पतंग, लड़की और डोर…

मनीषा यादि
मनीषा यादव
मनीषा यादव

रंग-बिरंगी पतंगें. हवा में अठखेलियां करतीं. आकाश को नया रूपरंग, नए आयाम देतीं. परंतु दृश्य अभी अधूरा है. दृश्य को पूर्ण बनाती पतंग देखती वह लड़की. पतंग की हर अदा पर घूमती उसकी आंखों की पुतलियां. पतंग गोता लगाती तो वह उछल जाती. पतंग लहराती तो लहर जाती वह. गोया लड़की नहीं खुद पंतग हो.

गाहे-बगाहे आ जाती है छत पर. घंटों खड़े होकर पतंग निहारती. पतंग के उतरने से उतर जाता है उसका चेहरा. वह चाहती है, पतंग सुबह-दोपहर ही नहीं, शाम और आधी रात को भी उड़े. कई बार तो पतंग देखने में इतनी मशगूल हो जाती कि मां की हांक भी उसे सुनाई नहीं देती. इस कारण कई बार पिटाई की नौबत आई. कई बार तो पिटाई हो भी गई. सच्ची. हल्की-फुल्की ही सही. मां की सख्त हिदायत देने के बाद भी, उसने न छत पर आना छोड़ा. न पंतग देखना. यह कैसा आकर्षण है?

जब कभी वह सड़क पर होती, तो उसकी नजरों में सड़क नहीं आकाश होता. क्योंकि आकाश में होती है पतंग. मगर सड़क पर छोटा भाई भी अकसर उसके साथ ही होता. छोटा भाई जो छोटा है कद में, अक्ल में, उम्र में यूं कहें तो हर मामले में उस लड़की से. न अपना ध्यान रख सकता है, न अपनी बड़ी बहन का. मगर डोर की तरह बहन के पीछे लगा रहता है, जब बहन को घर से कहीं बाहर जाना होता है. वह बहन के साथ शायद (!) न जाए, मगर लड़की की मां नसीहतों की पोटली के साथ खुद ही बांध देती है उसके साथ. चलती है जब लड़की, डोलता है उसके आगे-पीछे मां का बेटा. आकाश में उड़ रही हैं पतंग, सड़क पर चलते-चलते उसे उड़ते हुए देख रही है लड़की. अचानक छोटे भाई ने टोका, ‘घूर-घूर कर क्या देख रही हो!’ उसके लहजे में तेज मांझे जैसी धार थी. अब लड़की की गुस्से से भरी नजर सड़क पर और चौकसी से भरी भाई की नजर है उस पर. और आकाश में उड़ती पतंग.

पतंग को देखते-देखते वर्षों बीत गए. उसे पता ही नहीं चला कि कब वह जवान हो गई. उसे बस यह पता था कि अभी उसे अपने पैरों पर खड़ा होना है. मां-बाप का नाम रोशन करना है. और भी बहुत कुछ… कल न उसने आकाश देखा, न छत और न ही पंतग. ऐसा क्योंकर हुआ? जबकि कल उसकी तबीयत भी ठीक थी. अलबत्ता उसका मूड पूरे दिन जरूर खराब रहा. कल उसे देखने लड़के वाले आए थे. पतंग को उड़ते देख अकसर खुश होने वाली लड़की,उन्हें उड़ता देख अचानक से उदास हो गई है. तभी मां की आवाज ऊपर आई. आश्चर्य! मां की आवाज में तल्खी नहीं उल्लास है. घोर आश्चर्य! आज एक ही बार में उसने सुन लिया मां की आवाज को! अब वह नीचे उतर रही है. वह समझ गई है कि उसका रिश्ता पक्का हो गया है. कमाल है, उसने पलट कर उड़ती पतंग को नहीं देखा. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था!

आज घर में खुशी का माहौल है. सब खुश है. वह सबके खुश होने की वजह से खुश है या वाकई वह भी अंदर से खुश है. वह तय नहीं कर पा रही है. थोड़ी देर पहले उसने अपने पापा से एक सवाल किया था. सवाल सुन पापा बोले थे कि ये कैसा ऊटपटांग सवाल है. अभी-अभी मम्मी से उसने वही सवाल किया. मम्मी हंसकर बोल रही है कि बांस जैसी हो गई पर अकल रत्ती भर नहीं आई. उसने सोचा क्यों न यही सवाल छोटे भाई से पूछे. मगर उसने नहीं पूछा. इस डर से कि वह मुंहफट उसे पगली न कह दे.

अब वह खुद से सवाल पूछ रही है, पतंग क्या वाकई उड़ती है या सिर्फ उड़ती हुई दिखती है?