मौत की बांहों में भोपाल

मुर्दाघर से जीवित लौटे ‘मृत’
इधर अस्पतालों की हालत यह थी कि सारे एलोपैथ होमियोपैथ हो रहे थे; अर्थात क्षणों के अनुसार दवा दे रहे थे. दवा का रोग से कोई सम्बन्ध नहीं था. चिंता केवल रोगी से जुड़ने की थी, जो मौत के कगार पर बैठा था. आंख का दर्द कहो तो ड्रॉप मिल गया, सीने में जलन बताई तो डायजीन दे दी. जैसे दिल के मरीज गैस से नहीं, उस तेज दवा से मर गए, जो दी गई थी. इसी तरह बहुतेरे, जिन्हें मृत घोषित कर दिया था, बाद में जीवित पाए गए. कुछ मृत घोषित किए जाने के बाद मरे. इलाज करनेवालों के अगुआ डॉक्टरों ने यह रहस्य की बात दो दिन बाद बताई कि चूंकि इस गैस को अपनी सांसों में समाहित कर लेने वाले मरीज का एक लक्षण यह है कि उसकी नाड़ी गायब हो जाती है पर प्राण शेष रहते हैं, धड़कन बकाया रहती है, इसलिए उसे नाड़ी देखकर मृत घोषित नहीं करना चाहिए.

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मैं स्वयं एक महिला से मिला हूं जो मृत घोषित की जाने के बाद मुर्दाघर में पहुंचाई जा चुकी थीं, जिनके पति उन्हें मृत मानकर अपनी भी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे, क्योंकि वे भी गैस के उतने ही शिकार थे. पर तभी मुर्दाघर में एक रिश्तेदार डॉक्टर लड़की की नजर उस महिला के चेहरे पर पड़ी और चौंकी कि बुआ यहां कैसे? जांच करने पर पता चला कि प्राण शेष हैं और पांच-छह घंटे के प्रयत्न से वे बच गईं. पर ऐसे सौभाग्य बहुतों के नहीं थे. एक बार मृत घोषित किए जाने के बाद चिता ही उनकी दिशा थी. उनकी दशा क्या है, यह प्रश्न निरर्थक था. कोई एक लाख लोगों पर असर था. मरीजों का तांता लगा हुआ था. इलाज को लेकर डॉक्टरों और विशेषज्ञों में मतभेद था. सब जानते थे कि एम.आई.सी. का कोई एंटीडोट नहीं है. बहस इस पर भी थी कि गैस कौन-सी है. कारखाना चुप था. सरकार एम.आई.सी. बता रही थी. जिस तेजी से भोपाल गैस चैम्बर साबित हुआ था, उसे देखकर सभी कह रहे थे कि वह फॉसजीन गैस थी, जो अधिक भयानक होती है. एक सूत्र का कयास था कि विदेशी कारखाना मालिक ने किसी नई प्रायोगिक रूप से तैयार की गई जहरीली गैस को एम.आई.सी. के नाम पर यहां उसी लाइसेंस के अन्तर्गत भेज दिया है, ताकि तीसरी दुनिया के इस गरीब इलाके में उनके असर की जांच-पड़ताल की जा सके. भोपाल के जयप्रकाश नगर, छोला और चांदबड़ क्षेत्र में ‘गिनीपिग’ बसते हैं न! उनके मरने से पता चल जाएगा अमेरिका को कि गैस कितनी असरदार है और मानव सभ्यता को नष्ट करने में उसकी कितनी उपयोगिता है.
घटना हो जाने के दो-तीन दिन बाद कुछ अमेरिकी विशेषज्ञों ने जिन दवाइयों के नाम लिए, वे भारत में नहीं मिलतीं. हमारे देश में जनसंख्या अधिक है, विकास और उत्पादन कम है; इसलिए हम उनसे कारखाना खुलवाते हैं, गैस मंगवाते हैं, पर दवाई नहीं. पश्चिम जर्मनी से जो दवाई आई, वह केवल एक हजार लोगों के लिए थी. उसका अधिकांश भावी खतरे से सुरक्षा के लिए भोपाल के विशिष्ट वर्ग ने बांट लिया. इस तरह इलाज के मामले में इस हादसे का गौरवशाली अध्याय यह है कि प्रयत्न जारी  रहे, लोग मरते रहे. जो जीवित रह गए, यह उनका भाग्य. मृतकों में बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा थी. बिन खिले मुरझा गए उन बच्चों को देखकर लगता था, मीठी नींद सो रहे हैं. अभी-अभी कुनमुनाकर उठेंगे और दूध मांगेंगे.
भोपाल के एक छोर पर सेना का पड़ाव रहता है. गैस का झोंका उस तरफ भी गया. वहां ड्यूटी पर तैनात सैनिक अधिकारियों ने सड़क पर बेहोश होकर गिरते-मरते लोगों को देखा और बिना ऊपरी आदेश का इंतजार किए अपना कर्तव्य तय कर सेवा में जुट गए. बहुतों की जान उनके प्रयत्नों से बची. यह एक अलग अध्याय है.

