हार से निकली जीत

लड़ाई के बदलते लक्ष्य
जापानी आईएनए के समर्थक थे, लेकिन उनका पारस्परिक संबंध सहज नहीं रहा. टोक्यो का साफतौर पर मानना था कि आईएनए एक छद्म हथियार है- एक गुप्त युद्ध जो भेदियों, घुसपैठ और मनोवैज्ञानिक हमले और गोरिल्ला तकनीक के हथियार से लड़ा जाना था. जबकि नेताजी की मंशा थी कि भारत पर घुसने की कार्रवाई हो तो उसका नेतृत्व आईएनए करे. लेब्रा लिखती हैं, ‘ बोस चाहते थे कि लड़ाई में भारत भूमि पर गिरने वाली लहू की पहली बूंद किसी भारतीय की होनी चाहिए. ‘ इस स्थिति में दोनों पक्ष एक समझौते वाले बिंदु पर पहुंचे. समझौता यह था कि आईएनए जापानी कमान में आगे बढ़े, लेकिन उसकी टुकड़ियों का नेतृत्व भारतीयों के हाथ में हो. हालांकि यह समझौता कारगर साबित नहीं हुआ. ‘ आईएनए-जापानी फौज ने जब ब्रिटिश भारत पर आक्रमण किया तो इस दौरान बोस का एकमात्र लक्ष्य था भारत की पूर्ण आजादी. जबकि जापान के लिए प्रशांत महासागर क्षेत्र के अन्य अभियान ज्यादा महत्वपूर्ण थे और इंफाल पर कब्जा करना इन अभियानों का एक हिस्सा था.’ लेब्रा लिखती हैं, ‘बोस जापान से सैन्य सहायता बढ़ाने की मांग कर रहे थे, लेकिन जापान इस मामले में धीरे-धीरे कमजोर हो रहा था. ये मुद्दे कभी सुलझे नहीं. इस वजह से दोनों पक्षों के बीच दरार आने लगी.’

bossभारत में युद्ध
अभी तक सैन्य अभियानों में जापान को बढ़त मिली हुई थी लेकिन जनवरी, 1944 तक वह पस्त पड़ने लगा. इसी समय उसने ब्रितानी-भारत में लड़ाई तेज कर दी. अभी भी टोक्यो के सैन्य मुख्यालय से अपनी फौज को यही निर्देश था वे इंफाल के आसपास और उत्तर-पूर्वी भारत में रणनीतिक महत्व के क्षेत्रों पर कब्जा करे ताकि बर्मा (उस समय बर्मा पर जापान ने कब्जा कर लिया था) की रक्षा की जा सके. इंफाल और कोहिमा में जब ब्रितानी-भारतीय फौज के सामने जापानियों ने घुटने टेके उस समय आईएनए के केवल 15 हजार जवानों ने सीधी लड़ाई में हिस्सा लिया था. बाकी जवान  खुफिया सूचनाएं जुटाने और छापामार युद्ध में लगे थे. आईएनए की इंजीनियरिंग शाखा के साथ हवलदार रहे वी वैद्यलिंगम ने युद्ध के मोर्चे पर अपने अनुभव साझा करते हुए 2004 में द हिंदू अखबार को बताया था, ‘इंफाल की लड़ाई सबसे लंबे समय तक चली. लेकिन आईएनए के लिए इस लड़ाई की शुरुआत काफी देर से हुई. गर्मी के आखिरी दिनों से. जल्दी ही उसके लिए मानसून ब्रितानी फौज से बड़ा दुश्मन बन गया.’ यदि नेताजी को दो साल पहले पूरी क्षमता के साथ ब्रितानी भारत पर हमला करने का मौका मिलता तो इस लड़ाई का नतीजा और इतिहास काफी अलग होता.

मौसम और युद्ध की रणनीतियां आईएनए के खिलाफ जा रही थी. ऊपर से अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा दिए और अभी तक सिर्फ पिछड़ रहे जापान की एक झटके में हार हो गई. उधर रूस ने भी उसके कुछ उत्तरी इलाकों पर कब्जा कर लिया. इसके साथ आईएनए अपने आप निरस्त्र हो गई.

