जिनको हाशिये पर भी जगह नहीं

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साल 2010 में मिर्चपूर में जलाया गया एक दलित का घर

इसी गांव में चार साल पहले एक तूफान आया था जिसकी कई निशानियां यहां आज भी मौजूद हैं. पलायन के कारण ऐसे तमाम घर हैं जिनके घरों के दरवाजे बंद पड़े हैं. सीआरपीएफ के जवान यहां किसी दुश्मन के इंतजार में अपने बंकरों में हथियार ताने तैनात हैं. घटना के बाद से ही गांव में सीआरपीएफ तैनात कर दी गई थी जो अब तक जारी है. गांव में करीब चालीस परिवार या तो रह गए थे या सरकार के भरोसा दिलाने पर वापस लौट आए हैं. पर सबका कहना यही है कि जब तक सीआरपीएफ यहां है तभी तक हम लोग यहां रहेंगे. 28 वर्षीय कुलदीप कहते हैं, ‘हमें जाटों पर कोई भरोसा नहीं है. अगर सीआरपीएफ यहां से जाएगी तो हम भी चले जाएंगे.’ ऐसा पहले हो भी चुका है. साल भर पहले तत्कालीन एसपी ने सीआरपीएफ को हटाने की घोषणा कर दी थी. पीछे-पीछे सारे परिवार भी अपना बोरिया-बिस्तर लेकर चल पड़े थे. बड़ी मुश्किल से एसपी ने उन्हें मनाया और सीआरपीएफ को वापस तैनात करना पड़ा. पूरी दलित बस्ती के चारों तरफ सीआरपीएफ ने अपने बंकर बनाकर उसे घेर रखा है.

मिर्चपुर के जाटों का पक्ष बिल्कुल अलहदा है. गांव की सरपंच कमलेश कुमारी के पति प्रेम ढांडा जो एक दिन पहले ही किसी मामले में जेल से छूटकर आए हैं, बताते हैं, ‘हमें दलितों से कोई दिक्कत नहीं है. जो लोग गांव से बाहर रह रहे हैं वे अपनी इच्छा से रह रहे हैं. जैसे आप रोजी-रोटी के लिए अपना घर छोड़कर इतनी दूर दिल्ली आए हो उसी तरह यहां के दलित भी हिसार में रोजी-रोटी के लिए रहते हैं.’

सरपंच के आवास पर ही मौजूद कुछ दूसरे जाट युवकों से बातचीत में एक ही कहानी सामने आती है कि वाल्मीकि टोले के लोगों ने खुद ही अपने घरों में आग लगा दी. पैसे के लालच में उन्होंने ऐसा किया. इसी लालच में घर छोड़कर हिसार में रह रहे हैं. हमारे लोगों को फर्जी फंसा दिया गया है. हमारा गांव सबसे पढ़ा-लिखा गांव है. मिर्चपुर गांव से  सबसे ज्यादा शिक्षक हरियाणा के स्कूलों में हैं. ये कहानियां घटना के चार साल बाद घटना के सभी कानूनी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई हैं. जब गांव वालों से पूछा जाता है कि अगर आग खुद लगाई गई थी तो उसमें दो लोग मर क्यों गए तो वे कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाते. हम गांव में जहां भी जाते हैं हमारे सभी सवालों के एक जैसे रटे-रटाए जवाबों से सामना होता है.

गांव वालों का एक आरोप यह भी है कि वहां हिसार में उनका एक नेता है वेदपाल तंवर. उसने राजनीति के लिए वाल्मीकियों को अपने पास रख छोड़ा है. वेदपाल तंवर इस आरोप के जवाब में कहते हैं, ‘मेरा इसमें कोई हित नहीं है. मैं तो इस इलाके से चुनाव भी नहीं लड़ता हूं. मेरा तो इसमें सिर्फ नुकसान ही हुआ है. जिस जमीन पर लाखों की खेती होती थी उस पर अब इन लोगों के घर हैं. मुझे तो एक भी चवन्नी नहीं मिलती किसी से.’

एक फौरी मुआयना करने पर हम पाते हैं कि हिसार और जींद के आस-पास का इलाका दलितों के खिलाफ अत्याचार का केंद्र बनकर उभरा है. कुछ दिन पहले ही हिसार के भगाणा गांव की चार दलित युवतियों को अगवा करके उनके साथ सामूहिक बलात्कार की भयावह घटना सामने आई थी. ये लड़कियां न्याय की आस में फिलहाल दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रही हैं. कुछ माह पहले हिसार के ही एक गांव की एक दलित लड़की अपनी भैंस लेकर जाटों के घर के सामने से गुजर रही थी. इस बात पर एक जाट युवक को गुस्सा आ गया और उसने लड़की को तालाब में धक्का दे दिया जिससे लड़की की पानी में डूबकर मृत्यु हो गई.