भागो, भागो, फिर गैस निकली!
दोपहर के बाद छुटभैये नेता नजर आने लगे थे कि तभी एक अजीब घटना  घटी. हुआ यह कि लोगों की बड़ी भारी संख्या यूनियन कार्बाइड के अपराधी कारखाने के इर्द-गिर्द जमा हो रही थी. नाराजी तीव्र थी और लोगों का मूड कारखाने को नष्ट कर देने का था. कहा जाता है कि उस भीड़ से कारखाने को बचाने के लिए यह खबर उड़ाई गई कि टंकी फूट गई है और गैस निकल रही है. भागो, भागो, फिर गैस निकली, भागो! जिसने सुना, वही भागा. रात को शहर  में मौत का तांडव हो चुका था. दिल से दहशत गई नहीं थी. सब भागने लगे.  सिर्फ पुराना शहर ही नहीं, नया शहर भी. घरों को बिना ताला लगाए, अपने-परायों को संभालते या छोड़ते, जो जैसे बना, भाग रहा था. बुरकेवाली औरतें, बच्चे, बूढ़े, समझदार, जिम्मेदार, जवान लड़के-लड़कियां, सरकारी प्यादे, अफसर, वजीर, नेता. रात को वे सो रहे थे, पर इस समय वे होश में थे. सारा भोपाल घर से बाहर निकल गया. डॉक्टर और कलक्टर सभी भागने लगे. नेता भागने लगे. गैस उनका मानो तेजी से पीछा कर रही हो! सड़कों पर सैलाब-सा उमड़ने लगा, डरे हुए परेशान लोगों का.

यह घटना भी भोपाल के मानस से कभी नहीं हटेगी. पति अपनी पत्नी को छोड़ और मां-बाप अपने बच्चों को छोड़ भाग लिये थे. इतने कम समय में बहुत अधिक अनुभव लिये थे भोपाल ने

बाद में अफवाह का जोरदार खंडन किया गया, पर सभी बताते हैं कि खुद मुख्यमंत्री उस समय केरवा बांध के डाक बंगले की तरफ भाग गए थे. भगदड़ मच गई तो रोकना मुश्किल हो गया. रेडियो खबर का खंडन कर रहा था, पर भागनेवाले ट्रांजिस्टर तो लेकर दौड़ नहीं रहे थे. भागने और घबराने का यह दृश्य बहुत दर्दनाक था. गैस नहीं थी, पर गैस का भय पीछा कर रहा था. यह घटना भी भोपाल के मानस से कभी नहीं हटेगी. पति अपनी पत्नी को छोड़ और मां-बाप अपने बच्चों को छोड़ भाग लिए थे. इतने कम समय में बहुत अधिक अनुभव लिए थे भोपाल की जनता ने.
पर इसी सिलसिले में अब तक निष्क्रिय पड़ी व्यवस्था को पुनः लोगों पर छा जाने का अवसर मिल गया. वे जो घृणा के पात्र होकर समाज से तिरोहित हो चुके थे, ‘अफवाहों से सावधान रहिए, कोई डरने की बात नहीं है, स्थितियां पूरी तरह से नियन्त्रण में हैं और सामान्य हैं, जरूरत पड़ने पर कंट्रोल-रूम को फोन कीजिए’ आदि घोषणाओं के साथ वापस लोगों के सिर पर छाने लगे. सबके दर्द के मसीहा बनने लगे. नेतागिरी लौट आई. उसकी छाया तले अफसरशाही. फोन जुड़ने लगे. सरकारी गाड़ियां दौड़ने लगीं. आदेश देनेवालों ने आदेश दिए. जिन्हें आदेश दिए गए, उन्होंने और आदेश दिए. ड्यूटी लगने लगी. मानव सेवा के लिए कुर्सियों का यथोचित पदक्रमानुसार बंटवाना होने लगा. अमला अटेंशन में आया. स्थिति की गम्भीरता सरकारी तौर पर स्वीकार की गई. हुकुम चलने लगे- “भई, ये लड़कों की भीड़ अस्पताल में बहुत ज्यादा  है. इन लोगों ने सब मेस कर रखा है. डॉक्टरों को इलाज करने में तकलीफ होती है. हटाइए इन्हें.”
जो छात्र सेवा में दिन-रात एक किए थे, भगाए जाने लगे. तीमारदारी करने वाली सामाजिक संस्थाएं हटाई जाने लगीं. “यह आप लोगों ने अपना तम्बू अस्पताल के कम्पाउंड में कैसे लगा रखा है? हटाइए इसे!” अभी तक जो क्रियाएं और अंतरक्रियाएं मानवीय स्तर पर चल रही थीं, अब उनका निपटारा सरकारी अंदाज से होने से कुछ मरीजों को ठंड लग रही है. सुना है, इन्दौर से दो ट्रक कम्बल आए हैं. अगर उनमें से कुछ कम्बल मिल जाएं तो मरीजों को दे दें. बेचारे ठंड से मर रहे हैं.” निवेदन सुनकर सरकार बहादुर ने पहला सवाल तो पूछा कि आप कौन होते हैं मरीजों की तरफ से कम्बल मांगनेवाले? दूसरे यह कि कम्बल इश्यू करने के बाद वापस जमा करने की जिम्मेदारी कौन लेगा? तीसरे, इस बात का क्या सबूत कि उस मरीज के नाम पहले कम्बल इश्यू नहीं हुआ? चौथे, यह कि कम्बल मेरे चार्ज में नहीं हैं और जिसके चार्ज में हैं, मुझे पता नहीं, इसलिए सुबह आइए. और किसी अस्पताल में अफसर की कृपा से कम्बल बंट भी गए.

