प्रलय का शिलालेख

NEPAL-QUAKE

सन 1977 की जुलाई का तीसरा हफ्ता. उत्तरप्रदेश के चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीब से खामोशी है. यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी, बिरही, का जल स्तर बढ़ता जा रहा है. उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकराकर गूंज रही है. फिर भी चमोली-बद्रीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22 किलोमीटर दूर 6,500 फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13 गांवों के लोगों को सब कुछ शांत-सा लग रहा है.

आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थे. उसका तांडव देख चुके थे. इनके घर, खेत व ढोर उस प्रलय में बह चुके थे. उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था. कोई एक मील चौड़ी और पांच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ी-बड़ी शिलाएं, पत्थर, रेत और मलबा भरा हुआ है, इस सबके बीच से किसी तरह रास्ता बनाकर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है.

लेकिन सन 1970 की जुलाई का तीसरा हफ्ता ऐसा नहीं था. तब यहां घाटी नहीं थी, इस जगह पर पांच मील लंबा एक मील चौड़ा और कोई तीन सौ फुट गहरा एक विशाल ताल था- गौना ताल. ताल के कोने पर गौना गांव था और दूसरे कोने पर दुरमी गांव. इसलिए कुछ लोग इसे दुरमी ताल भी कहते थे. पर बाहर से आनेेवालों के लिए यह बिरही ताल ही था, क्योंकि चमोली-बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर बसे बिरही गांव से ही इस ताल तक आने का पैदल रास्ता शुरू होता था.

ताल के ऊपरी हिस्से में त्रिशूल पर्वत की शाखा कुंवारी पर्वत से निकलनेवाली बिरही समेत अन्य छोटी-बड़ी चार नदियों के पानी से ताल में पानी भरता रहता था. ताल के मूंह से निकलने वालीअतिरिक्त पानी की धारा फिर से बिरही नदी कहलाती थी. यहां से लगभग 18 किलोमीटर के बाद यह अलकनंदा में मिल जाती थी. सन 1970 की जुलाई के तीसरे हफ्ते ने बरसों पुराने इस सारे दृश्य को एक ही क्षण में बदलकर रख दिया.

दुरमी गांव के प्रधानजी उस दिन को याद करते हैं: ‘तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था. पानी तो इन दिनों हमेशा गिरता है, पर उस दिन की हवा कुछ और थी. ताल के पिछले हिस्से में आने वाले पानी के साथ बड़े-बड़े पेड़ बह-बह कर आने लगे थे. ताल के पानी में ऐसी बड़ी-बड़ी भंवरे उठ रही थी कि ये पेड़ उनमें तिनके की तरह खिच जाते थे, फिर कुछ देरी बाद बाहर फिंका जाते और ताल के चारों ओर चक्कर काटने लगे थे. ताल में उठ रही लहरें उन्हें यहां से वहां, वहां से यहां फेंक रही थी. देखते-देखते सारा ताल पेड़ों से ढंक गया. अंधेरा हो चुका था. हम लोग अपने-अपने घरों में बंद हो गये. घबरा रहे थे कि आज कुछ अनहोनी होकर रहेगी. खबर भी करते तो किसे करते? जिला प्रशासन हमसे 22 किलोमीटर दूर था.’ घने अंधेरे ने इन गांववालों को उस अनहोनी का
चश्मदीद गवाह न बनने दिया पर इनके कान तो सब सुन रहे थे.

प्रधानजी बताते हैं- ‘उस रात भयानक आवाजें आती रहीं. फिर एक जोरदार गड़गड़ाहट हुई और फिर सबकुछ ठंडा पड़ गया.’ ताल के किनारे की ऊंची चोटियों पर बसनेवाले इन लोगों ने सुबह के उजाले में पाया कि गौना ताल फूट चुका है, बड़ी-बड़ी चट्टानों और हजारों पेड़ों का मलबा और रेत ही रेत पड़ी थी चारों ओर. ताल का बचा-खुचा पानी इधर-उधर से रास्ता बनाकर बरसों पहले मिट चुकी बिरही नदी को फिर से जन्म दे रहा था.

ताल की पिछली तरफ से आनेवाली नदियों के ऊपरी हिस्सों में जगह-जगह भूस्खलन हुआ था. उसके साथ सैंकड़ों पेड़ उखड़-उखड़कर नीचे चले आए थे. इस सारे मलबे को, टूटकर आनेवाली बड़ी-बड़ी चट्टानों को गौना ताल अपनी 300 फुट की गहराई में समाता गया, सतह ऊंची होती गई, और फिर लगातार ऊपर उठ रहे पानी ने ताल के मूंह पर रखी एक विशाल चट्टान को उखाड़ फेंका और देखते ही देखते सारा ताल खाली हो गया. घटना स्थल से तीन सौ किलोमीटर दूर बसे नीचे हरिद्वार तक इसका असर पड़ा.

