योगी आदित्यनाथ

बबलखतेयोगी 2007 में सुरक्ा वापस दलए जानेसे घबराए योगी आदित्यनाथ संसि भवन में रो पड़े
बबलखतेयोगी 2007 में सुरक्ा वापस दलए जानेसे घबराए योगी आदित्यनाथ संसि भवन में रो पड़े
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गोरखनाथ मंदिर केप्रांगण में हर दिन योगी अपने समथर्कों का मजमा लगाते हैं. फोटोः तहलका आर्काईव

100 दिन का जमा हासिल नापने का रिवाज अमेरिका में शुरू हुआ था. हमारे देश में यह परंपरा नई-नई है. यूपीए-2 की सरकार ने पहली बार खुद को सौ-दिनी सांचे में दिखाने का प्रयास किया था. नरेंद्र मोदी ने इस परंपरा को संजीदगी से आगे बढ़ाया है. नई सरकार के लिहाज से यह महत्वपूर्ण था क्योंकि अर्थव्यवस्था से लेकर आम जनता तक का विश्वास पिछली सरकार से बुरी तरह हिला हुआ था. सौ दिनों के कार्यकाल में मोदी सरकार ने कई मोर्चों पर उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैंः अर्थव्यवस्था में सुधार के प्रयास दिख रहे हैं, विदेश नीति के कल-पुर्जे चुस्त-दुरुस्त दिख रहे हैं, न्यायिक सुधार की दिशा में सरकार बढ़ रही है और पर्यावरण के मोर्चे पर भी संवेदनशीलता दिखी है.

इन्ही सौ दिनों में सरकार और सत्ताधारी पार्टी ने कुछ ऐसे कदम भी उठाए हैं जिनसे कुछ तबकों में संशय पैदा हुआ हैः भूमि अधिग्रहण अधिनियम को सरकार बदलना चाहती है, मुजफ्फरनगर दंगों के एक आरोपी विधायक संगीत सोम को जेड प्लस सुरक्षा मुहैया करवाई गई, लव जिहाद जैसा जुमला भाजपा की फोरमों में बहस का हिस्सा बन गया है और इन सबसे ऊपर एक समुदाय के खिलाफ सीधा आग उगलने वाले योगी आदित्यनाथ को पार्टी ने अनपेक्षित रूप से तरजीह देना शुरू कर दिया है. हाल ही में एक ऐसा वीडियो सामने आया जिसमें योगी आदित्यनाथ एक हिंदू बालिका के बदले 100 मुसलिम लड़कियों का धर्मांतरण करवाने की अपील कर रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में होने वाले 11 विधानसभा और एक लोकसभा उपचुनाव के लिए पार्टी ने उन्हें प्रचार प्रमुख नियुक्त कर दिया.

बीते कुछ वर्षों के दौरान योगी आदित्यनाथ की राजनीति एक प्रकार से सुप्तावस्था में थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली चमत्कारिक सफलता के बाद वे अचानक बड़ी तेजी से उभरे हैं. इसका पता इस बात से भी चल जाता है कि लोकसभा में पार्टी के वरिष्ठ नेता और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी के बावजूद सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा जैसे संवेदनशील मसले पर बहस की शुरुआत योगी से करवाई. इस दौरान योगी ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया उसकी अपेक्षा संविधान की शपथ लेनेवाले किसी व्यक्ति से संसद में नहीं की जाती.

इसके बाद से योगी आदित्यनाथ एक के बाद एक विवादित बयान दिये जा रहे हैं. उनका ताजा जुमला है- ‘मुलायम सिंह यादव को पाकिस्तान जाकर बस जाना चाहिए’. लव जिहाद जैसे कथित मसले पर वे एक समुदाय विशेष को चेतावनी वाली भाषा में सुधर जाने की नसीहत देते हैं. उन्होंने आंकड़ों की बाजीगरी वाला एक ऐसा बयान भी दिया जिसके मुताबिक जहां मुसलिम अधिकता में रहते हैं वहां हिंदुओं का जीना मुहाल हो जाता है.

