हममें से देशद्रोही कौन नहीं है?

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राष्ट्रवाद या यूं कहें कि ऑफिशियल राष्ट्रवाद इन दिनों सुर्खियों में है. एक तरफ ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुए और दूसरे ही सुर में मां-बहनों के नाम अपशब्दों की बौछार करते हुए लंपटों के गिरोह हर स्वतंत्रमना व्यक्ति को लातों-मुक्कों से, या जैसा कि बीते दिनों इलाहाबाद की कचहरी में देखने को मिला, लोग लाठियों की मार से राष्ट्रवाद का असली मतलब समझा रहे हैं. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर टूट पड़ते दिख रहे इन निक्करधारी गिरोहों के साथ जगह-जगह खाकी वर्दीधारियों की भी मौन सहमति नजर आ रही है. और दिख रहा है कि आप अगर किसी को मार भी डालें और सफाई में यह कह दें कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद कह रहा था तो उसे माफ कर दिया जाएगा.

विडंबना ही है कि इन दिनों देश की किस्मत के आका कहे जाने वाले लोग नकली ट्वीट की बैसाखी के सहारे ऐसे तमाम उत्पातों, उपद्रवों और उद्दंडता को वैधता का जामा पहनाते नजर आ रहे हैं. आए दिन हो रही संविधान की इस खुल्लमखुल्ला अनदेखी को लेकर संविधान को सबसे पवित्र किताब का दर्जा देने वाले वजीर-ए-आजम मोदी भी अपना मौन बनाए हुए हैं. अंधराष्ट्रवाद की आंधी चलाने की तेज होती कोशिशों को देखते हुए बरबस राजेश जोशी की बहुचर्चित कविता की पंक्तियां साकार होती दिख रही हैं कि ‘जो इस कोलाहल में शामिल नहीं होंगे मारे जाएंगे.’

ध्यान रहे कि अब तक ऐसे स्वयंभू राष्ट्रभक्तों की नजर में ‘समुदाय विशेष’ के लोग ही राष्ट्र के पंचम स्तंभ अर्थात भेदिये थे- मिसाल के तौर पर, संघ के सुप्रीमो गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ अर्थात ‘विचार सुमन’ में बाकायदा कुछ समुदायों को चिह्नित किया है जिसमें वे लिखते हैं, ‘बाहरी आक्रमणकारियों की तुलना में देश के अंदर मौजूद दुश्मन तत्व ही राष्ट्र की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं.’ किताब के आंतरिक खतरे नामक अध्याय में वे मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को इस श्रेणी में रखते हैं और उसके बाद एक लंबे आलेख में इन समूहों की देशभक्ति को संदेह के दायरे में रखते हैं (देखें- रामचंद्र गुहा, ‘द हिंदू,’ 28 नवंबर, 2006). मगर मामला अब काफी आगे बढ़ गया है. अब हर वह शख्स उनकी निगाह में राष्ट्रद्रोही है जो उनकी हां में हां नहीं मिलाता है, उनके साथ कदमताल करने को तैयार नहीं है और सबसे बढ़कर असहमति की आवाजों का होना जनतंत्र का प्रमुख गुण समझता है.

फिर कोई रोहित वेमुला जैसा प्रचंड प्रतिभाशाली दलित युवक और डॉ. आंबेडकर के विचारों को साकार करने में मुब्तिला उसका संगठन ‘आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ एंटीनेशनल अर्थात राष्ट्रद्रोही की कतार में आ सकता है, तो उधर, सोनी सोरी जैसी छत्तीसगढ़ की आदिवासी स्त्री- जिसके यौनांगों में पत्थर भरकर उसे किसी रणबांकुरे पुलिस अफसर ने राष्ट्र के असली मायने समझाने की कोशिश की थी- और जो आज भी कॉरपोरेट लूट के खिलाफ अलख जगा रही है, उस पर भी दोबारा एसिड से हमला करके उसे उन्हीं ‘राष्ट्रद्रोहियों’ की कतार में खड़ा किया जा सकता है या तमिल लोकगायक कोवन सरकार की शराब नीतियों का अपने गीतों में विरोध करने के लिए देशद्रोह के आरोपों के तहत जेल में ठूंसा जा सकता है या कोई प्रिया पिल्लई जो पर्यावरण को लेकर कॉरपोरेट साजिशों का खुलासा करने का जोखिम उठा सकती है, वह भी एंटीनेशनल करार दी जा सकती है.

