सरकारी बदमाशी, बेबस आदिवासी

इस पूरे विवाद पर पश्चिम वन मंडल के डीएफओ प्रशांत कुमार का कहना है, ‘वह क्षेत्र वन विभाग का है. हम वहां पौधरोपण करना चाहते हैं. इसके लिए हमें वहां साफ-सफाई तो करनी ही पड़ेगी. गड्ढे भी खोदने पड़ेंगे. इसलिए वहां जाते हैं.  और रहा सवाल पुरानी कार्रवाई का तो वह वन अधिकार कानून 1927 के तहत की गई थी. उन लोगों ने अतिक्रमण किया था. उन्हें नियमानुसार हटाया गया है. आज की कार्रवाई नहीं है, 2011 से चल रही है. 2006 का कानून कहता है, जो वनक्षेत्रों की जमीन पर रह रहे हैं, उन्हें ग्राम सभा के माध्यम से जमीन पर दावा करना होता है. अगर वह दावा मान्य होता है और यह पाया जाता है कि संबंधित जमीन पर उनका कब्जा 2005 से पहले का है तो उन्हें पट्टे जारी कर दिए जाते हैं. लेकिन उनकी तरफ से ऐसा कोई भी दावा नहीं किया गया. 2011 में भी हमने कार्रवाई की थी. अगर वाकई में आदिवासियों का उस जमीन पर दावा होता तो ये ग्रामसभा में अपना दावा पेश कर चुके होते.’

इसके जवाब में अनुराग मोदी कहते हैं, ‘मान लीजिए ये लोग ग्रामसभा के पास नहीं गए. लेकिन क्या कानून ये कहता है कि जो व्यक्ति ग्राम सभा के पास नहीं जाएगा, उसे अवैध बोलकर हटा दिया जाए. ये प्रक्रिया पूरी करना तो आपका काम है. आप शासन-प्रशासन में बैठे हुए हैं. आपके पास सारे तंत्र हैं. आप उन सीधे-सादे अनपढ़ आदिवासियों के सिर क्यों ठीकरा फोड़ रहे हो कि वो नहीं गए. आपकी ग्राम सभा चली जाती उनके पास. इसमें आदिवासी विभाग को नोडल एजेंसी बनाया गया है. जिसकी जवाबदारी है कि उसे आदिवासी के पास जाकर फॉर्म भरना है. अनपढ़ आदिवासी ये सब प्रक्रिया नहीं कर सकते. इसलिए तो कानून के नाम पर अंग्रेज उससे जमीन छीन लेते थे. आजाद भारत में भी आप वही कर रहे हैं और उसी कानून के तहत कर रहे हैं. कोई दावा नहीं तो जमीन हमारी.’

मामले में शासन की ओर से मध्यस्थता करने वाले बैतूल विधायक हेमंत खंडेलवाल कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री के आदेश पर समझौता कराया था. तय हुआ था कि जांच के बाद जो भी सामने आएगा उसके तहत आगे की कार्रवाई होगी. वन विभाग ने जब कार्रवाई की थी तो उसके कब्जे में जमीन आ गई थी. जब आदिवासी कब्जा लेने वापस गए तो विभाग ने उन्हें हटाया. तब से वो वहां बैठे हुए हैं. समझौते में यह तय नहीं हुआ था कि जमीन उन्हें तत्काल प्रभाव से दे दी जाएगी.’ वह आगे बोलते हुए जिस संवेदनहीनता का परिचय देते हैं उससे साफ पता लगता है कि आदिवासियों को राज्य शासन किस दृष्टि से देखता है. वह कहते हैं, ‘माना कि वे खुले आसमान के नीचे सर्दी में रात बिता रहे हैं लेकिन 15 दिन की ही तो बात है. जमीन उनके पास है या विभाग के पास क्या फर्क पड़ता है. ये चीज दिखने में बहुत बड़ी लगती है. लेकिन 15 दिन तो कोई भी इंतजार कर सकता है. अगर उनके हक में फैसला होगा तो कब्जा मिल जाएगा. न्यायिक जांच हो जाने दीजिए. अगर 15 दिन में फैसला न आए तब आंदोलन कीजिए.’ पर आज महीना भर हो चुका है और हालात जस के तस हैं.

वहीं पूरे मामले में शासन और प्रशासन के बीच स्पष्ट मतभेद दिखाई देता है. जहां एक ओर विधायक हेमंत खंडेलवाल मानते हैं कि पीड़ितों में 10-15 ही  ऐसे हैं, जांच के बाद जिनका दावा जमीन पर सही साबित होगा. वहीं दूसरी ओर जिला कलेक्टर तहलका से बात करते हुए कहते हैं, ‘जांच इस बात की नहीं कराई जा रही कि जमीन पर अवैध अतिक्रमण है या नहीं? जांच इस बात की कराई जा रही है कि वन विभाग की कार्रवाई का तरीका सही था या नहीं. अवैध अतिक्रमण तो पहले ही साबित हो चुका है.’ पर अनुराग मोदी सवाल उठाते हैं, ‘प्रशासन ने कैसे साबित किया कि वह अवैध हैं. कौन-सी जांच की, किन लोगों के बयान लिए? उस जांच की रिपोर्ट हमें उपलब्ध करा दें. अतिक्रमण ढहाने के बाद की थी या पहले? प्रशासन की कार्रवाई खुद सवालों के घेरे में है और वह खुद ही जांच करके खुद को क्लीनचिट दे रहा है.’