ऐसे तमाम विवादों के बावजूद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से खुद को योगी के बयानों से अलग करने या उसका खंडन करने की आधी-अधूरी कोशिश भी नहीं दिखी. 13 सितंबर को हुए उपचुनावों से कुछ पहले तहलका से बातचीत में पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रवक्ता मनोज मिश्रा कहते हैं, ‘वे पांच बार पार्टी के सांसद रहे हैं और समर्पित कार्यकर्ता है. इसलिए पार्टी उन्हें कुछ न कुछ काम तो देगी ही. पार्टी अध्यक्ष ने उनके महत्व और प्रतिष्ठा के अनुकूल काम उन्हें सौंपा है.’

उन्होंने गोरखपुर के कई मुहल्लों के नाम जबरन बदलवा दिए. शहर का उर्दू बाजार, हिंदी बाजार बन गया, अली नगर, आर्य नगर और मियां बाजार, माया बाजार हो गया

मिश्रा की बात ठीक हैं. योगी उत्तर प्रदेश की गोरखपुर लोकसभा सीट से लगातार पांचवीं बार जीत दर्ज कर लोकसभा पहुंचे हैं. लेकिन उनकी राजनीति का पहिया विकास के ईंधन से नहीं घूमता. उसे ऊर्जा मिलती है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से. योगी का जो मौजूदा चेहरा हम आज देख रहे हैं, सियासी गलियारों से लेकर गली-मुहल्लों में जिसकी चर्चा है, वह उनकी राजनीति का जांचा-परखा फार्मूला है. जब से उन्होंने सक्रिय राजनीति में कदम रखा है उनके समर्थकों का एक ही नारा रहा है- ‘गोरखपुर में रहना है तो, योगी-योगी कहना है’. उनकी अपनी वेबसाइट पर लव जिहाद और मुसलिम समुदाय पर जो राय लिखी गई है वह कुछ यूं है – ‘लव जिहाद क्या है? लव जेहाद एक ऐसी विचित्र अवस्था है, जिसमंे खुशबू में रहनेवाली एक लड़की बदबूदार प्राणी के आकर्षण में पड़ जाती है, एक ऐसी दुनिया जहां एक लड़की अपने सभ्य माता-पिता को छोड़ ऐसे माता- पिताओं के पास पहुंच जाती है जो पूर्व में भाई-बहन भी रहे होंगे. अपने आंगन की चहचहाती चिड़ियों और पूजाघर की घंटियों को छोड़, ऐसे आंगन में पहुंच जाना जहां खाना, पखाना और मुर्गियों का दड़बा एक ही बरांडे में मिलें. अपने पवित्र रिश्तोंवाले भाई-बहनों के सुनहरे संसार को अलविदा कहकर ऐसी दुनिया में चले जाना जहां रिश्तों की कोई कीमत नही और औरत की देह ही साध्य हो. जिस दुनिया में स्त्री को देवी समझ कर पूजा जाता हो उसे त्याग ऐसी दुनिया में चले जाना जहां औरत के लिए हर नौंवें महीने बच्चा जनना बाध्यता हो. जहां लव जिहाद में फंसी लड़की की अपनी कोई धार्मिक स्वतंत्रता नहीं हो. और अगर किसी लड़की को इसके बाद भी आत्मबोध हो जाए और वह बगावत कर दे तो 10-20 लोगों की हवस पूर्ति के बाद किसी कोठे पर बेच दी जाए. यही है लव जेहाद.’

योगी आदित्यनाथ के अब तक के राजनीतिक सफर का एक परिवर्तन बिंदु भी है. यह बिंदु है साल 2007. इससे पहले के योगी और इसके बाद के योगी में जमीन-आसमान का अंतर दिखता है. इस अंतर और इसके जरिए योगी आदित्यनाथ और उनकी राजनीति को समझने के लिए हमें साल 2007 में और उसके आगे-पीछे घटी घटनाओं के बारे में जानना होगा.

बबलखतेयोगी 2007 में सुरक्ा वापस दलए जानेसे घबराए योगी आदित्यनाथ संसि भवन में रो पड़े
 2007 में सुरक्षा वापस लिए जाने से घबराए योगी आदित्यनाथ संसद भवन में रो पड़े

1998 में पहली बार लोकसभा पहुंचने से लेकर 2007 के बीच गोरखपुर और इसके आसपास के इलाकों में योगी आदित्यनाथ ने अपना सियासी प्रभाव फैलाना शुरू किया था. इसके लिए उन्होंने हिंदु युवा वाहिनी नाम से अपना एक संगठन गोरखपुर, बस्ती, देवरिया, आजमगढ़, कुशीनगर, गाजीपुर आदि जिलों के गांव-गांव में खड़ा किया. गोरखपुर में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता चतुरानन ओझा कहते हैं, ‘यह संगठन मूलत: बेरोजगार युवाओं और अपराधी किस्म के लोगों का जमघट था. ये लोग योगी की शह पर जगह-जगह मुसलमानों पर हमले करते, छोटी-छोटी बातों को सांप्रदायिक तनाव में बदलने का काम करते थे.’

