गाजा संकट से उपजे सवाल

हालांकि भारतीय अखबारों और चैनलों में भी यह खबर लगातार चल और छप रही है लेकिन उस तरह कवर नहीं हो रही जैसे पश्चिमी देशों या अल जजीरा जैसे चैनल और चीन जैसे देशों का न्यूज मीडिया इसे कवर कर रहा है. इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि किसी भी चैनल या अखबार ने गाजा में अपने रिपोर्टर या कैमरा टीमें नहीं भेजीं. आखिर क्यों? यही नहीं, दो सप्ताह से जारी संघर्ष और हमलों की रिपोर्टें ज्यादातर मौकों पर चैनलों की फटाफट या न्यूज हंड्रेड में ‘रूटीन खबर’ की तरह शामिल की गईं. अखबारों में उन्हें अंदर के पन्नों में जगह मिली.

बिना अपवाद सभी अखबार और चैनल पश्चिमी एजेंसियों और अखबारों की रिपोर्टों को छापते/दिखाते रहे. इन रिपोर्टों और विश्लेषणों में दबे-छिपे और कई बार खुलकर इजरायल के पक्ष में झुका पश्चिमी नजरिया और झुकाव साफ देखा जा सकता है. हालांकि भारतीय जनमत का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक रूप से फलीस्तीन के साथ रहा है और इजरायल के रवैय्ये की आलोचना करता रहा है. अफसोस कि भारतीय संसद में गाजा मुद्दे पर चर्चा कराने को लेकर विपक्ष और सरकार के बीच हुई तकरार के बाद कई चैनलों पर हुई बड़ी बहसों/चर्चाओं में भाजपा/शिव सेना के प्रतिनिधियों की मौजूदगी के कारण जाने-अनजाने एक सांप्रदायिक अंडरटोन भी दिखाई पड़ा.

कहने की जरूरत नहीं है कि एक बार फिर भारतीय न्यूज मीडिया गाजा जैसी बड़ी वैश्विक त्रासदी की खबर को स्वतंत्र और सुसंगत तरीके से कवर करने में नाकाम रहा. और गाजा ही क्यों, ईराक में कट्टर इस्लामी संगठन- आईएसआईएस की बढ़त और यूक्रेन संकट जैसे वैश्विक महत्व की खबरों की स्वतंत्र, गहरी, ऑन-स्पॉट और व्यापक कवरेज के मामले में भारतीय न्यूज मीडिया का बौनापन साफ दिख जाता है. भारत को वैश्विक महाशक्ति का दर्जा देने का राग अलापनेवाला भारतीय न्यूज मीडिया अपने दर्शकों/पाठकों को वैश्विक महत्व के बड़े मसलों की स्वतंत्र, गहरी, ऑन-स्पॉट रिपोर्टिंग और विश्लेषण पेश करने का साहस और तैयारी कब दिखाएगा?

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