शिक्षा, मंत्री और सरकार

असली सवाल यही है- जो सिर्फ नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नहीं, भारत की पूरी राजनीति से पूछा जाना चाहिए. क्या लोकतंत्र को उन्होंने बस संख्या बल से हासिल जीत का पर्याय नहीं बना डाला है और इस वजह से क्या हर जगह उनकी कसौटियां निजी वफादारी या सार्वजनिक हैसियत से ही तय नहीं होती हैं?  केंद्रीय मंत्रिमंडल में राजनाथ सिंह, अरुण जेटली या सुषमा स्वराज से लेकर धारा 370 की बहस छेड़ने वाले राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह तक अपने विषयों की जानकारी से नहीं, अपनी हैसियत या वफादारी की वजह से उन जगहों पर हैं, जहां वे रखे गए हैं. बेशक, कुछ मामलों में क्षेत्रीय या दलीय प्रतिनिधित्व की मजबूरियां भी रही हैं, लेकिन अन्यथा मंत्रिमंडल में आने-जाने की कसौटियां बेहद अलग और स्पष्ट हैं और वे राजनीतिक प्राथमिकताओं से ही तय होती हैं.

लेकिन इस नजरिए से देखें तो बदलाव के लिए मिले जनादेश के नाम पर मंत्रियों से 100 दिन का एजेंडा मांगने या कम शासन अधिक प्रशासन जैसे मुहावरे देने के अलावा नरेंद्र मोदी सरकार किसी भी मामले में पुरानी सरकारों से अलग नहीं दिख रही. उल्टे, पहले वित्तमंत्री के रूप में और फिर प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो एजेंडा सेट किया, वह उसे कुछ जोर-शोर से ही बढ़ा रही है. बाजार, निवेश और बड़े पूंजीपति उसकी प्राथमिकताओं में हैं इसलिए उसने वित्त, वाणिज्य और भारी उद्योग जैसे मंत्रालय तो घोषित कर दिए, लेकिन कामगार उसकी सूची से बाहर हैं इसलिए अब तक श्रममंत्री की घोषणा नहीं की. अब तो शक होता है कि श्रम मंत्रालय जैसा कोई महकमा बचेगा भी या नहीं. जहां तक मानव संसाधन जैसे भारी-भरकम शब्द के नीचे दबी हुई शिक्षा का सवाल है, उसको लेकर भी सरकार की सोच में कोई नयापन नहीं दिखता.

जो जेन ऑस्टिन से लेकर स्टीव जॉब्स तक के उदाहरण पेश करके बता रहे हैं कि डिग्री से कुछ नहीं होता, वे दरअसल दूसरा सच छुपा रहे हैं

सच तो यह है कि हमारे समय और समाज में शिक्षा के सवाल सबसे गहरे और उसकी चुनौतियां सबसे तीखी हैं. पूरी की पूरी शिक्षा जैसे बेहतर मनुष्य या नागरिक बनाने की जगह बाजार के लिए प्रबंधक, इंजीनियर और डॉक्टर बनाने को समर्पित है और साहित्य, इतिहास या समाजशास्त्र जैसे मानविकी के तहत आने वाले वे विषय जो सभ्यता और संस्कृति के दूरस्थ आयामों का परिचय देते हैं, उपेक्षित नहीं, बिल्कुल बेदखल हैं.

पिछली सरकार ने कम से कम शिक्षा को बच्चों के बुनियादी अधिकार के तौर पर मान्यता जरूर दी थी, लेकिन प्राथमिक शिक्षा पर निजी पूंजी के लगातार बढ़ते शिकंजे के साथ यह सच्चाई और बड़ी हो रही है कि हमारे समाज की गैरबराबरी हमारे स्कूलों की गैरबराबरी के साथ ही शुरू हो जाती है. इसी तरह उच्च शिक्षा के जो भी लक्ष्य हमने निर्धारित किए हों, वे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और विश्वविद्यालयों के आगे कहीं नहीं टिकते. कुछ प्रमुख प्रबंधकीय और अभियंत्रण संस्थानों के छात्र विदेशों में जाकर आगे की पढ़ाई या नौकरी कर लेते हैं और उसी से हम खुश हो जाते हैं. शोध की स्थिति हमारे यहां बेहद बुरी है.

कोई संजीदा मानव संसाधन मंत्री होता तो शायद वह इन सवालों पर विचार करता. लेकिन क्यों करता? ये सवाल जब सरकार के एजेंडे में प्राथमिक नहीं हैं तो वह उनका बोझ क्यों उठाए? निजी विश्वविद्यालयों की मंजूरी, कुछ आईआईटी-आईआईएम की घोषणाओं और शिक्षा के चैनलों के नाम पर कुछ खिलाड़ियों की गुंजाइश बनाने के अलावा स्मृति ईरानी को करना क्या है जिसके लिए उन्हें अयोग्य करार दिया जा सके? उनके पहले के पढ़े-लिखे मानव संसाधन मंत्रियों ने ही कौन से तीर मारे हैं कि वे या उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने लिए किन्हीं नए लक्ष्यों की चुनौती महसूस करें और सोचें कि बदलाव के जिस जनादेश की वे बात कर रहे हैं, उसका असली मतलब क्या है?

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