इस संगठन के जरिए योगी ने अपना प्रभाव गोरखपुर की सीमा से बाहर फैलाना शुरू कर दिया. इस दौरान होता यह था कि लगभग हर छोटी-मोटी बात पर योगी अपने लावलश्कर के साथ खुद ही घटनास्थल पर पहुंच जाते थे और शासन-प्रशासन की हालत बंधक जैसी हो जाती. उनकी इस अतिवादी राजनीति के चक्कर में इन नौ सालों के दौरान गोरखपुर में छह-सात बार जिलाधिकारी और पुलिस प्रमुखों के तबादले हुए. इन्हीं अधिकारियों में से एक तहलका के साथ बातचीत में कहते हैं, ‘हिंदु युवा वाहिनी असल में छोटे-मोटे अपराधियों की शरणगाह बन गया था. कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षावाले लोग भी जुड़े थे जो समय के साथ धीरे-धीरे उनसे दूर हो गए. योगी खुद ही हर जगह पहुंचकर अधिकारियों से गालीगलौज करते थे और अपने मनमुताबिक कार्रवाई करने का दबाव डालते थे.’

योगी के तौर-तरीकों का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने गोरखपुर के कई ऐतिहासिक मुहल्लों के नाम जबरन बदलवा दिए. शहर का उर्दू बाजार, हिंदी बाजार बन गया, अली नगर, आर्य नगर हो गया, मियां बाजार, माया बाजार हो गया. योगी का तर्क है कि देश की पहचान हिंदी और हिंदू से है. बकरीद के पहले गांव-गांव से युवा वाहिनी के लोग मुर्गों और बकरों को उठा ले जाते थे ताकि कुर्बानियां न हो सकें. इन नौ सालों में गोरखपुर और आसपास के जिलों में 30-40 छोटी-मोटी सांप्रदायिक वारदातें हुईं. मजे की बात यह है कि उनके इन कारनामों से भाजपा अक्सर दूर ही रहती थी, खुद योगी भी भाजपा के समानांतर अपनी हिंदु युवा वाहिनी खड़ी कर चुके थे लिहाजा वे भी भाजपा को अपने इन आक्रामक अभियानों से दूर ही रखते थे.

गोरखपुर समेत देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रतिरोध का सिनेमा नाम से फिल्म महोत्सव आयोजत करने वाले मनोज कुमार सिंह बताते हैं, ‘पार्टी से इनका रिश्ता खट्टा-मीठा रहता था. शुरुआत में तो ये भाजपा को भाव भी नहीं देते थे. 2007 के विधानसभा चुनाव में इन्होंने हिंदू युवा वाहिनी के बैनर तले अपने लोगों को चुनाव तक लड़ा दिया था. यही स्थिति पार्टी की भी थी. वह इन्हें अपने मन मुताबिक इस्तेमाल करती फिर वापस बिठा देती.’ शुरुआती दिनों में योगी की कार्यशैली खुद को बाल ठाकरे की तर्ज पर एक इलाकाई मसीहा और आजाद शख्सियत के तौर पर स्थापित करने की थी. 2002 में गुजरात के दंगों के बाद योगी की यह इच्छा और भी बलवती हो गई थी. उनके समर्थकों का तब सबसे प्रिय नारा हुआ करता था, ‘यूपी भी गुजरात बनेगा, गोरखपुर शुरुआत करेगा.’