यह अकारण नहीं कि जी. संपथ ‘द हिंदू’ के अपने आलेख में लिखते हैं, ‘संघ परिवार की इस राष्ट्रवादी नामकरण शैली में अब मध्य भारत के आदिवासी, दलित छात्र, वामपंथी बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, एक खास धार्मिक अल्पसंख्यक, नाभिकीय ऊर्जा विरोधी कार्यकर्ता, बीफ खाने वाले, पाकिस्तान से नफरत न करने वाले, अंतरधर्मीय जोड़े, समलैंगिक, मजदूरों के संगठनकर्ता सभी राष्ट्रद्रोही हैं.’ (देखें- द हिंदू, 17 फरवरी, 2016)

वैसे इन दिनों इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों ने देश के अग्रणी विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को ही राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा साबित करने की मुहिम छेड़ी है और जिसके लिए 9 फरवरी की रात में वहां आयोजित एक कार्यक्रम को बहाना बनाया गया है. निश्चित ही हुक्मरानों को लगता है कि देशद्रोह के इर्द-गिर्द हौवा खड़ा करके वह अपनी तमाम नाकामियों, अपनी आर्थिक असफलताओं, अपनी अमीरपरस्त नीतियों पर परदा डाले रख सकते हैं और सबसे बढ़कर इस देश के पूंजीपतियों को कई लाख करोड़ रुपये के कर्जे से एक ही रात में मुक्ति दिलाने के उनके कदम के प्रति उठ रहे विरोध के स्वर को दबा सकते हैं. लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं है कि इस बहस को खड़ा करके उन्होंने अपने विवादास्पद इतिहास के प्रति भी लोगों में रुचि नए सिरे से जगा दी है. आजादी का आंदोलन ऐसा दौर रहा है जब इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों के पुरखों की तमाम ‘बहादुरी’ सामने आई थी. मगर इसके पहले कि हम उसकी बात करें चंद लफ्ज ‘देशद्रोह’ की इस बहस को लेकर.

वैसे देशद्रोह को लेकर जो इतना हंगामा खड़ा किया जा रहा है, उसके कानूनी पक्ष बिल्कुल स्पष्ट हैं. जाने-माने कानूनविद और संविधान विशेषज्ञ फली एस. नरीमन इंडियन एक्सप्रेस में 17 फरवरी, 2016 को प्रकाशित अपने एक आलेख में लिखते हैं, ‘भारत में देशद्रोह असंवैधानिक नहीं है, वह अपराध तभी होता है जब उच्चारे गए शब्द, भले वह लिखे या बोले गए हों, उनके साथ हिंसा और अव्यवस्था जुड़ जाती है या वह हिंसा या अव्यवस्था को बढ़ावा देते हों. महज हुल्लड़बाजी, अव्यवस्था, अन्य किस्म की हिंसा- जो भले ही दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के तहत सजा देने लायक हो, मगर वह दंड विधान की धारा 124 ए के तहत सजा लायक नहीं होती. इसी तरह, अपनी सरकार के प्रति नफरत यहां तक कि उसके प्रति जबरदस्त घृणा भी देशद्रोह नहीं समझी जाती. जब किसी व्यक्ति को ‘भारतविरोधी’ कहा जाता है तो वह भारत के नागरिकत्व के प्रति असम्मान है, मगर ‘भारतविरोधी’ होना आपराधिक कार्रवाई नहीं है और निश्चित ही वह ‘देशद्रोह’ नहीं है.’

यह बात महत्वपूर्ण है कि मौजूदा हुकूमत का वरदहस्त पाए गिने-चुने पत्रकारों और अन्य ‘चीअरलीडर्स’ को छोड़ दें तो देशद्रोह कानून के बढ़ते इस्तेमाल को प्रश्नांकित करते हुए वाम से लेकर उदारपंथियों तक ही नहीं, बल्कि आर्थिक मामलों में नवउदारवाद के समर्थक कहे जा सकने वाले बुद्धिजीवियों/पत्रकारों की ओर से भी प्रश्न उठ रहे हैं.

