बाप-बेटे के बीच इस तनावपूर्ण रिश्ते का कारण कनु के बचपन में छिपा है. नवनिंद्र बताती हैं, ‘सृजनात्मकता हमारे परिवार में रही है. मेरे पिता नाटककार थे और मां अभिनेत्री इसीलिए जब मैंने और ललित ने भी उसी दिशा में कदम बढ़ाए तो अपने ही बेटे को समय नहीं दे सके.’
जब 80 के दशक में लोग परिवार के साथ फिल्में देखने जाने लगे तब पारिवारिक फिल्मों को सिर्फ खुशियां मनाने तक सीमित कर दिया गया
यहां नवनिंद्र को बीच में रोकते हुए ललित बताते हैं, ‘अब कनु की फिल्म देखकर लगता है कि बड़े होने के दौरान उसने खुद को कितना उपेक्षित महसूस किया होगा.’ ललित ने अपनी पहचान खुद बनाई है और वे कनु के भविष्य को लेकर खासे चिंतित थे. उन्हें लगता था अभिनय कनु के लिए सबसे अच्छा विकल्प होगा. कनु अपने माता-पिता के टीवी धारावाहिकों का छोटा-मोटा हिस्सा भी बने पर धीरे-धीरे उनके माता-पिता समझ ही गए कि उन दोनों की प्राथमिकता भले ही अभिनय हो पर उनका बेटा ये नहीं करना चाहता. जब कनु ने फिल्म निर्देशक बनने की ख्वाहिश जाहिर की, तब उनके पिता को उन पर संदेह था. ललित बताते हैं, ‘वो खुद एक बच्चा था, उसमें निर्देशन के लिए जरूरी गंभीरता कैसे आ सकती थी, वो कैसे ऐसा निर्देशन कर सकता था जो अपरिपक्व न लगे.’
वैसे जब सिनेमा से जुड़े पारिवारिक संबंधों की बात आती है तब एक सवाल हमेशा खड़ा होता है कि भारतीय सिनेमा में परिवारों को एक सीमित परिधि में ही क्यों बांध दिया जाता है? 90 के दशक की फिल्में देखने वालों के लिए पारिवारिक फिल्म का मतलब सिर्फ ‘हैप्पी एंडिंग’ होता है.
पर नवनिंद्र ऐसा नहीं मानतीं. उनका कहना है कि 50 और 60 के दशक में भी अच्छी पारिवारिक फिल्में बनी हैं, ‘मदर इंडिया’, ‘दो बीघा जमीन’ इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं. नजरिया तब बदला जब 80 के दशक में लोग परिवार के साथ फिल्में देखने जाने लगे और पारिवारिक फिल्मों को सिर्फ सेलिब्रेशन यानी खुशियां मनाने तक सीमित कर दिया गया. कनु भी अपनी मां के विचार से सहमत हैं. वे मानते हैं कि कोई भी फिल्म उस दौर को ही दर्शाती है, जिसमें वह बनी है.
कनु विस्तार से बताते हैं कि किस तरह आजादी के बाद का भारतीय सिनेमा आदर्शवाद से प्रभावित था. फिर सत्तर के दशक की फिल्मों में गुस्सा दिखाई दिया जो इस आदर्शवादी व्यवस्था के अधूरे वादों से उपजे मोहभंग की अभिव्यक्ति था और जब इस गुस्से से भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो 80-90 के दशकों में इसका स्तर घटना स्वाभाविक ही था. और फिर 90 के उदारीकरण के बाद फिल्मों को उत्पाद के रूप में देखा जाने लगा, तभी से ही सिनेमा ने अपनी ताकत खो दी. कनु को हाल ही में आई फिल्म निर्देशकों की नई ब्रिगेड से काफी उम्मीदें हैं. ‘बदलापुर’, ‘एनएच 10’ और ‘दम लगा के हईशा’ जैसी फिल्मों की सफलता ने इस उम्मीद को पक्का किया है. पर भारतीय सिनेमा में कोई ‘आंदोलन’ चल रहा है, वे ऐसा नहीं मानते. वे खंडन करते हुए कहते हैं, ‘वास्तव में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के समय के बाद दुनिया भारत को फिर से एक फिल्म बनाने वाले देश के रूप में पहचान रही है. मैं मानता हूं कि चंद निर्देशकों की पहली फिल्में बहुत अच्छी थीं लेकिन आंदोलन सिर्फ एक फिल्म बनाने से तो नहीं होते. यहां देखने वाली बात होगी कि हम दूसरी फिल्में कैसी बनाते हैं. तभी हमारा काम करने का तरीका यह दर्शा सकता है कि कोई आंदोलन है या नहीं.
कनु इस बात को भी नहीं मानते कि फिल्म सिर्फ उसके लेखक से संबंधित होती है. वे मानते हैं कि फिल्म उन सब की होती है, जो फिल्म बनाने में शामिल रहते हैं. ‘तितली’ भी किसी एक व्यक्ति से प्रभावित नहीं बल्कि खुद में ही एक सशक्त फिल्म है. ललित भी इस बात का समर्थन करते हैं. वे दृढ़ता से कहते हैं कि ये फिल्म उभरते भारत पर एक टिप्पणी है. कनु को संशय है पर ललित मानते हैं कि इस फिल्म की तुलना ‘दो बीघा जमीन’ से की जा सकती है, जिस तरह ‘द डेथ ऑफ ए सेल्समैन’ टूटे हुए अमेरिकी ख्वाब का प्रतिबिम्ब थी, उसी तरह फिल्म ‘तितली’ भी मौजूदा समय का आईना है.