2007 के बाद उनकी उग्रता कम हो गई है. वे समझदार भी हुए हैं. पहले वे अधिकारियों से गाली-गलौज करते थे पर अब ऐसा नहीं करते हैंे

अंतत: 2007 में योगी की सालों से चल रही धर्म की राजनीति अपने वीभत्स अंजाम तक पहुंच गई. शहर और उसके आसपास के इलाकों में हिंदू-मुसलिम दंगे हो गए. इसमंे दो लोगों की जान चली गई. सैंकड़ों मकान और दुकान फूंक दिए गए. कई दिनों तक गोरखपुर में कर्फ्यू लगा रहा. तत्कालीन डीएम डॉ हरिओम ने योगी को गिरफ्तार कर लिया. एक बार फिर से जिले के डीएम और एसपी का तबादला कर दिया गया. मनोज सिंह के मुताबिक अक्सर योगी खुद स्थितियों को इस हालात तक पहुंचा देते थे कि तनाव बढ़ जाता था और उसे घटाने के लिए सरकार को स्थानीय अधिकारियों का तबादला करना पड़ता था. योगी अधिकारियों के तबादले का इस्तेमाल अपनी छवि और प्रतिष्ठा चमकाने के लिए करते थे. उनके समर्थकों के बीच यह संदेश आसानी से चला जाता था कि शासन और प्रशासन उनके आगे हमेशा झुकता है. इसके चलते योगी की प्रतिष्ठा अपने इलाके में रॉबिनहुड सरीखी हो गई थी. इलाके के गरीब-गुरबा उनके ओसारे में फरियाद करने पहुंचते, हर दिन वहां दरबार लगता, कुछ की मुश्किलें हल होती, कुछ को सांत्वना मिल जाती.

प्रशासन पर योगी के लगातार बढ़ते दबाव और इसके खतरों को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना रुख कड़ा कर लिया. दंगों के बाद सरकार ने जगमोहन सिंह यादव जैसे तेज-तर्रार अधिकारी को गोरखपुर मंडल का डीआईजी बनाकर भेजा. उनके नेतृत्व में बड़े पैमाने पर योगी का कद छांटने की कवायद शुरू की गई. सबसे पहली चोट उनकी ताकत बन चुकी युवा वाहिनी पर की गई. गांव-गांव में पुलिस दस्ते बनाकर युवा वाहिनी के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को उठाया गया, उनके अपराधों के अनुपात में उनके ऊपर मुकदमे कायम किए गए और कइयों को पुलिसिया लाठी से ही सीधे रास्ते लाने का काम किया गया. लगभग सालभर के भीतर युवा वाहिनी का पूरा संगठन तितर-बितर हो गया.

इस प्रशासनिक दबाव से उत्पन्न स्थितियों में 12 मार्च 2007 की एक घटना महत्वपूर्ण हो जाती है. दंगों में आरोप के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने योगी को दी गई सुरक्षा भी वापस ले ली थी. संगठन की पतली हालत और सरकार के बेरुखे रवैए से परेशान योगी संसद भवन में अपनी बात रखने के लिए खड़े हुए तो पहले तो काफी देर तक कुछ कह नहीं सके और फिर फफक-फफक कर रो पड़े. बाद में उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी से अपील की कि उनकी जान को खतरा है, उनकी सुरक्षा वापस ले ली गई है और यही हालत रही तो उन्हें भी झामुमो नेता सुनील महतो की तरह मार दिया जाएगा (उसी समय नक्सलियों ने सुनील महतो की हत्या की थी). हिंदू हृदय सम्राट की इस भावुकता पर जितने मुंह उतनी कहानियां बनी. उनके समर्थक इसे योगी के संवेदनशील और भावुक हृदय की वेदना बताते रहे जबकि विरोधी कहते हैं कि योगी वास्तव में डरपोक किस्म के आदमी हैं जो भीड़ के भरोसे हिंसा फैलाते हैं. बहरहाल इस घटना से उनकी कठोर, आक्रामक छवि काफी हद तक धूमिल हुई.

संगठन की पतली हालत और सरकारी दबाव के चलते योगी की उग्र राजनीति को विराम लग गया. 2007 से पहले गोरखपुर के डीएम रहे एक आईएएस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘2007 के बाद उनकी उग्रता कम हो गई. वे समझदार भी हुए हैं. पहले वे अधिकारियों से गाली-गलौज करते थे पर अब नहीं करते. यह मठ की प्रतिष्ठा के खिलाफ था. खुद घटनास्थल पर जाकर धावा नहीं बोलते. धरना-प्रदर्शन यदि करते भी हैं तो प्रशासन के समझाने पर उठ जाते हैं. पहले उनका रवैया बेहद अक्खड़ हुआ करता था. समय के साथ वे समझ गए हैं कि प्रशासन के साथ तालमेल बिठाकर चलना कितना जरूरी है.’ यह समझदारी उनकी राजनीति में भी झलकती दिखाई दी. जिस तरह से उन्होंने 2007 के विधानसभा चुनावों में पार्टी के साथ टकराव मोल लिया था वह 2014 के लोकसभा चुनाव में नहीं दिखा. तब भी नहीं जब उनके एकमात्र समर्थक कमलेश पासवान को बांसगांव लोकसभा से टिकट दिया गया.