सन 1970 में गौना ताल ने बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समाकर उसका छोटा-सा अंश ही बाहर फेंका था

गौना ताल ने इस बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समाकर उसका छोटा-सा अंश ही बाहर फेंका था. उसने सन 1970 में अपने आप को मिटा कर उत्तराखंड, तराई और दूर मैदान तक एक बड़े हिस्से को बचा लिया था. वह सारा मलबा उसके विशाल विस्तार और गहराई में न समाया होता तो सन 70 की बाढ़ की तबाही के आंकड़े कुछ और ही होते. लगता है गौना ताल का जन्म बीसवीं सदी के सभ्य लोगों की मूर्खताओं के कारण आने वाले विनाश को थाम लेने के लिए ही हुआ था.

ठीक आज ही की तरह सन 1893 तक यहां गौना ताल नहीं था. उन दिनों भी यहां एक विशाल घाटी ही थी. सन 1893 में हुई तेज बरसात और उसके साथ आए भूस्खलन से घाटी के संकरे मुंह पर ऊपर से एक विशाल चट्टान आकर अड़ गई थी. घाटी की पिछली तरफ से आनेवाली बिरही और उसकी सहायक नदियों का पानी मुंह पर उस अड़ी चट्टान के कारण धीरे-धीरे गहरी घाटी में फैलने लगा था. अंग्रेजों का जमाना था, प्रशासनिक क्षमता में वे सन 1970 के प्रशासन से ज्यादा कुशल साबित हुए. तब के प्रशासन ने उस समय जन्म ले रहे गौना ताल के ऊपर बसे एक गांव में बाकायदा एक तारघर स्थापित किया. तारघर का तार बाबू समय-समय पर इस ताल के बढ़ते जलस्तर की ठीक-ठीक जानकारी नीचे बैठे ऊंचे अधिकारियों को देता रहता था.

एक साल तक ये नदियां उस ताल को भरती रहीं. जलस्तर लगभग तीन सौ फुट ऊंचा उठ गया. तारघर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया. बिरही और सन 1970 की तरह एकाएक नहीं. किनारे के सभी गांव खाली करवा लिए गये थे. प्रलय को झेलने की पूरी तैयारी थी. फूटने के बाद तीन सौ फुट का जल स्तर 30 फुट मात्र रह गया. ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहीं था. गोरे साहबों से संपर्क न सिर्फ ताल से बल्कि उसके आसपास की चोटियों पर बसे गांवों से भी बना रहा. उन दिनों एक अंग्रेजी अधिकारी महीने में एक बार इस दुर्गम इलाके में जाकर वहां की समस्याओं और झगडों को निपटाने के लिए एक कोर्ट भी चलाता था. टूटने के बाद बचा-खुचा ताल अब भी विशाल था. ताल में नावें चलती थी.

आजादी के बाद भी नावें चलती रही. सन 1960 के बाद ताल से 22 किलोमीटर की दूरी पर गुजरने वाली हरिद्वार बद्रीनाथ मोटर-सड़क बन जाने से पर्यटकों की संख्या भी बढ़ गई. अब ताल में नाव की जगह मोटर बोट ने ले ली. ताल से प्रशासन का संपर्क सिर्फ पर्यटन विकास के नाम पर कायम रहा. वह ताल के इर्द-गिर्द बसे इन 13 गांवों को धीरे-धीरे भूलता गया. उसे बस इतनी ही बात याद रही कि ताल भरनेवाली नदियों के आगौर, पनढाल में घने जंगल लगे हैं. इन्हें वर्ष 1960 से 1970 के बीच बुरी तरह से काटा गया था.

मुख्य मोटर सड़क से ताल तक पहुंचने के लिए, गांवो तक नहीं, 22 किलोमीटर लंबी एक सड़क भी बनाई जाने लगी. सड़क अभी 12 किलोमीटर ही बन पाई थी कि सन 1970 की जुलाई का वह तीसरा हफ्ता आ गया. ताल फूट जाने के बाद सड़क पूरी करने की जरूरत ही नहीं समझी गई. सन 1894 में गौना ताल के फटने की चेतावनी तार से भेजी थी, सन 1970 में ताल फूटने के बाद ही खबर लग पाई.

बहरहाल अब यहां गौना ताल नहीं है. ऊपर उसमें बड़ी-बड़ी चट्टानों पर पर्यावरण का एक स्थायी लेकिन अदृश्य शिलालेख जरूर खुदा हुआ है. इस क्षेत्र में चारों तरफ बिखरी ये चट्टाने हमें बताना चाहती हैं कि हिमालय में, खासकर नदियों के पनढालों में खड़े जंगलों का हमारे पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है. ऐसे हिमालय में, देवभूमि में हम कितना धर्म करें, कितना अधर्म होने दें, कितना विकास करें, कितनी बिजली बनाएं- यह सब इन बड़ी चट्टानों, शिलाओं पर बहुत स्पष्ट ढंग से लिखा हुआ है, खुदा हुआ है.
क्या हम इस शिलालेख को पढ़ने के लिए तैयार हैं.

(गांधी मार्ग से साभार)