गुड़गांव स्थित गुरू द्रोणाचार्य कॉलेज में समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर भूप सिंह इन घटनाओं के मनोविज्ञान और उनकी सामाजिकता को दिलचस्प अंदाज में सामने रखते हैं, ‘यह हरियाणा की राजनीति के जाटाइजेशन और जाटों के हनुमानाइजेशन का नतीजा है. भजन लाल और बंसीलाल के अवसान के बाद हरियाणा की राजनीति में जाट प्रभुत्व बढ़ा है. जाटों के दबाव में राजनीतिक पार्टियां दूसरे सभी तबकों को नजंरअंदाज करती जा रही हैं. समस्या पिछले दो-ढाई दशकों में और भी गंभीर हुई है. परंपरागत रूप से दलित भूमिहीन थे और जाटों के ऊपर निर्भर थे. दो-तीन दशकों के दरम्यान दलित वर्ग संपंन और शिक्षित हुआ है, सरकारी नौकरियों से उनमें आत्मनिर्भरता भी बढ़ी है और दलितों ने गांव छोड़कर शहरों की तरफ बड़ी संख्या में पलायन भी किया है. इसके परिणामस्वरूप युवा दलितों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो किसी भी तरह के अपमान या दुर्व्यवहार का पलट कर जवाब दे देता है. रूढ़िवादी जाट समाज इस बदलाव को स्वीकार नहीं कर पा रहा है. फलस्वरूप वो इस तरह की अमानवीय प्रतिक्रिया कर रहा है.’

इन्हीं वर्षों के दौरान जाटों में धार्मिकता का प्रभाव भी काफी बढ़ा है. परंपरागत रूप से जाट पहले कभी अपनी धार्मिकता को लेकर इतने सजग नहीं थे. लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में आर्य समाज और संघ की लगातार कोशिशों ने जाटों में भी हिंदूवादी भावनाएं भरी हैं. प्रो भूपसिंह के शब्दों में, ‘संघ ने व्यवस्थित तरीके से जाटों के बीच में हनुमान को जाटों के देवता के रूप में स्थापित किया है.’ हिंदूवादी भावनाओं के बढ़ने के साथ ही जाटों में वर्णव्यवस्था की खामियां भी बढ़ीं हैं.

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मिर्चपुर के वाल्मीकी बस्ती के पास तैनात सीआरपीएफ जवान. फोटो: विकास कुमार

जाटों की राजनीति पर कब्जा करने के लिए हरियाणा की दो राजनीतिक पार्टियों के बीच होड़ मची हुई है. मुख्यमंत्री भुपिंदर सिंह हुडा, जिन्होंने अपनी एक चुनावी सभा के दौरान घोषणा की थी कि उन्हें जाट होने पर गर्व है, ने एक अलिखित नियम बना रखा है. वे दलितों पर हुए किसी भी अत्याचार के मामले में पीड़ितों से मिलने  की भी जहमत नहीं उठाते. जाहिर है कोर्ट के दबाव में जो करना है वह सरकार करती है. लेकिन खुद मुख्यमंत्री अपने लोगों (जाटों) के बीच ऐसा कोई संदेश नहीं देना चाहते कि वे जात के खिलाफ काम कर रहे हैं.

दूसरी तरफ इंडियन नेशनल लोकदल है. इसके दो शीर्ष नेता ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला इस समय जेल में हैं. इनकी पूरी राजनीति ही जाटों के इर्द-गिर्द घूमती है. हिसार से इस चुनाव में ओमप्रकाश चौटाला के पौत्र दुष्यंत चौटाला चुनाव लड़ रहे हैं. यह पूरा निर्वाचन क्षेत्र जाट बहुल है. मिर्चपुर लौट आए कुछ दलित परिवारों में एक 35 वर्षीय दलशेर का भी है. दलशेर इस समय एक अदृश्य खतरे से डरे हुए हैं. वे कहते हैं, ’16 मई के बाद हमारे लिए स्थितियां खराब हो सकती हैं. अगर दुष्यंत चौटाला चुनाव हार जाता है तो जाट हमारा जीना मुहाल कर देंगे.’ इस अतिशय जाटवादी राजनीति का साइड इफेक्ट भी राजनीतिक पार्टियों पर पड़ रहा है. फिलहाल कांग्रेस की स्थिति ज्यादा सोचनीय है. जाट से इतर जातियों के कई नेता पार्टी का साथ छोड़ चुके हैं क्योंकि उन्हें अपने लोगों के बीच जवाब देना दुष्कर सिद्ध हो रहा था. इनमें राव इंद्रजीत सिंह, विनोद शर्मा, धर्मवीर और गोपाल कांडा जैसे तमाम नेता शामिल हैं.

कुछ बातें हमारे संविधान में लिखी हुई है और हमने उन बातों को संविधान के पन्नों तक ही सीमित कर दिया है. जाति, धर्म-संप्रदाय के लिए हमारे संविधान में भले ही कोई जगह नहीं हो लेकिन समाज में इसके लिए भरपूर उपजाऊ जमीन मौजूद है. जाति आज भी भारतीय समाज की कड़वी सच्चाई है. इसकी एक वजह यह भी है कि राजनीतिक स्तर पर जातिगत व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने का कोई ईमानदार प्रयास हो ही नहीं रहा है.  जाति तोड़ने का मुद्दा इस देश में कभी महंगाई, भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों की तरह राष्ट्रीय चुनावी मुद्दा नहीं बना. मिर्चपुर के मसले को ही देखें तो हम पाते हैं कि किसी भी बड़े राजनेता ने इस मुद्दे पर हरियाणा की विधानसभा या संसद भवन में सवाल तक

नहीं पूछा. चुनाव का मौसम है लेकिन अपनी जड़ों से उखड़े हुए 80 परिवारों के पास किसी भी राजनीतिक दल का प्रतिनिधि उनका पुरसाहाल लेने के लिए नहीं पहुंचा है. रमेश कुमार कहते हैं,

‘तब से पंचायत का चुनाव हो चुका है, लोकसभा का चुनाव हो चुका है लेकिन कोई नेता हमारे पास नहीं आता. जो हमारे पास आएगा उसे जाट वोट नहीं देंगे.’

समाज के अछूत अब राजनीति के भी अछूत हो गए हैं.

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