90 के दशक के आखिरी दिनों में पूर्वांचल और गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के उभार के पीछे उस इलाके की जातिगत राजनीति की भी बड़ी भूमिका रही. योगी आदित्यनाथ का असली नाम अजय मोहन बिष्ट है. वे उत्तराखंड के पौड़ी जिले में पड़ने वाली यमकेश्वर तहसील के मूलवासी हैं. चार भाइयों और तीन बहनों में तीसरे अजय सिंह (योगी आदित्यनाथ का एक और नाम) पर गोरखनाथ मठ के पूर्व महंत स्वर्गीय अवैद्यनाथ की निगाह पड़ी जो इसी इलाके से आते थे. अवैद्यनाथ उन्हें अपने साथ गोरखपुर ले आए थे. महंत अवैद्यनाथ ने आदित्यनाथ के नाम से उन्हें दीक्षा देकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया. पूर्वांचल का यह इलाका अपने बाहुबली माफियाओं की खेमेबंदी के लिए मशहूर रहा है. इन खेमों की हमेशा से दो धुरियां रही हैं. ये धुरी हैं इलाके की दो प्रमुख सवर्ण जातियां, ठाकुर और ब्राह्मण. लंबे समय तक यहां हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र प्रताप शाही के बीच जातिगत गोलबंदी की हिंसक वारदातें देखने को मिलीं.

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राजनीति के शुरुआती दिनों में योगी का पार्टी से रिश्ता बहुत मधुर नहीं रहता था.

1997 में वीरेंद्र प्रताप शाही एक अन्य उभरते ब्राह्मण माफिया श्रीप्रकाश शुक्ला की गोलियों का निशाना बन गए. इस घटना से इलाके में ठाकुर वर्चस्व का दायरा पूरी तरह खाली हो गया. जाति से ठाकुर योगी ने इस खालीपन को तेजी से भरा. हालांकि इस काम में उनकी अपनी प्रतिभा से ज्यादा योगदान तात्कालिक परिस्थितियों, मठ की प्रतिष्ठा और उसकी आर्थिक संपन्नता का भी था. गोरखपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं, ‘कोई बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं है योगी का. शहर की मेयर डॉ. सत्या पांडेय इनकी घनघोर विरोधी हैं. योगी जी के तमाम विरोध के बावजूद वे भाजपा से मेयर हैं. शहर के विधायक भी योगी के तमाम िवरोध के बावजूद जीते हैं. जिसे आप हिंदू युवा वाहिनी कह रहे हैं उसे वास्तव में ठाकुर युवा वाहिनी कहना ठीक होगा. वे यहां पर जमकर ठाकुरवादी राजनीति करते हैं. ऊपर से लेकर नीचे तक वाहिनी के पदाधिकारियों में ठाकुरों का बोलबाला है.’

इस दौरान गोरखनाथ मठ के आचार-विचार और उसके स्वरूप में आए भटकाव को समझना भी जरूरी है क्योंकि इसका सीधा संबंध योगी की आक्रामक राजनीति से है. इस मठ की मूल अवधारणा को अगर हम समझें तो पाते हैं कि आज यह अपने मूल स्वरूप से बिल्कुल विपरीत धारा में बह रहा है. ग्यारहवीं सदी में हुए संत महंत गोरखनाथ ने इस पीठ की स्थापना की थी. महंत गोरखनाथ उदासीन पंथ के अनुयायी थे. यहां सिर्फ एक अखंड धूनी जलती थी. महान सुधारक कबीरदास के गोरखपुर जाकर प्राण त्यागने की एक प्रेरणा गोरखनाथ के प्रति उनका लगाव भी था. कबीर कहीं न कहीं खुद को गोरखनाथ की निर्गुण धारा के आस-पास ही पाते थे. मठ की दीवारों आदि पर गोरखवाणी के साथ कबीरवाणी भी खुदी हुई है. सिंह के शब्दों में, ‘आज जिस दिशा में योगी आदित्यनाथ मठ को ले जा रहे हैं वह मठ की मूल धारणा के बिल्कुल विपरीत है. जिस मठ की स्थापना निर्गुण परंपरा में हुई थी वहां आज लगभग सारे देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित करके मठ को सनातनी परंपरा से जोड़ दिया गया है. जिस गोरखनाथी संप्रदाय का ये नेतृत्व करते हैं उस गोरखवाणी को जानबूझ कर कभी उद्धृत तक नहीं करते क्योंकि वह इनके मौजूदा क्रिया-कलापों से मेल नहीं खाती.’

