कल कोई 14 साल का बच्चा अपराध करता है तो क्या कानून में फिर से बदलाव करेंगे?

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दिल्ली में पिछले दिनों एक ढाई साल की बच्ची के साथ बलात्कार की घटना, जिसमें 16-17 के दो युवकों के शामिल होने का आरोप है, के बाद फिर से यह मांग जोर पकड़ने लगी थी कि किशोर न्याय अधिनियम में जघन्य अपराधों में लिप्त किशोर की उम्र 18 से घटाकर 16 साल कर दी जाए. मंगलवार को राज्यसभा में पारित ‘किशोर न्याय अधिनियम (बाल देखभाल और संरक्षण), 2015 के अंतर्गत अब जघन्य अपराध करने वाले 16-18 आयुवर्ग के बच्चों पर वयस्कों की तरह मुकदमा चलाए जाने का रास्ता साफ हो जाएगा. हालांकि उन्हें सजा 21 साल की उम्र के बाद ही दी जा सकेगी. यह मौजूदा किशोर न्याय अधिनियम, 2000 की जगह लेगा.

यह बहस दिल्ली में 16 दिसंबर को हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर शुरू हुई थी जो अब तक जारी रही. लगातार यह प्रश्न पूछा जाता रहा कि क्यों न वयस्कों जैसे अपराध करने वाले किशोरों को सामान्य कानून के अनुसार सजा दी जाए जिससे बाकी बच्चों को सबक मिल सके?

ऐसी मांग दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की ओर से भी उठी थी. ऐसा नहीं है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री बाल अधिकार विरोधी हैं. वह भी पीड़ित (जो एक बच्चा है) के दर्द से व्यथित हैं और उन्हें यह लगता है इन जैसे बच्चों को न्याय दिलाने के लिए कानून में बदलाव जरूरी है लेकिन ऐसा लगना तथ्यों पर नहीं भावनाओं पर आधारित है.

इस कानून में बदलाव की मुख्य वजह किशोरों द्वारा किए गए अपराधों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि बताई जा रही है. आइए एक नजर इन आंकड़ों पर डालकर देखते हैं कि इन दावों में कितनी सच्चाई है?

अगर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) पर यकीन करें तो 2014 में दिल्ली में होने वाले कुल बलात्कारों की संख्या 2,096 थी और 2013 की तुलना में इसमें 28.12 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इनमंे से 5.73 प्रतिशत यानी 120 बलात्कार किशोरों द्वारा किए गए थे. 2013 की तुलना में किशोरों द्वारा किए गए बलात्कारों में 12.41 प्रतिशत की गिरावट आई है. राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञेय अपराधों में 18 वर्ष से कम के बच्चों का हिस्सा 2011 में 1.1 प्रतिशत था जबकि वह जनसंख्या का लगभग 42 प्रतिशत हैं. लेकिन नेता, मीडिया और समाज का एक वर्ग भ्रमित करने वाली तस्वीर पेश कर रहा है और इसके आधार पर कानून में बदलाव लाने की कोशिश हुई.

अगर आज आप कानून में बदलाव करके किशोर की उम्र 16 साल कर भी देते हैं और कल कोई 14 साल का बच्चा यह अपराध करता है तो क्या आप कानून में फिर से बदलाव करेंगे?

दिल्ली में लैंगिक अपराध करने वाले बच्चों से इन अपराधों से पीड़ित होने वाले बच्चों की संख्या कहीं ज्यादा है. बच्चों के शोषण की आठ घटनाएं रोज दर्ज होती हैं जिनमें से केवल 2.4 प्रतिशत में ही अपराधी को सजा हो पाती है. अगर सरकार कानून में बदलाव करने की बजाय कानून के क्रियान्वयन पर ज्यादा जोर दे तो हम बच्चों के लिए शायद ज्यादा सुरक्षित शहर बनने में सफल होंगे.

हम कानून में बदलाव करने का प्रस्ताव रखकर लोगों की उमड़ती भावनाओं को तो शांत कर सकते हैं पर एक सुरक्षित शहर बनने की अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते. कानून में बदलाव करने का प्रस्ताव एक आसान समाधान तो हो सकता है, और आप यह भी कह सकते हैं कि आपने महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए कुछ किया लेकिन इससे समस्या का समाधान नहीं होगा. इस समय जरूरत कानून के प्रभावी क्रियान्वयन की है इसमें बदलाव की नहीं.