‘देशद्रोह कानून के अधिनायकवादी इस्तेमाल की भाजपा सरकार की कोशिशों’ को प्रश्नांकित करते हुए स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर (देखें- इकोनॉमिक टाइम्स, 17 फरवरी 2016) वर्ष 1933 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अनुभव का हवाला देते हैं. उनके मुताबिक, ऑक्सफोर्ड यूनियन ने एक विवादास्पद प्रस्ताव पर बहस रखी थी जिसका फोकस था ‘यह सदन किसी भी सूरत में राजा और मुल्क के लिए संघर्ष नहीं करेगा.’ छात्र यूनियन द्वारा अपने इस मोशन पर मतदान भी कराया गया जिसमें 275 लोगों ने प्रस्ताव के पक्ष में और 153 लोगों ने विपक्ष में मत दिया. इस ‘ऑक्सफोर्ड प्रतिज्ञा’ को बाद में ग्लासगो और मैनचेस्टर के विद्यार्थियों ने भी अपनाया जिससे समूचे ब्रिटेन में हंगामे की स्थिति बनी. जनाब अय्यर के मुताबिक इन छात्रों को डरपोक, राष्ट्रद्रोही और कम्युनिस्ट हमदर्द कहा गया मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि उन पर मुकदमा चलाया जाए.

स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर से हर हिंदुस्तानी वाकिफ रहा है. 20वीं सदी के पूर्वार्ध में नए परवान चढ़े इस दौर में एक तरफ मजूदर-किसानों के बीच एक नई जागृति सामने आ रही थी, मध्यम वर्ग के लोग आंदोलित थे, जाति व्यवस्था की सदियों पुरानी संस्था के खिलाफ और ब्राह्मणवादी मूल्यों की जकड़न के विरोध में दलितों-पिछड़ों में एक नई अंगड़ाई उठती दिख रही थी लेकिन हलचलों, आंदोलनों और उभार के इस चुनौती भरे कालखंड में संघ व उसके कार्यकर्ता दूर खड़े थे. गौरतलब है कि संघ ने अपनी तरफ से स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने का एक भी कार्यक्रम कभी हाथ में नहीं लिया था. संघ के साहित्य में उसके संस्थापक डाॅ. हेडगेवार को स्वतंत्रता आंदोलन के एक अग्रणी नेता के रूप में पेश किया जाता है गोया उन्होंने उस समय के विभिन्न आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया हो. लेकिन इसमें जानने योग्य है कि उन्होंने इस हलचल भरे कालखंड में कांग्रेस के नेतृत्व में चले आंदोलन में कार्यकर्ता के तौर पर हिस्सा लिया था और जेल गए थे. और वह भी इस मकसद से कि इसके जरिये लोगों को अपनी राजनीति की ओर आकर्षित किया जा सके.

ध्यान रहे कि जिन विनायक दामोदर सावरकर की विरासत आगे बढ़ाने का हिंदुत्ववादी दावा करते हैं- वाजपेयी की अगुआई वाली सरकार के दिनों में उनकी तस्वीर संसद भवन में अकारण नहीं लगाई गई थी- उन ‘स्वातंत्र्यवीर’ सावरकर के बारे में यह बात भी विदित है कि अंडमान की अपनी जेल यात्रा के दौरान अंग्रेजों के सामने माफीनामा लिख कर देने में (देखें, आरसी मजूमदार द्वारा लिखित किताब ‘पीनल सेटलमेंट्स इन अंडमान्स’ गैजेट्स यूनिट, डिपार्टमेंट ऑफ कल्चर, मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन एंड सोशल वेलफेयर, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, 1975, पेज 221) और उनके निर्देशानुसार बाद में अपनी गतिविधियां चलाते रहने में कोई गुरेज नहीं किया.

1942 में जबकि समूचे हिंदुस्तान की जनता बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ खड़ी थी, उन दिनों ब्रिटिश फौज में हिंदुओं की भर्ती की मुहिम सावरकर चलाते रहे. बहुत कम लोगों को यह बात मालूम है कि जिस मुस्लिम लीग के खिलाफ रात-दिन सावरकर जहर उगलते रहे, उसी के साथ 40 के दशक की शुरुआत में बंगाल में ‘हिंदू महासभा’ की साझा सरकार चलाने में भी उन्हें किसी तरह के द्वंद्व से गुजरना नहीं पड़ा, जब ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के तहत लाखों लोग जेलों में डाले गए थे.

दरअसल सावरकर की ‘वीरता’ का महिमामंडन करने में जुटे मिथक निर्माता इस बात को बताना नहीं चाहते कि भारत में मजहब के आधार पर दो राष्ट्रों की मौजूदगी की बात जिन्ना के पहले सावरकर ने पेश की थी. अगर कथित तौर पर बंटवारे की वैचारिकी पेश करने के लिए साधारण जनमानस में जिन्ना को ‘खलनायक’ का दर्जा हासिल है तो फिर क्या वही पैमाना सावरकर पर लागू नहीं होना चाहिए कि उन्होंने भी जिन्ना के काफी पहले यही बात कही थी. अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के 19वें सालाना अधिवेशन (1937) में अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने न केवल हिंदुत्व की अपनी समझदारी स्पष्ट की थी बल्कि इस बात का भी ऐलान किया था कि भारत में दो राष्ट्र बसते हैं.