गोरखवाणी गाने और आटा मांगनेवाले अधिकतर नाथी मुसलमान हैं. पर अब गोरखनाथ मठ में इनके लिए कोई स्थान नहीं है

नाथ संप्रदाय निर्गुण धारा के लिए पूरे पूर्वी भारत और नेपाल के एक बड़े हिस्से में मशहूर है. काला और भगवा चोला ओढ़े पूर्वांचल और बिहार की गली-गली में घूमकर आटा मांगनेवाले जोगियों का जुड़ाव इसी मठ से है. हाथ में सारंगी लिये ‘अबकी बरस बहुरी नहीं अवना से लेकर केहू ना चिन्ही, माई ना चिन्ही, भाई ना चिन्ही…’ जैसे वैरागी गीत गाने वाले जोगी बाबा असल में इसी मठ के अनुयायी हैं जिन्हें आदित्यनाथ ने जोगी से योगी बना दिया है. गोरखवाणी गाने और आटा मांगने वाले अधिकतर नाथी मुसलमान हैं. पर अब गोरखनाथ मठ में इनके लिए कोई स्थान नहीं है. मठ का हिंदूकरण चालीस के दशक में शुरू हुआ. उस समय मठ के महंत रहे दिग्विजयनाथ ने हिंदू महासभा का हाथ थाम लिया. बाद में वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी बने. 1948 में महंत दिग्विजयनाथ के ऊपर महात्मा गांधी की हत्या के षडयंत्र में शामिल होने का आरोप भी लगा. इस आरोप में वे जेल में भी रहे. बाद में वे जेल से छूट गए. इसके बाद गोरखनाथ मठ लगातार गोरखनाथ मंदिर बनता गया. उनके बाद महंत बने अवैद्यनाथ ने इस परंपरा को उत्तरोत्तर मजबूत किया. इसी पखवाड़े में ब्रह्मलीन हुए महंत अवैद्यनाथ ने 1962 में सक्रिय राजनीति में कदम रख दिया था. उसके बाद से गोरखपुर की राजनीति में किसी न किसी रूप में मठ का हस्तक्षेप बना हुआ है. 1990 में राम मंदिर आंदोलन जब सिर चढ़ रहा था तब मठ की राजनीति ने भी एक नया मुकाम हासिल किया. महंत अवैद्यनाथ किसी महत्वपूर्ण धार्मिक पीठ के पहले पीठाधीश थे जो खुलकर भाजपा के इस आंदोलन के साथ खड़े हुए थे. इसका फायदा भी उन्हें हुआ. वे मंदिर आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक बन गए. 1991 में वे भाजपा के टिकट पर लोकसभा भी पहुंचे. अशोक चौधरी के शब्दों में, ‘सक्रिय राजनीति में एक बार घुसने के बाद से आज तक गोरखपुर की राजनीति में मठ के महंतों का कब्जा बना हुआ है…मठ के महंत के पद पर ठाकुरों को नियुक्त करने की परंपरा चल पड़ी है. यह परंपरा दिग्विजयनाथ ने डाली थी. पहले मठ के महंत पिछड़ी या अति पिछड़ी जातियों के लोग हुआ करते थे. अब यहां धूनी जमानेवालों के लए स्थान नहीं है.’

जाति विशेष (ठाकुर) की राजनीति करने के बावजूद लगातार सफल होते रहने की क्या वजह है? बाकी जातियां इन्हें क्यों समर्थन देती हैं? स्थानीय लोगों से बातचीत में साफ होता है कि उनका समर्थन असल में व्यक्ति को नहीं बल्कि मठ और उसके प्रति श्रद्धा को जाता है. प्रारंभ से ही जिस धारा का सूत्रपात इस मठ ने किया था उसके चलते समाज का पिछड़ा और दलित तबका उससे बहुत लगाव महसूस करता था. आज भी इलाके की सबसे बड़ी दलित जाति निषाद, मठ को आंख मूंदकर समर्थन देती है.

