपति को ही है. आंदोलनकारी संगठनों ने नौ अप्रैल, 2012 को मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से मिलकर आरोप पत्र उन्हें भी सौंपा. मुख्यमंत्री ने उनकी मांगों पर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल से वार्ता करके निष्पक्ष जांच का भरोसा दिया.

वैसे गहराई से देखा जाए इस आंदोलन की जड़ें, सहायक कुलसचिव के पदों के लिए परीक्षा दे रहे  500 लोगों की शिकायत से कहीं आगे जाती हैं. 1976 में खुला गढ़वाल विश्वविद्यालय 36 साल तक राज्य विश्वविद्यालय था. तब दाखिले से लेकर नियुक्ति और प्रमोशन तक हर नियम यहीं बदला जा सकता था. हर आंदोलन की सुनवाई राज्य में ही हो जाती थी. लेकिन 15 जनवरी, 2009 को इसके केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद ऐसा होना संभव नहीं रह गया. अब अनियमितताओं की शिकायत राज्य की बजाय दिल्ली में ही हो सकती थी.

केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद विश्वविद्यालय में छात्रों ने उत्तराखंड मूल के छात्रों के लिए दाखिले में निश्चित कोटा रखे जाने की मांग को लेकर भी आंदोलन किए. स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार नियुक्तियों को लेकर भी कई बार मांगें उठीं और आंदोलन हुए. लेकिन आंदोलनकारियों के पास ऐसा कोई माध्यम नहीं था जिसके जरिए वे दिल्ली तक अपनी बात दमदार तरीके से पहुंचा पाते. जानकार बताते हैं कि तीन साल के दौरान कई गलत फैसलों से अंदर ही अंदर पनप रहे गुस्से का लावा इस बार धमाके से फूट पड़ा है.

मौजूदा आंदोलन के कुछ तार गुटबंदी से भी जुड़ते हैं. जानकार बताते हैं कि राज्य विश्वविद्यालय के समय अनेक पद भाई-भतीजों को दिए गए. सूत्रों के मुताबिक पूर्व कुलपतियों के नातेदारों और राजनीतिक आकाओं के हस्तक्षेप से नियुक्ति पाए एक-एक परिवार के कई कर्मियों के समूह विश्वविद्यालय में मौजूद हैं. इस सिफारिशी लॉबी को भी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कड़े कानून पसंद नहीं हैं.

एक वर्ग का मानना है कि इस विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने के फैसले में ही खामी थी. गढ़वाल विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष डॉ हेमंत बिष्ट बताते हैं, ‘इसकी बजाय तब एक नया केंद्रीय विश्वविद्यालय किसी दूरस्थ पर्वतीय स्थान पर  बनाया जाना चाहिए था. इसलिए ताकि केंद्र सरकार के पैसे से बनने वाला वह विश्वविद्यालय कार्यकाल की शुरुआत से ही केंद्र के कड़े मानकों का पालन करता.’ गढ़वाल विश्वविद्यालय के साथ उस समय 13 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय बने थे और केवल दो अन्य को राज्य से केंद्रीय विश्वविद्यालय में बदला गया. केंद्रीय विश्वविद्यालय में गढ़वाल विश्वविद्यालय की लगभग 18,00 करोड़ रु की संपत्ति भी शामिल की गई है, जबकि नए बनने वाले विश्वविद्यालयों को पूरा धन केंद्र ने दिया. इसलिए भी स्थानीय स्तर पर आक्रोश है.

फिलहाल सभी पक्ष अपनी-अपनी शिकायतों पर सुनवाई की बाट जोह रहे हैं और डेढ़ लाख से ज्यादा छात्र विश्विविद्यालय खुलने की.