सरकारी पैसाः  मुंशी नजरिया
डॉक्टरों पर जोर डाला गया कि मरीजों की भीड़ कम करो, ताकि सरकार की तरफ से यह घोषणा की जा सके कि अथक प्रयासों से स्थिति नियंत्रण में है और मरीज स्वस्थ होकर लौट रहे हैं. दवाइयां (जो कि वास्तव में दवाइयां थीं ही नहीं, इसमें संदेेह है) थमाकर मरीजों से तम्बू खाली कराए जाने लगे. जाइए-जाइए, घर जाइए. इधर वी.आई.पी. मरीज के आगमन की अपेक्षा से प्राइवेट वार्ड खाली कराए जाने लगे, उधर जनरल वार्ड और तम्बुओं से मरीजों की छुट्टी की जाने लगी. बदनामी के दौर में लोकप्रियता अर्जित करने के लिए सरकार ने घोषित कर दिया कि पीड़ितों को मुआवजा दिया जाएगा. कम कष्ट होने पर एक हजार तक, ज्यादा पर दो हजार तक और इससे ज्यादा पांच हजार तक. अब यह ‘तक’ का निर्णय करने का काम अफसरों के स्वविवेक पर छोड़ दिया गया. सरकारी पैसा बांटने में मुंशी नजरिया काम में लिया गया. जनता की गाढ़ी कमाई के तेल के मालिक तेलियों के आदेश के बावजूद मशालचियों के जी जलने लगे, समान रूप से पीड़ित होने के बावजूद किसी को उसके नेता ने दो हजार दिलवा दिए और किसी बीमार के हाथ सौ रुपये का नोट थमाकर कहा- चलो, फूटो यहां से.

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इधर मरीजों में बात फैल गई कि पांच दिन पलंग से चिपके रहो तो दो हजार मिलेंगे. तीन दिन हो चुके थे. इधर डॉक्टर और अफसर मरीज से कहें कि भागो अस्पताल से. उधर कार्यकर्ता मरीज से कहें कि जाना मत, नहीं तो समझना- डूबे दो हजार. खींचतान मचने लगी, कार्यकर्ताओं और डॉक्टरों में तू-तड़ाक शुरू हुई. नौबत हाथापाई और मारपीट तक आ गई. इस सबका अंतिम हश्र हुआ डॉक्टरों की हड़ताल. यह था एक मानवीय त्रासदी के निराकरण में व्यवस्था और नेतृत्व का सक्रिय योगदान. जब राजीव गांधी आए, अस्पताल में चुनाव का बिल्ला लगाए श्वेत वस्त्रधारी कार्यकर्ताओं की भीड़ लग गई. राजीव गांधी के जाने के साथ वे भी चले गए. जाने वे सब कार्यकर्ता थे या सादे कपड़ों में सीआईडी और अंगरक्षक!

एंडरसन की गिरफ्तारी का नाटक
इधर एक ओर चाहिए थे मुर्दों के लिए कफन. चिता के लिए लकड़ी, कब्र खोदनेवाले और नये कब्रिस्तान के लिए जमीन. उधर हर भोपालवासी मौका लगते ही शहर छोड़ने की सोच रहा था. स्टेशन पर जानेवालों की भीड़ रेल-दर-रेल बढ़ रही थी. मृत्यु निरंतर आसपास मंडराती- सी लगती थी और सब भाग रहे थे. स्टेशन पर उतरनेवालों की भीड़ कम नहीं थी. टेलीफोन लगते नहीं थे. तारों के जवाब नहीं मिलते थे. भोपाल स्थित प्रियजनों और रिश्तेदारों की खबर पूछने लोग चले आ रहे थे. गैस से बचे तो गेस्टों ने मारा. चौपट धंधे में लुटे हुए लोग बातें करते बैठे थे.

