कनहर कथा

इस हाल से तंग आकर ग्राम स्वराज समिति की पहलकदमी पर आदिवासी किसानों ने सन 2000 में कनहर बचाओ आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन का उद्देश्य था कनहर बांध से होने वाले पर्यावरण विनाश और विस्थापन के खिलाफ व्यापक जनगोलबंदी करना. कनहर बचाओ आंदोलन के जरिए ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बांध को नकार दिया. ग्राम स्वराज समिति के संयोजक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता महेषानंद कहते हैं, ‘सन 1976 में शुरू की गई यह परियोजना 1984 में परित्यक्त कर दी गई. आज 30 साल बाद बिना किसी नई अनुमति या अध्ययन के उसे फिर से शुरू करने का क्या औचित्य है? यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि परियोजना के आरंभ होने से पहले सरकार ने अधिसूचना जारी कर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की थी किंतु 1984 में योजना के परित्यक्त हो जाने के बाद अधिग्रहण की प्रक्रिया स्वतः ही समाप्त हो जाती है.’

केवल इतना ही नहीं बल्कि अधिग्रहित जमीनों पर उसके मालिक ही काबिज रहे. वह इस जमीन पर खेती करते रहे और उसका कर्ज भरते रहे और कुछ लोगों ने इस जमीन के आधार पर कर्ज भी लिया. इस सबका रिकॉर्ड राजस्व विभाग की फाइलों में दर्ज है. यानी अधिग्रहण के बाद भी जमीन की मिल्कियत किसानों के पास ही रही. इस संबंध में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि यदि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया किसी कारण से समाप्त हो जाती है तो चाहे उस व्यक्ति ने मुआवजा ले भी रखा हो तो भी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा 48 (3) के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति की जो मानसिक व आर्थिक क्षति पहुंची है इसके लिए सरकार उसे मुआवजा देने के लिए बाध्य है. इन्हीं सब आधारों पर डूब क्षेत्र में आने वाली सोनभद्र की सभी ग्राम सभाओं ने कनहर बांध के विरोध में पहले ही प्रस्ताव पारित कर रखा है. इन सभी ग्राम सभाओं ने अपने प्रधानों के माध्यम से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका (697043/2011) भी दायर कर रखी है.

कनहर बचाओ आंदोलन से जुड़े पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरन जैन कहते हैं, ‘कनहर बांध सिर्फ गैर कानूनी ही नहीं बल्कि असंवैधानिक भी है. 73वें संविधान संशोधन के बाद अब ग्राम सभाएं उतनी ही महत्वपूर्ण संस्थाएं बन गई हैं जितनी की संसद या विधानसभाएं हैं. यानी कनहर क्षेत्र में भूमि सुधार, खेती के विकास या सिंचाई से संबंधित योजनाएं अगर बननी हैं तो यह ग्राम सभाओं के अधिकार क्षेत्र में हैं. ये योजनाएं अब ग्राम सभाएं बनाएंगी न कि केंद्र या राज्य सरकार उन पर लादेंगी. वास्तविकता यह है कि प्रभावित होने वाले गांव की ग्राम सभाओं ने सर्वसम्मति से बांध को नकार दिया है. उत्तर प्रदेश सरकार को नियामगिरी के अनुभव से सबक लेना चाहिए.’ इस लिहाज से देखा जाय तो यह परियोजना गांव के संवैधानिक आधिकारों को चुनौती देना है. केवल इतना ही नहीं है इन क्षेत्रों में लगातार पंचायत चुनाव होते रहे हैं. पंचायतें निर्माण एवं विकास कार्य करती रही हैं और यहां मनरेगा जैसी योजनाएं भी लागू हैं.

इन स्थितियों को नजरअंदाज करके स्थानीय प्रशासन ने विधायक रुबी प्रसाद की अध्यक्षता में पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना के मसले पर ग्रामीणों की सभा बुलाई. 16 जून 2014 को आयोजित इस सभा में हजारों लोग मौजूद थे. मंच पर आकर सभी ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बांध के विरोध में बात रखी. यहां वक्ताओं में वे ग्राम प्रधान भी मौजूद थे जिन्होंने बांध के विरोध में प्रस्ताव पारित कर रखा है. अंत में मुख्यमंत्री को संबोधित एक ज्ञापन भी प्रशासन को सौंपा गया, लेकिन जब इस सभा की कार्यवाही की रपट प्रधानों के पास पहुंची तो वे चकित रह गए. इसमें सिर्फ सरकारी अधिकारी एवं विधायक के वक्तव्य थे. जनता के विरोध को उसमें जगह ही नहीं दी गई थी. इससे पता चलता है कि प्रशासन एवं सरकार एक कृत्रिम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है.

फिलहाल सोनभद्र में टकराव की स्थिति है. प्रशासन अभी कुछ कहना नहीं चाहता. कनहर बचाओ आंदोलन की ओर से कई जगह परियोजना प्रस्ताव की प्रतियां जलाने का कार्यक्रम प्रस्तावित किया गया है. कहनर बांध की कहानी जारी है. तीन शिलान्यास, करोड़ों रुपये, विस्थापन की आशंका और सोनभद्र का पहले से ही घबराया हुआ पर्यावरण अपनी जगह कायम है. वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ओडी सिंह कहते हैं कि इस परियोजना की अगर कायदे से जांच हो तो एक बहुत बड़ा आर्थिक घोटाला सामने आ सकता है.

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