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मजबूरीः बैतूल जिले के उमरडोह वनग्राम के आदिवासियों के आशियाने उजड़ जाने के बाद ठंड में वे खुले आसमान के नीचे दिन-रात गुजारने को मजबूर हैं

मोदी के अनुसार 2010 से कई बार जिला कलेक्टर को इस बारे में पत्र लिखा जा चुका है. पर प्रशासन ने उदासीन रवैया अपनाए रखा. और अब अचानक से हटाने की बात करने लगे. क्यों इस बीच ग्राम सभा के माध्यम से आदिवासियों की बसाहट से संबंधित प्रक्रिया पूरी नहीं की गई? अकील अहमद प्रशासन की मंशा पर सवाल उठाते कहते हैं, ‘जब प्रशासन को पता था कि 2011 से ही इनका अवैध कब्जा है और वह तब ऐसी एक कार्रवाई भी कर चुका था, तो उसके बाद पांच साल वह सोता क्यों रहा? क्यों वहां अतिक्रमण होने दिया?’ वहीं अनुराग मोदी कहते हैं कि कोई भी कार्रवाई की जाती है तो पूर्व सूचना के बाद की जाती है. पर वन विभाग ऐसी कोई सूचना नहीं देता. वो नोटिस जारी करके अपने पास रख लेता है और कार्रवाई के लिए कभी भी पहुंच जाता है. पर प्रशांत इससे इंकार करते हुए कहते हैं कि नोटिस जारी किया गया था. जिस पर अनुराग मोदी का तर्क है कि जब किसी को यह पता हो कि उसका घर उजड़ने वाला है तो वह उसे बचाने के लिए हाथ-पैर जरूर मारता है. वनवासियों को पता नहीं था कि उनके ऊपर कौन सी आपदा आने वाली है.

‘उन्होंने हमारा सब कुछ उजाड़ दिया. विरोध करने पर हमसे मारपीट की गई और जाते-जाते ये तक बोल दिया गया कि पानी मत पीना, फसलें मत खाना, उनमें जहर मिला दिया है’

वहीं शासन-प्रशासन यह भी तर्क प्रस्तुत कर रहा है कि उमरडोह के वनवासी सही मायने में जंगल की जमीन को कब्जाना चाहते हैं. उनके पास पहले से ही खुद के मकान और जमीन हैं. लेकिन प्रशासन का यह तर्क गले नहीं उतरता. क्योंकि अगर ऐसा होता तो पीड़ित परिवार अपने बच्चों के साथ सर्द रातें खुले में बिताने का जोखिम कभी नहीं उठाते.

अनुराग कहते हैं, ‘2006 के अधिनियम में ऐसा प्रावधान किया गया था कि किसी भी कब्जेधारी को तब तक नहीं हटाया जाएगा, जब तक ग्राम सभा द्वारा उसके दावे पर विचार नहीं कर लिया जाता. ऐसा इसलिए था क्योंकि अगर आप लोगों को कब्जे से हटा देंगे तो वो अपनी जमीन पर दावा करने की स्थिति में ही नहीं होंगे. लेकिन वन विभाग ने इसका तोड़ इस तरह निकाला कि जबरन उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया. अब करिए दावा. आपके कब्जे में जमीन तो है नहीं. वहीं वन विभाग किसी भी कार्रवाई से पहले ग्राम सभा की सहमति से नोटिस जारी होता है. लेकिन इसकी पूरी तरह अनदेखी की गई.’

बहरहाल इस सबके बीच बिना छत के सर्द मौसम में रात गुजारने वाले उमरडोह के वनवासियों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. शासन-प्रशासन उन्हें धरने से उठाकर अपना दांव खेल चुका है और जांच की प्रक्रिया देश में कितनी लंबी चलती है, यह किसी से छिपा नहीं. वन विभाग कार्रवाई में देरी की लापरवाही तो स्वीकारता है, पर गलत नहीं ठहराता. वन विभाग की देर से फैसला लेने की लापरवाही की कीमत चुका रहे वनवासियों का आगे क्या होगा? इसका जवाब किसी के पास नहीं.

इस बीच मामले से संबंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश के जबलपुर हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि तीन महीने में पीड़ितों के दावे का निराकरण किया जाए. तब तक उन्हें वहां से न हटाया जाए. अनुराग बताते  हैं, ‘इस पर कितना अमल होता है, पता नहीं. फिलहाल तो स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है. वे अभी खुले आसमान के नीचे रातें बिताने पर मजबूर हैं.’