2007 के घटनाक्रम के बाद योगी ने अपनी राजनीति की दिशा मोड़ दी. अब वे उग्रता की राजनीति न करके विकास और सुशासन की बात करने लगे. उन्हें नजदीक से जाननेवालों की मानें तो यह व्यक्ति कई मायनों में  नाम का ही नहीं, काम का भी योगी है. सवेरे तीन बजे उठना, रात में 11 बजे सोना. गोरखनाथ मंदिर में जाकर देखें तो इसका विशाल प्रांगण किस्म-किस्म के लोगों से चौबीसों घंटे भरा रहता है. किसी फिल्मी सामंत की तरह योगी के दरबार में सिर्फ एक कुर्सी होती है. जिस पर वे बैठते हैं और जनता की समस्याएं सुनते और दूर करते हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान मंदिर का अपना आयुर्वेदिक अस्पताल योगी के दिशा-निर्देश में सुपर मल्टी स्पेशियेलिटी अस्पताल में विकसित हो चुका है. यहां किसी सितारा अस्पताल की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हैं. यह इलाका जापानी इंसेपेलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी के गढ़ के रूप में सालों से बदनाम है. योगी के भक्तों का मानना है कि जल्द ही वे इस दिशा में भी एक बड़ा कदम उठाएंगे.

पिछले काफी समय से नेपथ्य में रहने के बाद योगी एक बार फिर से पार्टी के लिए से प्रासंगिक हो गए हैं साथ ही उनका जो रूप आज हम देख रहे हैं वह एक तरह से 2007 से पहले वाला ही है. आखिर ऐसा क्या हुआ कि महज तीन महीने पहले विकास और सुशासन के नाम पर जिस पार्टी को प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था वह अब विकास के साथ हिंदुत्व का राग भी रट रही है. पिछले तीन महीनों के दौरान पार्टी के भीतर से लेकर बाहर तक चीजें बदली हैं. अमित शाह के रूप में  पार्टी को नया अध्यक्ष मिला है. उत्तर प्रदेश में 11 विधानसभा और एक लोकसभा के उपचुनाव होने थे. चार महत्वपूर्ण राज्यों में जल्द ही विधानसभा चुनाव भी होने हैं. बिहार उपचुनाव के नतीजों के बाद पार्टी का वह भ्रम भी टूटा कि उसके पक्ष चल रही लहर अब भी कायम है. इंडिया टुडे के पूर्व संपादक जगदीश उपासने कहते हैं, ‘बिहार उपचुनाव में जिस तरह से जातिगत गठजोड़ करके नीतीश-लालू ने भाजपा को हराया उसकी काट भाजपा को योगी जैसे फायरब्रांड हिदुत्व में दिख रही है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पार्टी की पहली प्राथमिकता किसी भी कीमत पर सरकार बनाने की है. उन्हें लगता है कि विकास जैसे एजेंडे को सरकार बनाने के बाद भी लागू किया जा सकता है. इस बदली हुई भाषा के पीछे सबसे बड़ी भूमिका अमित शाह की है जो अपने अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद आने वाली चुनावी परीक्षाएं हर हाल में पास कर लेना चाहते हैं.’ जनसत्ता के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘मोदी और शाह जिस मिजाज के नेता हैं उन्हें उसी टेंपरामेंट का नेता पार्टी और सरकार की नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए चाहिए. ऐसे में योगी से बेहतर कौन हो सकता है. लगता है पार्टी अपने वोटरों के बीच हिंदुत्व का संदेश देने से चूकना नहीं चाहती.’