‘भारत में दो राष्ट्र बसते हैं, कई बचकाने राजनेता यह भयानक गलती कर बैठते हैं कि भारत आज ही एक सदभावपूर्ण राष्ट्र बन चुका है या इस तरह ढाला जा सकता है बशर्ते ऐसी इच्छा हो. सदइच्छा रखने वाले मगर अविचारी महानुभाव अपने सपनों को ही हकीकत मान लेते हैं. इसी वजह से वह सांप्रदायिक विवादों को लेकर अधीर हो जाते हैं और उनके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार ठहराते हैं. मगर ठोस हकीकत यही है कि यह कथित सांप्रदायिक प्रश्न हिंदू और मुसलमानों के बीच सदियों से चले आ रहे सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय अंतर्विरोधों की ही परिणति है. भारत को एक एकीकृत एवं समरूप देश नहीं माना जा सकता बल्कि इसके विपरीत उसमें दो राष्ट्र मौजूद हैं: हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र.’ (देखें- विनायक दामोदर सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय हिंदू राष्ट्र दर्शन, सावरकर की संकलित रचनाएं, खंड-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदूसभा, पूना, 1963, पेज 296)

गौरतलब है कि एक तरफ सुभाषचंद्र बोस जैसे लोग थे, जो ब्रिटिश सेनाओं को परास्त करने के लिए आजाद हिंद फौज का गठन कर रहे थे और दूसरी तरफ यह ‘वीर’ जनांदोलन की उमड़ती बयार के दमन को मुमकिन बनाने के लिए ब्रिटिश सरकार की कोशिशों को मजबूती दिलाने के लिए हिंदुओं का आह्वान कर रहा था कि वे इस फौज में शामिल हों. जानने योग्य है कि हिंदू राष्ट्र के हिमायती इस गल्प को परोसते नहीं थकते कि जर्मनी रवाना होने के पहले सुभाषचंद्र बोस ने कथित तौर पर सावरकर से मुलाकात की थी. कहने का तात्पर्य यही होता है कि बोस ने जो किया उसे सावरकर का आशीर्वाद था. लेकिन वे कभी इस अंतर्विरोध से बाहर निकलने की भी कोशिश नहीं करते कि सावरकर ने कथित तौर पर बोस को शुभकामनाएं दी थीं और दूसरी तरफ सावरकर खुद उसी बर्तानवी फौज को मजबूती दिलाने के लिए उनके सेना भर्ती अभियान के सदस्य बने थे.

मकसद यही था कि अधिक से अधिक हिंदुओं को बर्तानवी सेना में भर्ती किया जाए ताकि हिंदुओं के ‘स्त्रीकरण’ को उलटाया जा सके, जो सावरकर के मुताबिक, बर्तानवी शासन के दिनों से चल रहा था क्योंकि मार्शल कौमों को सेना में भर्ती करने को लेकर ब्रिटिश नीति चल रही थी. हिंदुओं की ब्रिटिश सेना में भर्ती उसमें हिंदू-मुस्लिम अनुपात को हिंदुओं के पक्ष में कर देगी और ऐसा अनुपात सावरकर के हिसाब से नई राष्ट्रीय सेना को ढालने में या उसकी वफादारी को सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक होगा. (देखें- द सैफ्रन वेव, पेज 249, थॉमस हानसेन, ऑक्सफोर्ड, 2001)

लोग लाठियों की मार से राष्ट्रवाद का असली मतलब समझा रहे हैं. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर टूट पड़ते दिख रहे इन निक्करधारी गिरोहों के साथ जगह-जगह खाकी वर्दीधारियों की भी मौन सहमति नजर आ रही है. और दिख रहा है कि आप अगर किसी को मार भी डालें और सफाई में यह कह दें कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद कह रहा था तो उसे माफ कर दिया जाएगा

यही वह कालखंड है जब कांग्रेस तथा समाज के अन्य रेडिकल तत्व बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ ‘करो या मरो’ का नारा बुलंद किए हुए थे, वहीं सावरकर की अगुआई वाली हिंदू महासभा सिंध और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकारें चला रही थीं. साफ है कि सावरकर ने यहां के साझे और सर्वसमावेशी राष्ट्रवाद पर हमला बोला था; दूसरी तरफ, उन्हें इस बात पर भी कोई मलाल नहीं था कि वे कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों पर ‘मुसलमानों के तुष्टीकरण’ का आरोप मढ़ रहे थे.

