मांझी के बोलः महत्वाकांक्षा या रणनीति?

फोटोः सोनू किशन
फोटोः सोनू किशन

13 नवंबर से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य में एक और राजनीतिक यात्रा पर निकले हैं. मकसद जनता दल (यूनाइटेड) के कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों और नेताओं से संवाद करना है. नीतीश ने इस नई यात्रा की शुरुआत भी अपनी हर यात्रा की तरह चंपारण के दो जिला मुख्यालयों, बेतिया और मोतिहारी से ही की. नीतीश कुमार की संपर्क यात्रा के ठीक पहले बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी चंपारण इलाके में ही थे. वे थारू आदिवासियों के किसी आयोजन में भाग लेने गये थे. मांझी ने चंपारण के इलाके में घूमते हुए कई बातें कहीं. उन्होंने एक आयोजन में कहा कि वे पहले दलित हैं, बाद में बिहार के मुख्यमंत्री. फिर अगले आयोजन में कहा कि जो सवर्ण हैं, वे विदेशी हैं, आर्य हैं, अनार्यों पर आक्रमण कर यहां काबिज हुए हैं. मांझी से इस पर सवाल पूछे गये. मांझी ने कहा, ‘हमने सच कहा है, दलित हैं तो क्या कहें कि ब्राह्मण हैं!’ मांझी इस बयान को और आगे ले गए. वाल्मीकी टाइगर प्रोजेक्ट रेंज में उन्होंने कहा कि यहां के अधिकारी जंगल में रहने वाले लोगों को शादी-ब्याह आदि में बाजा तक नहीं बजाने देते जबकि खुद रात में उसी जंगल में रंगरेलियां मनाते हैं. अपनी चंपारण यात्रा के पूरे पड़ाव में मांझी इसी तरह की बयानबाजी करते रहे. उनके इन बयानों पर बिहार की राजनीति गरमायी हुई है और एक बड़ा समूह मांझी, मांझी के बहाने नीतीश कुमार और नीतीश कुमार के बहाने उनकी पार्टी जदयू का राजनीतिक मर्सिया गाने में लगा हुआ है. खुद नीतीश कुमार की पार्टी के दबंग नेता और मोकामा के विधायक अनंत सिंह ने सवर्णों के विदेशी होने वाले बयान पर कहा, ‘मांझी को अविलंब मुख्यमंत्री पद से हटाया जाना चाहिए, वे सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ रहे हैं.’ जदयू के ही प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा कि यह जीतन राम मांझी का बयान है, इससे जदयू का कोई लेना-देना नहीं. और भाजपा नेता नंदकिशोर यादव कहते हैं कि इस पर नीतीश कुमार को कुछ बोलना चाहिए. नीतीश कुमार चुप्पी साधे हुए हैं. वे मांझी के लगभग हर बयान पर ऐसे ही चुप्पी ही साधे रहते हैं. मांझी के बयानों के इतर भी वे चुप्पी को ही सबसे धारदार राजनीतिक हथियार मानते हैं और उसी के जरिये ज्यादातर राजनीति भी करते हैं.

मांझी के हालिया बयानों का चलते-फिरते आकलन करने वालों का मानना है कि वे लगातार जिस तरह से बयान दे रहे हैं, उससे अगले साल नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू का सूपड़ा साफ हो जाएगा क्योंकि उनके अनोखे बयानों के चलते जदयू के मतदाता तेजी से नीतीश कुमार से दूर हो रहे हैं.

यादव, कुरमी, और मुस्लिमों को मिलाकर एक मजबूत ब्लॉक बनता है. मांझी के जरिए नीतीश कुमार इसमें अतिपिछड़ा और महादलित भी जोड़ना चाहते है

आकलन और अनुमान के जरिए अभी से आगामी चुनावों का परिणाम घोषित कर देने का यह खेल चंपारण में मांझी के दिये गए बयानों से काफी पहले से चल रहा है. पहले भी मांझी ने जब-जब इस तरह के बयान दिए, चौक-चौराहों से लेकर सोशल मीडिया में इसी तरह की बातें होती रहीं. इसी तरह की बातें जब मांझी ने मधुबनी के एक मंदिर में उनके जाने के बाद शुद्धिकरण की बात कही तब भी हुईं.  उन्होंने दलितों का आह्वान किया कि बिहार में आपकी संख्या 23 से 25 प्रतिशत है, आप चाहेंगे तो आपके समुदाय का ही मुख्यमंत्री बनेगा, अभी तो मुझे जदयू और नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनाया है. हर बार उनके बयान पर इसी तरह की बातें हुईं.

