हंसी का बिजूका

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इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव

‘यह मूर्ति कैसी?’ ‘ये लाफिंग बुद्धा है.’ ‘मजेदार लग रहा है.’ ‘सो तो है, इससे ‘गुडलक’ आता है’ ‘कैसे?’ ‘देख नहीं रहे, कितना खिलखिला कर हंस रहा है!’ ‘तो!’ ‘हंसने से वैसे भी मनहूसियत दूर हो जाती है.’ ‘तो आप खुद क्यों नहीं हंसते?’ मेरी इस बात पर वे मुस्कुराए. ‘कहां यार, हंसने के मौके ही कितने मिलते हैं! बहुत फास्ट लाइफ हो गई है.’ तभी मुझे कमरे में भाई साहब की हंसती हुई तस्वीर दिखी. ‘इसमें तो आप हंस रहे हैं!’ ‘हंस कहां रहा हूं?’ ‘मुझे तो साफ दिख रहा है!’ ‘जो तुम समझ रहे हो, वो नहीं है.’ ‘क्या मतलब?’ ‘अरे यार, फोटो खींचने से पहले फोटोग्राफर कहता नहीं है, ‘से चीज’, वही ‘चीज’ बोल रहा हूं.’ वहां से विदा लेते समय एक बार फिर मैंने लाफिंग बुद्धा को देखा.

आज भाई साहब के ऑफिस आया हूं. किसलिए? वहीं पुराना कारण- इधर से गुजर रहा था, सोचा कि आप से मिलता चलूं. ऑफिस में घुसते ही मैंने भाई साहब को हंसते देखा. कमाल है! भाई साहब हंस रहे हैं! मैंने पूछा, ‘क्या बात है भाई साहब बहुत हंस रहे थे!’ मेरा ये कहना था कि यकायक भाई साहब ने गंभीर मुद्रा अख्तियार कर ली. जैसे मैंने कोई हल्की बात करके उनकी शान में गुस्ताखी कर दी हो. थोड़ी देर बाद कुछ सोचते हुए खुद ही बोले, ‘वो क्या है कि बॉस हंस रहे थे न!’ ‘मैं कुछ समझा नहीं भाई साहब!’ भाई साहब थोड़ा तैश में बोले, ‘नौकरी करोगे तो खुद ही जान जाओगे !’ मैं सहमकर उनके ऑफिस में इधर-उधर देखने लगा. भाई साहब मेरी वस्तुस्थिति भांप कर बोले, ‘अरे यार, यह समझ लो कि ऑफिस का यह अघोषित परंतु अनिवार्य नियम होता है, बॉस के साथ उसके मातहत को भी हंसना पड़ता है.’ ‘समझ गया हूं भाई साहब, यह ऑफिस वाली हंसी है!’ मैंने कहा. मेरी यह बात सुनकर भाई साहब मुस्कुराए़.

‘हा हा हा, हा हा हा…’ ‘नमस्कार भाई साहब!’ ‘नमस्कार!’ ‘अरे आप यहां क्या कर रहे हैं?’ ‘यहां तो मैं रोज आता हूं, मगर तुम यहां कैसे?’ ‘वो क्या है भाई साहब, उम्र अधिक हो रही है, सोचा कि जरा सेहत का ध्यान रखा जाए, सो आज सुबह-सुबह ही इस पार्क में टहलने निकल आया. मगर भाई साहब, आपने कभी बताया नहीं कि आप सुबह टहलने आते हैं.’ ‘अरे भाई, इसमे बताने वाली क्या बात है!’ ‘अच्छा भाई साहब, मुझे भी वह लतीफा सुनाइए न!’ ‘कौन सा!’ ‘अरे वही वाला, जिसे सुन कर आप और आप के बाकी साथीगण अभी हंस रहे थे.’ ‘अरे, यह तो एक प्रकार की एक्सरसाइज है.’ ‘एक्सरसाइज!’ ‘हां भई, इसमें जोर-जोर से हंसा जाता है.’ ‘हंसी न आए फिर भी.’ ‘हूं…’ ‘भला यह कैसी हंसी हुई भाई साहब?’ ‘यह एक तरह की थेरेपी है, इसे लाफ्टर थेरेपी कहते हैं. अच्छा तो मैं चलूं. ‘ठीक है भाई साहब! नमस्कार!’ ‘नमस्कार!’

भाई साहब भी अजीब हैं! जब हंसी अंदर से नहीं आती, तो बाहर से हंस कर काम चला लेते हैं. जबकि भाई साहब के घर में खड़ी वह बेजान मूर्ति भी (उसको बेजान कैसे कहा जा सकता है! क्योंकि वह मूर्ति तो हंस रही थी). बिना किसी प्रतीक्षा के, बेतकल्लुफ हंस रही थी. निश्चित ही, वो इस वक्त भी हंस रही होगी. उसके सामने तो भाई साहब बेजान लगते हैं! कैसे वो इतना गंभीर काम, जिसे स्वयं ही करना श्रेयस्कर होता, किसी दूसरे को यानी मूर्ति को सौंप कर, खुद मुर्दे जैसे निश्चिंत हो गए हैं. वह हंसती हुई मूर्ति  ‘गुडलक’ लेकर आएगी, क्योंकि वह हंस रही है.

फिलहाल भाई साहब रोज पार्क में ‘थेरेपी वाली हंसी’ और ‘ऑफिस वाली हंसी ‘ हंस रहे हैं. जब नहीं हंसते हैं, तो ‘चीज’ कहकर फोटो में हंस कर काम चला लेते हैं. बेचारे भाई साहब!