हर भोपालवासी मौका लगते ही शहर छोड़ने की सोच रहा था. स्टेशन पर जानेवालों की भीड़ रेल-दर-रेल बढ़ रही थी. मृत्यु निरंतर आसपास मंडराती- सी लगती थी

इधर राज्य सरकार नए स्टंटों में अपने आप को चमकाने की कोशिश में लग गई. कारखाना बंद कर दिया गया. भारी हर्जाने और बड़े दावे की बातें हवा में थीं. हादसे को लेकर अटकलें जारी थीं, क्योंकि घटना की वास्तविकता का कोई सही चित्रण देना यूनियन कार्बाइड ने अपना कर्तव्य नहीं समझा. इसी बीच अमेरिका से कारखाने के मालिक एंडरसन आए. वे बम्बई से दो भारतीय व्यवस्थापकों को लेकर भोपाल पहुंचे. इस मौके का लाभ ले सत्ता ने अपनी प्रगतिशील साहसी छवि उभारने का प्रयत्न कर अपनी पूंजीपरस्ती को उजागर कर दिया. उसी यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित गेस्ट हाउस को बरसों से निजी ऐशगाह की तरह उपयोग करनेवाले मुख्यमंत्री ने यात्री हवाई जहाज के चारों ओर पुलिस फैला अरबपति मालिक एंडरसन को गिरफ्तार करने का नाटक रचाया. गिरफ्तारी के बाद अरबपति अपराधी को ससम्मान उसी ऐशगाह में लाया गया, और एक उपयुक्त धारा खोजी गई, जिसके अन्तर्गत एंडरसन साहब जमानत पर छोड़े जा सकें. अदालत से निवेदन किया गया कि चूंकि एंडरसन साहब अदालत तक नहीं आ सकते, इसलिए अदालत स्वयं गेस्ट हाउस तक चली आए. अदालत आई और शाम तक राज्य शासन के हवाई जहाज से हत्यारे कारखाने के मालिक अरबपति एंडरसन साहब मात्र पच्चीस हजार रुपयों की जमानत पर उस स्वागत-सत्कार भरी गिरफ्तारी से रिहा किए गए और बजाय बम्बई के दिल्ली की दिशा में विदा कर दिए गए. राज्य के मछुआरों ने केन्द्र के मछुआरे से कहा, बड़ी मछली फंस गई है गुरू. हमरे बस की नहीं. इससे तो तुम ही सुलझो.
सुना, दिल्ली में भी सचिव स्तर पर एंडरसन साहब से भोपाल में हुई असुविधा के लिए माफी मांगी गई. एंडरसन साहब से पत्रकार सवाल भी नहीं पूछ सके और न एंडरसन ने मुआवजे या कारखाने के भविष्य या घटी त्रासदी पर कुछ कहा. यह समझ ही नहीं आया कि वे जनाब यहां आए क्यों थे? और गैस से मरे और बीमार हुए गरीब भोपालियों की ओर से इस प्रगतिशील कहलाने वाली सरकार ने उससे समझौता क्यों किया? समझौता न किया तो लड़ाई क्या लड़ी? बहस क्या की? यह सब नाटक हुआ क्यों? एंडरसन के साथ आए कारखाने के वे दो भारतीय व्यवस्थापक कुछ दिनों भोपाल में उसी आरामगाह में गिरफ्तारी फरमाने के बाद बम्बई पधार गए हैं. राज्य सरकार, पीड़ित जनता की प्रतिनिधि, ‘सर, जी सर,’ करती, कहते हैं, उनके आगे-पीछे डोलती रही है इतने दिनों.
विरोधी दलों के नेताओं को इतनी फुरसत तो नहीं थी कि वे लोकसभा चुनाव की भागदौड़ से समय निकाल भोपाल आ सकें और आते भी तो वे सिवाय बयान देने के क्या कर लेते? चुनाव यों भी आरम्भ हो गए थे. विरोधी कह रहे थे कि मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को त्यागपत्र दे देना चाहिए और कांग्रेस (इ) वाले कह रहे थे कि सखलेचा को गिरफ्तार किया जाना चाहिए, जिनके मुख्यमन्त्रित्व काल में जहरीली गैस बनाने की इजाजत दी गई.

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