बाल मनोवैज्ञानिकों की राय में किशोरावस्था में जोखिम के परिणाम के आकलन की क्षमता कम होती है. इस उम्र के बच्चे ऐसे काम करना चाहते हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा सनसनी का एहसास मिले. अक्सर ये देखा गया है कि इस उम्र के किशोर ऐसे कामों को अंजाम देते हैं, जिसमंे भारी जोखिम होता है पर पारितोषिक कम. सोलह से बीस साल की उम्र में बहुत से मानसिक परिवर्तन होते हैं और लगभग 20 साल तक ही किशोर/किशोरी परिपक्वता हासिल कर पाते हैं. इसलिए इससे ठीक पहले का आयुवर्ग (16-18) में बच्चों के अपराध की दुनिया में आने का खतरा बहुत ज्यादा होता है. इसी कारण साधारणतः अधिकतर कानूनों में किशोरावस्था के लिए 18 साल की उम्र को कट ऑफ के तौर पर लिया जाता है. अगर आज आप कानून में बदलाव करके किशोर की उम्र 16 साल कर भी देते हैं और कल कोई 14 साल का बच्चा यह अपराध करता है तो क्या आप कानून में फिर से बदलाव करेंगे? उम्र कम करने का यह सिलसिला कहां जाकर रुकेगा?

यह तर्क भी दिया जा रहा है कि आजकल इंटरनेट और सूचना के अन्य साधनों की वजह से बच्चे 16 साल की उम्र तक बहुत कुछ जान जाते हैं और जल्दी ही परिपक्व हो जाते हैं. अहम बात ये है कि जानकारी होना और मानसिक परिपक्वता दोनों अलग-अलग बातें हैं. बच्चों को तमाम जानकारियां हो सकती हैं पर ये जरूरी नहीं कि वे परिपक्व हो गए हैं और जानकारी का उपयोग कर सकते हैं. और फिर उस जानकारी का प्रयोग ऐसे कामों के लिए करना जिसके अंजाम को आप ठीक से नहीं समझते, परिपक्वता नहीं अपरिपक्वता का सबूत है.

किशोर न्याय अधिनियम की बुनियाद सुधारात्मक दंड प्रक्रिया पर आधारित है, प्रतिक्रियात्मक हिंसा पर नहीं. यह कानून इस मान्यता पर आधारित है कि बच्चों के अधिकतर मामलों में सुधार की गुंजाइश होती है और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए.

इस विषय पर किए गए विभिन्न अध्ययनों के अनुसार जघन्य अपराधों में लिप्त बच्चों को शैक्षणिक कार्यक्रम की जरूरत होती है ताकि वो अपने किए गए अपराध के परिणामों को अच्छी तरह समझ सकें. सख्त सजा बच्चों द्वारा किए गए अपराधों को रोकने में इतनी कारगर नहीं है जितने कि पेशेवर ढंग से चलाए गए शैक्षणिक कार्यक्रम. बल्कि पेशेवर अपराधियों के संपर्क में आने से उनके भी पेशेवर अपराधी बनने का खतरा बढ़ जाता है. हाल ही में आई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक निर्भया सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामले में दोषी किशोर सुधार गृह में एक कश्मीरी किशोर अपराधी की सांगत में रहा, जिसने उसे कश्मीर में जिहाद में शामिल होने के लिए प्रेरित किया. किशोरों के मामले में यह भी देखना उतना ही महत्वपूर्ण है कि ऐसे कौन से हालात थे जो उनको इस स्थिति तक लेकर आए जहां उन्होंने इस तरह के  अपराध को अंजाम दिया.

किशोर न्याय अधिनियम में बदलाव करके जघन्य अपराधों में लिप्त बच्चों के साथ व्यस्कों जैसा व्यवहार ना केवल हमारी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के खिलाफ है बल्कि इस तरह के प्रयोग दुनिया के किसी भी हिस्से में सफल नहीं हुए हैं. यह कहना कि इस कानून में बदलाव होना चाहिए कतई भी तर्कों पर आधारित न होकर अतार्किक भावनाओं पर आधारित है. याद रहे कि दिल्ली में दिसंबर 2012 के सामूहिक बलात्कार कांड के बाद बनी वर्मा कमेटी ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया था.

ज्यादातर किशोर अपराधी समाज के हाशिये पर रह रहे बच्चे होते हैं जिन्हें देखभाल और सुरक्षा (चाइल्ड इन नीड ऑफ केयर एंड प्रोटेक्शन) की जरूरत होती है और समय पर संरक्षण न मिलने पर वह कानून विवादित बच्चा (चाइल्ड इन काॅनफ्लिक्ट विद लॉ ) की श्रेणी में आ जाते हैं. किशोर न्याय अधिनियम के तहत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि उन सभी बच्चों को जो जोखिम में हैं, संरक्षण एवं सुरक्षा प्रदान करे. इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य बच्चों को अपराध करने से बचाना है. पर समस्या यह है कि इस कानून का ध्यान कानून विवादित बच्चों पर है पर उन बच्चों पर नहीं जिन्हें देखभाल और सुरक्षा की जरूरत है. इस कानून को ठीक से लागू करने की कभी कोशिश ही नहीं की गई और अब मांग उठ रही है कि इस कानून को बदला जाए? ये कितना उचित है कि जिस कानून को ठीक से क्रियान्वित करने का मौका भी नहीं दिया गया, उसमें बदलाव लाया जाए?

(लेखक टेरे डेस होम्स संस्था से जुड़े हैं)

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