अल्पसंख्यकों के लिए

अल्पसंख्यक दो प्रकार के होते हैं: एक वे जो बहुसंख्यक हैं पर अपने को अल्पसंख्यक कहकर, उम्दा रोजगार और उम्दा तालीम के सिवा, अपनी सनक और समझ के अनुसार सरकार से कोई भी मांग कर सकते हैं, दूसरे वे जो इतने अल्पसंख्यक हैं कि अपनी पहचान बनाए रखने के लिए वे सरकार को बराबर कुछ देते रहते हैं, उससे कुछ खींच नहीं पाते. उदाहरण के लिए, दूसरी कोटि के अल्पसंख्यक उत्तर प्रदेश के रोमन कैथोलिक हैं, उनकी संख्या सिर्फ हजारों में है, लाखों में नहीं. वे प्राय: विपन्न पर खामोश, परिश्रमी और आत्मसम्मानी लोग हैं. उत्तर प्रदेश की सबसे उम्दा शिक्षा संस्थाएं उन्होंने स्थापित की हैं, उन्हें वही चला रहे हैं.

पहली कोटि के अल्पसंख्यक हमारे बहुसंख्यक मुसलमान भाई हैं. अपनी पहचान या अस्मिता कायम रखने की चिंता अगर किसी को है तो इन्हीं को, उत्तर प्रदेश के कैथोलिक ईसाइयों, महाराष्ट्र के पारसियों या गुजरात के यहूदियों को नहीं. मुसलमान दंगे-फसाद से घबराए रहते हैं जो कि सचमुच ही चिंतनीय है, पर उससे भी ज्यादा वे घबराए हुए हैं कि हिंदुस्तान की सरकार कहीं उन पर एक से ज्यादा बीवियों को तलाक देने की प्रक्रिया दिक्कततलब न बना दे, कहीं उर्दू का नामोनिशान न खत्म कर दे, हजयात्रियों को मिलने वाले अनुदान में कहीं कटौती न हो जाए, आदि-आदि.

इस हालत में केंद्र सरकार और राज्यों को क्या करना चाहिए? यह सवाल ज्यादा मुश्किल नहीं है. अगर इन अल्पसंख्यकों के नेताओं की मांगें जांची जाएं तो साफ है कि उनको आधुनिक तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा की खास जरूरत नहीं है, कुरान की तालीम देने वाले मदरसों से वे संतुष्ट हैं, रोटी की जगह कुछ उत्तरी और मध्यवर्ती राज्यों में उर्दू को राजभाषा बनाकर उन्हें परोस दीजिए, उनका काम चल जाएगा. फिर भी अगर उन्हें लगे कि उनकी सही पहचान नहीं हो रही है तो, जैसा कि केरल में हुआ है, उन्हें शुक्रवार की छुट्टी देना शुरू कर दीजिए.

यही छुट्टी वाली तरकीब काफी पुरानी और आजमाई हुई है. अंग्रेजी हुकूमत में मालाबार के मुस्लिम बहुल स्कूल शुक्रवार को काफी देर बंद रहते थे. 1967 में मार्क्सवादी मुख्यमंत्री नंबूदरीपाद महाशय ने कुछ क्षेत्रों में शुक्रवार का अवकाश घोषित किया. उनकी निगाह में यह धर्मनिरपेक्षता की और उनकी सहयोगी मुस्लिम लीग की निगाह में मुस्लिम अस्मिता की जीत थी. यह कायदा तब मल्लापुरम इलाके में लागू हुआ. अब केरल की मौजूदा सरकार ने मुस्लिम शिक्षालयों में शुक्रवार को छुट्टी का पुख्ता इंतजाम कर दिया है.

अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और उसी रंग-रेशे के दूसरे संगठन-जो अपनी अस्मिता के लिए मुसलमानों ही की तरह व्याकुल हैं- इसे अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण बताएं तो इसका भी इलाज है. उनके स्कूलों में मंगलवार का अवकाश दे दें ताकि उस दिन वे लाल लंगोटे वाले की आराधना कर सकें. शर्त सिर्फ यह रहे कि चाहे हिंदू हो या मुसलमान, रविवार की छुट्टी सबके लिए बरकरार रहे.

इसके अलावा और क्या किया जाए? आप चाहे भाजपा के अध्यक्ष ही क्यों न हों, मुस्लिम नेताओं को बुलाकर रमजान में इफ्तार की दावत जरूर दें. संक्षेप में, अगर अपने समाज की पहचान पक्की बनाने के लिए उसके नेता उसे पंद्रहवीं सदी में लिए जा रहे हों तो सरकार की नीति उन्हें और पीछे खिसकाकर तेरहवीं सदी में ले जाने की हो सकती है. यह अल्पसंख्यकों का आदर्श तुष्टीकरण होगा. पीछे जाने की उनकी महत्वाकांक्षा को इतना उत्तेजित किया जाए कि वे एक आधुनिक सभ्य समाज की जगह गुलिवर ट्रैवल्सके याहू बनने का भरपूर मौका पा सकें.