एक अस्वस्थ परंपरा की शुरुआत

फोटोः विजय पांडे
फोटोः विजय पांडे
फोटोः विजय पांडे

केवल निपट राजनीतिक विरोधियों को ऐसा भले न लगे लेकिन आम जनता में कइयों को ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी पिछली सरकारों की तुलना में अर्थव्यवस्था, विदेशों से संबंध और शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली में आवश्यक सुधार लाने वाले हैं. वे हर दिन बीस के हिसाब से सरकारी तागों में लिपटी आम आदमी की जिंदगी को कुछ आसान, कम उलझी बना सकते हैं ऐसा कैमरों और माइक के पीछे उनके कुछ विरोधियों को भी डर है. अगर ऐसी सोच उनके प्रति कुछ लोगों की है तो उसके पीछे उनका काम करने का वह तरीका है जिसमें बाबू दिन में 12 घंटे काम करते हैं और न्यायपालिका में नियुक्ति वाले बिल को पास कराने जैसे कदम आनन-फानन में उठा लिए जाते हैं. अगर सरकार

आते ही प्रमाणपत्रों को गजेटेड अधिकारियों से अटैस्ट न कराने और ईसाई मांओं को उनके मृत बच्चों की जायदाद में हिस्सा दिलाने जैसे जरूरी निर्णय लेती है तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं.

लेकिन पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाने का फैसला इस सोच को मुकम्मल होने से पहले ही रोक लेता है. जस्टिस सदाशिवम के राज्यपाल बनने में कुछ कानूनी अड़चन भले न हो, ऐसा करना सही नहीं है ऐसा सोचने में भी कोई अड़चन नहीं है. सरकार कितना भी कहे कि वह समाज के प्रतिष्ठित लोगों को राज्यपाल बनाकर इस पद का गैर-राजनीतिकरण कर रही है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि उसका यह निर्णय ज्यादा जाने और कुछ अनजाने में थोड़ा-बहुत ही सही लेकिन न्यायपालिका का राजनीतिकरण करने की क्षमता भी रखता है.

सीबीआई के अलावा राज्यपालों का भी केंद्र सरकारों ने अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया है

अगर सरकार राज्यपाल के पद का ऐसा ही गैर-राजनीतिकरण करना चाहती है तो उसे केवल तुरंत-अवकाशप्राप्त पूर्व मुख्य न्यायाधीश ही इसके लिए क्यों मिला? और उसने बाकी सारे गवर्नरों की नियुक्ति भी राजनीतिक आधार पर ही क्यों की? यहां तक कि शीला दीक्षित सहित जिन कुछ राज्यपालों को उनके पद से हटाया गया उसके पीछे भी राजनीतिक वजहें ही थीं.

भारतीय संविधान ने देश की सर्वोच्च न्यायालय को असीम शक्तियां दी हैं. यह अमेरिका के फेडरल कोर्ट से ज्यादा शक्तिशाली है और आजादी से पहले के हमारे फेडरल कोर्ट से भी. अमेरिकी फेडरल कोर्ट केवल संघीय कानूनों से जुड़े मसलों पर ही सुनवाई कर सकता है और आजादी से पहले का भारत का फेडरल कोर्ट वह आखिरी कोर्ट नहीं था जिसमें किसी मामले की सुनवाई हो सकती थी. तब देश की आखिरी अपीलीय अदालत ब्रितानी प्रिवी काउंसिल थी. लेकिन हमारा सर्वोच्च न्यायालय न सिर्फ राज्यों के कानूनों पर सुनवाई कर सकता है बल्कि आखिरी अपीलीय अदालत भी है. इसके अलावा हमारा सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने, मूलभूत अधिकारों की रक्षा करने और व्यवस्था के सबसे ऊंचे स्तर को सलाह-सुझाव देने का कार्य भी करता है. इतने अधिकारों-शक्तियों को इस्तेमाल करने वाली संस्था की न केवल स्वतंत्रता सुनिश्चित करना जरूरी है बल्कि उसे हर लोभ-लालच-डर से बचाना भी जरूरी है. इसके लिए संविधान में तरह-तरह के उपाय किए गए हैं.

उदाहरण के तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति की अलग तरह की व्यवस्था है – जिसे वर्तमान सरकार ने कुछ और बेहतर बना दिया है, उनका कार्यकाल निश्चित है और सर्वोच्च न्यायालय का खर्चा देश के कंसॉलिडेटेड फंड से आता है. इसके अलावा सर्वोच्च अदालत अपना स्टाफ खुद नियुक्त करती है, इसकी शक्तियों को कोई छीन नहीं सकता और इसके क्रियाकलापों की चर्चा किसी विधायिका और संसद में नहीं की जा सकती. न्यायपालिका और कार्यपालिका को एक-दूसरे से अलग रखने की व्यवस्था भी इसी वजह से की गई है. संविधान के अनुच्छेद 124(7) में यह भी प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी अवकाशप्राप्त जज भारत की किसी भी अदालत में या प्राधिकरण के समक्ष जिरह या उसमें कार्य नहीं कर सकता.

अब इतने तरह के प्रावधानों से सुरक्षित-संरक्षित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से एक को –वह भी पूर्व मुख्य न्यायाधीश– सरकार ने एक राज्य का राज्यपाल बना दिया है. ऐसे में कोई जज गवर्नर बनने के लालच में अपने कार्यकाल के आखिर में कुछ गड़बड़ी कर सकता है, ऐसी आशंका से कैसे इनकार किया जा सकता है. इंदिरा गांधी के समय ऐसे उदाहरण मिलते ही हैं जब दो जजों को बिना बारी के देश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया था.

हालांकि कई ऐसे कानून हैं जो सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद अहम पदों पर नियुक्त करने का काम करते हैं जैसे कि उपभोक्ता संरक्षण कानून और मानवाधिकार सुरक्षा कानून. लेकिन इन पदों का कार्य न्यायपालिका के कार्य से मिलता-जुलता ही है और दूसरा एक बार नियुक्ति के बाद इन पर कार्यपालिका के दखल की गुंजाइश भी न के बराबर है.

दूसरी ओर राज्यपाल का पद घोषित तौर पर संवैधानिक होते हुए भी असल में राजनीतिक ही है. राष्ट्रपति के माध्यम से नियुक्त करके केंद्र सरकार कभी भी राज्यपाल को हटा सकती है. यानी कि किसी का गवर्नर बनना और बने रहना सरकार की इच्छा पर ही निर्भर करता है. इसीलिए सीबीआई के अलावा राज्यपालों का भी केंद्र सरकारों ने अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया है.

किसी लोकतंत्र में न केवल संविधान के मुताबिक चलना जरूरी है बल्कि समय-समय पर उसमें अनुपस्थित व्यवस्थाओं के लिए स्वस्थ परंपराएं बनाना भी जरूरी है. ऐसा इसलिए भी है कि आपकी सरकार न सही आगे या उसके भी आगे की सरकार इनके थोड़ा आड़ा-तिरछा होने की आड़ में अपने गलत खेल, खेल सकती हैं. लेकिन मोदी सरकार का यह निर्णय इतनी दूरंदेशी की बात नहीं करता. और पूरी तरह पारदर्शी भी नहीं लगता.