मांझी के बयानों का बिहार में अमूमन दो-तीन निहितार्थ तलाशे गए. या तो इसे नीतीश कुमार से उनके मनभेद-मतभेद के तौर पर देखा गया या फिर इसे मांझी की महत्वाकांक्षा माना गया. एक तीसरा नजरिया यह भी रहा कि मांझी एक नासमझ नेता हैं. नीतीश कुमार से उनकी बढ़ती दूरियों वाली बात में कई बार दम भी लगा, क्योंकि इधर हालिया दिनों में कई ऐसे मौके आये, जब नीतीश कुमार और मांझी का एक मंच पर साथ में रहने का कार्यक्रम बहुत पहले से तय था लेकिन आखिरी वक्त में नीतीश कुमार किसी न किसी कारण उस आयोजन में नहीं जा सके. इस बढ़ती हुई दूरी को जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के एक बयान ने और भी बल दे दिया. शरद यादव ने कहा कि पिछले 20 दिनों से नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी में बात नहीं हुई है. नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी के बयान भी कई बार एक-दूसरे के विपरीत आये. इससे लगा कि दोनों के बीच दूरिया वाकई बढ़ी हुई हैं. नीतीश कुमार शायद मांझी को सीएम बनाकर फंस गए हैं. उन्हें न तो अब उगलते बन रहा है, न निगलते.

लेकिन ये तमाम विश्लेषण मांझी की राजनीति, नीतीश कुमार की रणनीति और बिहार की राजनीति के शायद एक पक्ष को देखकर हो रहे हैं. इसका एक दूसरा पक्ष भी है, जिस पर बहुत कम चर्चा हो रही है. मांझी के साथ बहुत करीबी रिश्ता रखनेवाले गया के एक पत्रकार कहते हैं कि पिछले दिनों मांझी से उनकी बात हुई थी तब उन्होंने साफ-साफ कहा था कि वे जो भी कह रहे हैं पार्टी के भले के लिए ही कह रहे हैं और रणनीतिक तौर पर सोच समझकर बयान दे रहे हैं. एक अन्य जदयू नेता और राज्यसभा सांसद के मुताबिक मांझी पार्टी लाईन पर काम कर रहे हैं और उन्हें पार्टी ने यह जिम्मेदारी सौंपी है. मांझी खुद कहते हैं कि जो उन्हें बुद्धू समझ रहे हैं, वे समझते रहें, वक्त आने पर सब पता चलेगा.

जो बात जदयू के अंदरूनी सूत्र कह रहे हैं या जिस रणनीति का जिक्र राज्यसभा सांसद करते हैं वह रणनीति क्या है? क्या इस पूरे मामले को देखने का कोई दूसरा तरीका भी हो सकता है? जानकारों की माने तो बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार एक नई और सधी हुई चाल चल रहे हैं. मांझी के जरिए जदयू आज उफान पर दिख रही भाजपा को आनेवाले समय में काबू कर सकती है. मौन को ही मुखर राजनीति का सबसे मजबूत हथियार माननेवाले नीतीश कुमार भाजपा को उसके ही बिछाये मोहरे पर घेर भी सकते हैं. इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि आखिर क्यों जीतन राम मांझी ने मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों के भीतर ऐसे बयानों की बौछार कर दी है. बयानों के बीच जीतन राम मांझी की उस बात पर भी गौर करना होगा, जिसमें वे बार-बार कहते हैं कि नीतीश कुमार से उनका कोई मतभेद नहीं है, नीतीश कुमार तो उन्हें समय-समय पर टिप्स देते रहते हैं.

जीतन राम मांझी के बयानों को समझने से पहले जदयू की राजनीतिक गणित को समझना होगा. भाजपा से अलगाव के बाद जदयू की राजनीति बहुत साफ है. भाजपा पर बिहार में सवर्णों की पार्टी होने का ठप्पा लग चुका है. एक तथ्य यह भी है कि नीतीश कुमार का जो कोईरी-कुरमी का मजबूत गठजोड़ था, उसमें भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा के जरिए सेंध लगा दी है इसलिए कोईरी अब नीतीश के साथ उस तरह से नहीं रह गये हैं. वैश्य जातियां परंपरागत तौर पर भाजपा के साथ ही रहती आई हैं. पिछले लोकसभा में जिस तरह से महादलितों और अतिपिछड़ों ने भी नरेंद्र मोदी की ओर रूझान दिखाया, वह भी नीतीश के लिए खतरे की घंटी है. यादवों के युवा मतदाता भी भाजपा की ओर गए. ऐसी हालात में लालू से मेल-मिलाप के बाद नीतीश कुमार को बिहार में अपनी राजनीति बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि वे कुछ खास समूहों को अपने साथ मजबूती से जोड़ें, तभी नवंबर 2015 में वे भाजपा को पछाड़ सकेंगे और लोकसभा चुनाव में अपनी खोई हुई साख को बहाल कर सकेंगे.