‘व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें यथार्थवादी समझौतों के साथ आगे बढ़ना चाहिए. आप देखें कि किस तरह सिंध हिंदू सभा ने लीग के साथ गठबंधन सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली है. बंगाल के मामले को आप जानते ही हैं. लीग के लोग जिन्हें कांग्रेस भी मना नहीं पाई वह जब हिंदू महासभा के संपर्क में आए तब समझौते के लिए तैयार हो गए और जनाब फजलुल हक की अगुआई में और हमारे सक्षम नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर गठबंधन सरकार सफलतापूर्वक एक साल से अधिक समय तक चलती रही जिसका दोनों समुदायों को फायदा हुआ.’ (देखें- विनायक दामोदर सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय हिंदू राष्ट्र दर्शन, सावरकर की संकलित रचनाएं, खंड-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदूसभा, पूना, 1963, पेज 479-80)

क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि ऐसे तमाम कामों के बावजूद जिन्हें स्वतंत्रता आंदोलन से शुद्ध द्रोह कहा जा सकता है, विनायक दामोदर सावरकर को हिंदुत्व ब्रिगेड के मुरीद महान ‘देशभक्त’ बनाने की कोशिश में आज भी जुटे हैं. यहां तक कि अब जबकि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है तो सावरकर को ‘भारत रत्न’ की पदवी से नवाजने की चर्चाएं जोरों से चल रही हैं.

अगर हम संघ की ओर लौटें तो देख सकते हैं कि बर्तानवी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के प्रति संघ की उदासीनता/तटस्थता की चरमसीमा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय खुलकर सामने आई थी जिन दिनों गोलवलकर सरसंघचालक पद पर विराजमान थे. तब संघ इस उग्र जन आंदोलन से सिर्फ दूर ही नहीं रहा, बल्कि उसने इस आंदोलन को ही निरर्थक बताया. इस आंदोलन की शुरुआत के कुछ समय पहले गोलवलकर गुरुजी के विचारों की झलक 8 जून, 1942 को उनके दिए भाषण में देखी जा सकती है जिनमें उन्होंने अंग्रेज शासकों को निरपराध घोषित किया था.

‘समाज की पतित अवस्था के लिए संघ दूसरों को दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने लगते हैं तब उसके मूल में उनकी दुर्बलता रहती है. दुर्बलों पर होने वाले अन्याय का दोष बलवानों के माथे मढ़ना व्यर्थ है. दूसरों को गाली प्रदान करना या उनकी आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की संघ की इच्छा नहीं है. यदि हम यह जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली निगलती है, तो उस बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है. निसर्ग नियम भला हो, बुरा हो, वह सब समय सत्य ही है. वह नियम यह कहने से कि वह अन्यायपूर्ण है, बदलता नहीं.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड 1, पृष्ठ 11-12)

1942 में जब हिंदुस्तान की अवाम बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ खड़ी थी, उन दिनों ब्रिटिश फौज में हिंदुओं की भर्ती की मुहिम सावरकर चलाते रहे. जिस मुस्लिम लीग के खिलाफ रात दिन सावरकर जहर उगलते रहे, उसी के साथ 40 के दशक की शुरुआत में बंगाल में ‘हिंदू महासभा’ की साझा सरकार चलाने में भी उन्हें किसी तरह के द्वंद्व से गुजरना नहीं पड़ा

अंग्रेज सरकार के आदेश पर संघ ने पहले से चले आ रहे सैनिक विभाग भी बंद किए थे लेकिन इसके पीछे का तर्क तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी द्वारा संघ के वरिष्ठ संगठनकर्ताओं को 29 अप्रैल, 1943 को भेजे परिपत्र (सर्कुलर) में मिलता हैः