उन्हें नजदीक से जाननेवालों की मानें तो यह व्यक्ति कई मायनों में  नाम का ही नहीं, काम का भी योगी है. सवेरे तीन बजे उठना, रात में 11 बजे सोना

हालांकि इसके पीछे कुछ लोगों को और भी समीकरण दिखाई देते हैं. योगी पांचवी बार लोकसभा पहुंचे हैं. उत्तर प्रदेश से आने वाले दूसरे भाजपा नेताओं की बनिस्बत उन्हें जनाधार वाला नेता माना जाता है. लेकिन पार्टी ने उन्हें चुनावों के ठीक पहले तक ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी. जबकि लोकसभा चुनाव के पहले गोरखपुर में आयोजित नरेंद्र मोदी की रैली उनकी सबसे बड़ी और सफल रैली में शुमार होने लायक थी. योगी चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश और विशेषकर पूर्वांचल के कोटे से मंत्री बनने के गंभीर दावेदार थे लेकिन पार्टी ने अपेक्षाकृत जनाधारविहीन वरिष्ठ नेता कलराज मिश्रा और गाजीपुर के सांसद मनोज सिन्हा को मंत्रिपद से नवाजा. पार्टी सूत्रों की मानें तो इस बात से योगी और उनके उनके समर्थकों में नाराजगी बढ़ गई थी. पार्टी को इस स्थति से निपटने के लिए कुछ न कुछ करना ही था. एक वरिष्ठ नेता के शब्दों में, ‘भाजपा के दोनों हाथों में लड्डू हैं, पार्टी उन्हें जिम्मेदारी देकर एक तरफ नाराजगी से बच गई है और दूसरी तरफ उनकी शैली से पार्टी को फायदा मिलने की भी उम्मीद है.’ (लेकिन इस स्टोरी के प्रेस में जाते वक्त ही आए उपचुनावों के परिणाम बताते हैं कि आदित्यनाथ भाजपा के लिए लड्डू साबित नहीं हुए हैं. देश भर के उपचुनावों के नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं रहे. उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां आदित्यनाथ के आक्रामक अभियान के बावजूद भाजपा को 11 में से सिर्फ दो ही सीटें मिली हैं.)

योगी आदित्यनाथ का उदय भाजपा की अंदरूनी धुरियों के बीच मची खींचतान का भी नतीजा है. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘मोदी जी की अपनी एक कार्यशैली है. इसका अंदाजा लोगों को आसानी से नहीं लगता.’ उत्तर प्रदेश की ठाकुर राजनीति में लंबे समय से राजनाथ सिंह का एकाधिकार रहा है. अपने इलाके में योगी भी ठाकुरवादी राजनीति करते हैं. जानकारों की मानें तो योगी और दूसरे नेताओं को ऊपर उठाकर धीरे-धीरे पार्टी उस एकाधिकार को समाप्त करने की दिशा में बढ़ रही है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगीत सोम को दी जा रही तरजीह भी इसी रणनीति का हिस्सा है.

अमित शाह के बारे में सबको पता है कि वे प्रधानमंत्री के सबसे अंदरूनी दायरे का हिस्सा हैं. लिहाजा उनके हर कदम को यह मानकर चला जाता है कि इसे प्रधानमंत्री का भी समर्थन हासिल होगा. थानवी कहते हैं, ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि पार्टी का अध्यक्ष प्रधानमंत्री का इतना करीबी रहा हो. इस हालात में अमित शाह की सफलता की चिंता उनसे ज्यादा नरेंद्र मोदी को होगी.’ योगी को आगे लाने में नरेंद्र मोदी की रजामंदी से इसलिए भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वे सांप्रदायिक हिंसा पर बहस की शुरुआत प्रधानमंत्री की मर्जी के बिना कर ही नहीं सकते थे.

तो फिर उस भाषण का क्या जो मोदी ने लाल किले से दिया था जिसमें उन्होंने 10 साल तक हर किस्म की हिंसा से मुक्त रहने की अपील की थी. जानकारों का मानना है कि वह मोदी की अपनी छवि बदलकर इतिहास-पुरुष बनने की इच्छा से निकली थी. लेकिन वे प्रतीकात्मक और तात्कालिक लाभों का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं. उन्हें समझना होगा कि उन्हें अपना समर्थन देने वाली अधिकांश जनता की अपेक्षाएं और योगी आदित्यनाथ जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं वे मेल नहीं खाते. योगी आदित्यनाथ वाली सोच से अगर कुछ हो सकता तो उनकी पार्टी देश में कब की बहुमत वाली सरकार बना चुकी होती. यह सरकार जनता की विकास और बेहतरी की अपेक्षाओं से जन्मी है और वे इतिहास पुरुष इन अपेक्षाओं पर खरा उतरकर ही बन सकते हैं. उनकी पार्टी भी सत्ता की स्वाभाविक अधिकारी तभी बन सकती है.