हालांिक युद्ध में हारने के बाद भी जापान ने अपने इस छद्म हथियार से वह लक्ष्य हासिल कर लिया जो वह चाहता था. भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों को इससे नवजीवन मिल गया. क्रांति की आग और भड़कने लगी. इन घटनाओं ने ब्रितानी सरकार के भीतर एक भय पैदा कर दिया. दो शताब्दियों से भारतीय सैनिक ही उपमहाद्वीप में अंग्रजों की सुरक्षा सुनिश्चित कर रहे थे. यह वफादारी अंग्रेजी सरकार की बुनियाद थी और अब उनको समझ आ रहा था कि वफादारी कम होने का मतलब है कि अब उनके भारत से विदा होने का वक्त नजदीक आ चुका है.

जापान के लिए प्रशांत महासागर क्षेत्र के अन्य अभियान ज्यादा महत्वपूर्ण थे और इंफाल पर कब्जा करना इन अभियानों का एक हिस्सा था

विश्व प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टॉल्स्टॉय ने भारत में एक क्रांतिकारी तारक नाथ दास को दिसंबर,1908 में भेजे एक पत्र में लिखा था, ‘ भारत के लोग जब यह शिकायत करते हैं कि अंग्रेजों ने उन्हें गुलाम बना लिया तो यह कुछ ऐसा है कि कोई शराबी कहे कि शराब के ठेकेदार ने उसे गुलाम बना लिया है… महज 30 हजार सामान्य लोग, जो शारीरिक रूप से भी ताकतवर नहीं कहे जा सकते यदि एक देश के जोशीले, बुद्धिमान और स्वतंत्रता की चाह में मतवाले 20 करोड़ लोगों को गुलाम बना लें तो इस बात का क्या मतलब है? क्या यह संख्या नहीं बताती कि अंग्रेजों ने नहीं बल्कि भारतीयों ने खुद अपने को गुलाम बनाया है?’ टॉल्सटॉय के शराबी की तरह ही जब आईएनए के सैनिकों को पहली बार समझ में आया कि उन्हें जापानियों के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना है तो पहले उनके भीतर एक हिचक थी. यह सेना ब्रितानी-भारत की फौज में काम कर चुके सैनिकों और उन लोगों से मिलकर बनी थी जिनके परिवार के सदस्य कई सालों तक ब्रिटेन की खिदमत करते आ रहे थे. उनकी वफादारी इस तथ्य के बाद भी पक्की थी कि उनके साथ भेदभाव किया जाता है.

अतीत के उदाहरण को देखें तो आईएनए की हार के बाद उन हजारों सैनिकों को औपनिवेशिक सरकार द्वारा फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए था. 1857 की क्रांति के बाद ऐसा हो चुका था. इतिहासकार और लेखक अमरेश मिश्रा ने अपनी किताब वॉर ऑफ सिविलाइजेशन : इंडिया एडी 1857 में बताया है कि भारत की आजादी की पहली लड़ाई में अंग्रेजों ने एक लाख भारतीय सैनिकों को सजा देते हुए मरवा दिया था. इसके बाद एक अनकहा ‘होलोकॉस्ट’ का दौर शुरू हुआ जिसमें दस साल के भीतर एक करोड़ से ज्यादा भारतीय मारे गए.

लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियां बिल्कुल अलग थीं. भारत क्रांति के मुहाने पर खड़ा था. ब्रितानी-भारतीय सेना के जवान आईएनए के जवानों पर मुकदमे की कार्रवाई पर नजर रख रहे थे. तकरीबन 20 लाख भारतीय सैनिक यूरोप से वापस आ चुके थे और उन्हें अंग्रेजों की सैन्य कमजोरियों का भी अनुभव हो चुका था. एक लंबा युद्ध लड़ चुके इन सैनिकों में से ज्यादातर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए बिल्कुल तैयार थे. इन सभी कारकों का नतीजा यह हुआ कि आखिरकार अंग्रेजों ने लगभग सभी आईएनए सैनिकों को रिहा कर दिया. कल्याण कुमार घोष अपनी किताब हिस्टरी ऑफ द इंडियन नेशनल आर्मी (1966) में लिखते हैं, ‘जापान की हार के बावजूद भारत में आईएनए की लोकप्रियता ने यह तय कर दिया कि अंग्रेज भारत से चले जाएं. ‘ भारत की आजादी में जापान की भूमिका आंदोलनकारी गतिविधियों को और तेज करने की रही. हिलेरी कॉनरॉय अपनी किताब जापान एक्जामिन्ड (1983) में लिखती हैं, ‘ जापान ने दक्षिणपूर्व एशिया में लगभग 3,53,000 सैनिकों को प्रशिक्षण दिया था.’ यही वे सैनिक थे जिन्होंने आगे चलकर इन क्षेत्रों को दोबारा यूरोप का उपनिवेश बनने से रोका.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here