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‘हमने सैनिक कवायद तथा यूनिफॉर्म के बारे में सरकार के आदेश का पालन करते हुए यह फैसला लिया है. ताकि कानून का पालन करने वाली हर संस्था की तरह हम भी अपने काम को कानून के दायरे में जारी रख सकें. यह उम्मीद करते हुए कि परिस्थितियां जल्दी बदल जाएंगी हमने प्रशिक्षण का एक हिस्सा ही रोक दिया था लेकिन अब हम परिस्थिति में तब्दीली का इंतजार किए बगैर इस काम को बिल्कुल समाप्त कर रहे हैं.’ (The Brotherhood in Saffron: The RSS and Hindu Revivalism- Walter K. Andersen and Shridhar K Damle- Vistaar Publications, New Delhi, 1987) 

यह अकारण ही नहीं था कि संघ की गतिविधि पर 1943 में तैयार की गई आधिकारिक रपट में गृहमंत्री ने निष्कर्ष निकाला कि यह कहना संभव नहीं है कि कानून और व्यवस्था के लिए संघ से कोई फौरी खतरा है. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के संदर्भ में बंबई के गृहविभाग की टिप्पणी थी, ‘संघ ने खुद को कानून के दायरे में रखा है और अगस्त 1942 में चले उत्पातों में शामिल होने से उसने खुद को बचाया है.’(संदर्भः वही)

स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर संघ के गोलवलकर द्वारा ‘विचार नवनीत’ में प्रस्तुत विचार गौर करने लायक हैं. इसमें वे संघ की कार्यशैली में अंतर्निहित नित्यकर्म की चर्चा करते लिखते हैं, ‘नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है. समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती रहती है. 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी. उसके पहले 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था. उस समय कई लोग डॉक्टरजी के पास गए थे. इस ‘शिष्टमंडल’ ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया था कि इस आंदोलन से स्वातंत्र्य मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए. उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टरजी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डॉक्टरजी ने कहा, ‘जरूर जाओ. लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा?’ उस सज्जन ने बताया, ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है.’ तो डॉक्टरजी ने कहा, ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो. घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गए न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन खंड 4, नागपुर, प्रकाशन तिथि नहीं, पृष्ठ 39-40)

‘समाज की पतित अवस्था के लिए संघ दूसरों को दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने लगते हैं तब उसके मूल में उनकी दुर्बलता रहती है. दुर्बलों पर होने वाले अन्याय का दोष बलवानों के माथे मढ़ना व्यर्थ है. दूसरों को गाली प्रदान करना या उनकी आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की संघ की इच्छा नहीं है. बड़ी मछली छोटी मछली निगलती है, तो उस बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है’

ब्रिटिश सरकार से प्रत्यक्ष टकराव टालने की यही वह नीति थी तथा अपने आप को ‘सांस्कृतिक’ कामों तक सीमित रखने का यही वह सिलसिला था कि संघ परिवार की निगाह में भी श्रद्धेय कहे जाने वाले सावरकर ने, जिनका अपना व्यक्तित्व भी बेहद समझौतापरस्त था, गोलवलकर की अगुआई में निर्मित हो रही स्वयंसेवकों की पीढ़ी को लताड़ते हुए लिखा था, ‘संघ के स्वयंसेवक का यही मृत्युलेख लिखा जाएगा, वह जन्मा, शाखा में गया और मृत्युलोक को प्राप्त हो गया.’ (देखें- ब्रदरहुड इन सैफ्रन- एंडरसन एंड दामले)

याद रहे कि उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष से संघ परिवार का आधिकारिक तौर पर दूर रहना एक ऐसी स्थापित चीज है कि उसके लिए विशेष प्रमाणों की जरूरत भी नहीं है. और यह अकारण नहीं था कि दिल्ली की गद्दी पर वाजपेयी की अगुआई में अपने प्रथम कार्यकाल (1998-2004) के दौरान भाजपा सरकार ने इतिहास के पुनर्लेखन की जो कोशिश की उसका अहम पहलू स्वतंत्रता आंदोलन से उसकी इस दूरी पर किसी न किसी तरह परदा डाले रखना था. वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल की शुरुआत में ही चर्चित इतिहासकार सुमित सरकार और केएन पणिक्कर द्वारा संपादित किताब ‘टूवार्ड्स फ्रीडम’ के प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी गई थी. दरअसल इंडियन काउंसिल आॅफ हिस्टॉरिकल रिसर्च की ओर से प्रकाशित किए जा रहे प्रस्तुत शोधग्रंथ में तमाम ऐसे प्रमाण मौजूद थे जो बताते थे कि किस तरह 1930-40 के दिनों में संघ परिवार के लोगों ने बर्तानवी आकाओं के प्रति समझौतापरस्ती का परिचय दिया था.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता और चिंतक हैं)