फिलहाल लालू प्रसाद यादव से मेल के बाद यादवों का एक बड़ा समूह जदयू-राजद गठबंधन के पास है. मुस्लिम मतदाता स्वाभाविक तौर पर इस गठबंधन के पाले में रहेंगे, क्योंकि बिहार में कांग्रेस खस्ताहाली में पहुंच चुकी पार्टी है. नीतीश कुमार जिस जाति से आते हैं यानी कुरमी, वह भी नीतीश कुमार के साथ स्वाभाविक तौर पर रहेगा. इस तरह यादवों का करीब 14 प्रतिशत, कुरमी का करीब तीन प्रतिशत, मुस्लिमों का करीब 16 प्रतिशत एक मजबूत सियासी समीकरण बनाता है. यह ऐसा ब्लॉक है जिसमें भाजपा के लिए सेंधमारी आसान नहीं है. लेकिन यह समीकरण मजबूत होते हुए भी इतना आश्वस्तकारी नहीं है कि भाजपा के विजयी अभियान को रोक सके. इसके लिए नीतीश कुमार को खुद के द्वारा सृजित अतिपिछड़ा समूह और महादलितों को मजबूती से अपने साथ जोड़ना होगा. ये दोनों समूह मिलकर बिहार में एक बड़े मतदाता समूह का निर्माण करते हैं और मतदान भी जमकर करते हैं. अतिपिछड़ा एक राजनीतिक समूह के रूप में अभी ठीक से बन नहीं सका है, क्योंकि उसके किसी सर्वमान्य नेता का उभार बिहार में अभी तक नहीं हो सका है. इसके अलावा इसमें अलग-अलग तमाम जातियों का मिश्रण भी इसके एक समूह बन जाने की राह का रोड़ा है. जबकि महादलितों में मांझी को मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद एक ऐसा नेता मिला है, जो पद की वजह से ही सही, पूरे राज्य में अपील रखता है और जब वे अपनी बात रखते हैं तो पूरे बिहार में बातें जाती हंै.

राजनीतिक विश्लेषक जिस दिशा में जा रहे हैं, बिहार के गांव-जवार मांझी के बयानों के बाद उसकी दूसरी दिशा में बढ़ रहे हैं. वे जितनी बार सवर्णों के खिलाफ या दलितों-महादलितों के पक्ष में बयान दे रहे हैं, उससे एक दूसरे किस्म का माहौल बन रहा है. जमीनी स्तर पर सवर्ण मांझी की खिल्ली उड़ा रहे हैं, उनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग कर रहे हैं और इसके परिणामस्वरूप महादलित और दलित खामोशी से गोलबंद हो रहे हैं. इसका फायदा जीतन राम मांझी को मिल रहा है.

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘मांझी के मन की बातों को दो-तीन तरीके से समझना होगा. एक तो जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनको अधिकारी तवज्जो ही नहीं देते थे, वे सीधे नीतीश कुमार से ही संचालित होते थे, इसलिए मांझी ने अपनी उपस्थिति और ताकत का अहसास कराने के लिए इस तरह के बयानों का रास्ता चुना. दूसरा यह कि मांझी जिस समुदाय से आते हैं, वह समुदाय सहज होता है, इसलिए वे सहजता में ऐसे बयान दे देते हैं. तीसरा, वे जातीय राजनीति के इस दौर में खुद की पहचान को भी मजबूत करना चाहते हैं.’ इसके अलावा जिस तरह से वे लगातार बयान दे रहे हैं और उनके बयान पर भूचाल मचने के बावजूद जिस तरह से लालू प्रसाद या नीतीश कुमार रहस्यमय चुप्पी साधे हुए हैं, उससे साफ लगता है कि यह एक रणनीति का हिस्सा है.

अंजाम क्या होगा, यह भविष्य की बातें हैं. भाजपा इसकी क्या काट निकालेगी, यह भी देखा जाना बाकी है. मांझी, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के साथ बने रहकर भविष्य में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपनी उम्मीदों की कुरबानी आसानी से दे देंगे या नहीं, इस पर भी अभी कोई राय बनाना जल्दबाजी होगी.

और अंत में मांझी को समझने के लिए उनके राजनीतिक इतिहास को भी समझना जरूरी है. मांझी पिछले तीन दशक से बिहार के सक्रिय नेता हैं. कांग्रेस, राजद और जदयू के साथ रह चुके हैं, मंत्री भी रह चुके हैं. जगन्नाथ मिश्र जैसे नेता के अनुयायी माने जाते हैं और लालू के साथ रहने का लंबा अनुभव रहा है. नीतीश कुमार के भरोसेमंद भी रहे, इसीलिए उन्हें मुख्यमंत्री भी बनाया गया. मांझी अपनी राजनीति करना जानते हैं. वे जानते हैं कि लालू प्रसाद कैसे बयानों के जरिये राजनीति को साधकर 15 सालों तक बिहार में राजनीतिक फसल काटते रहे हैं. और नीतीश कुमार से वे यह भी जानते हैं कि कैसे जातियों का बंटवारा कर अपने राजनीतिक आधार का विस्तार किया जाता है. संक्षेप में मांझी न तो नौसिखुवा नेता हैं न ही नासमझ.