आरटीआई:सूचना! पूछ ना

लेकिन गजब देखिये कि इसी भाषा में तहलका ने जब दिल्ली सरकार के लोकायुक्त कार्यालय से बिल्कुल ऐसी ही सूचना मांगी तो बिना किसी सवाल के उसने सारी सूचना उपलब्ध करवा दी.

एक ही तरह के सवाल पर अलग-अलग राज्यों के सरकारी विभागों की अलग-अलग कार्यप्रणाली का यह अकेला उदाहरण नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव कार्यालयों तथा लोकायुक्त कार्यालयों ने भी तहलका के आवेदनों पर कमोबेश अलग-अलग जवाब ही दिए. छत्तीसगढ के लोकायुक्त कार्यालय ने तो सूचना एक साथ उपलब्ध होने की बात से ही इंकार कर दिया जबकि उसे सिर्फ ऐसे मामलों की संख्या ही बतानी थी.

पिछले साल-भर के दौरान तहलका ने केंद्र सहित अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग विभागों में 50 से अधिक आरटीआई आवेदन लगाए. जिन विभागों में आवेदन लगाए गए उनमें लोकसभा सचिवालय से लेकर केंद्रीय चुनाव आयोग, केंद्रीय रेल मंत्रालय, दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन से लेकर विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री कार्यालय, राज्यपाल कार्यालय, लोकायुक्त कार्यालय, सूचना एवं लोकसंपर्क विभाग तथा गृह, चिकित्सा एवं शिक्षा विभाग समेत कई महत्वपूर्ण विभाग शामिल हैं. लेकिन आधे दर्जन मामलों के अलावा किसी में भी पहली बार में सूचना नहीं मिल सकी. दिल्ली तथा गुजरात के सूचना एवं लोक संपर्क विभाग ने तो अपने-अपने मुख्यमंत्रियों द्वारा की गई घोषणाओं की जानकारी तक देने से हाथ खड़े कर दिए, जबकि आम तौर पर इस विभाग का मुख्य काम ही सरकार की योजनाओं और घोषणाओं को जनता तक पहुंचाना होता है. हैरान करनेवाली एक बात यह भी थी कि ‘सूचना उपलब्ध नहीं है’ के रूप में दिए गए अपने जवाब को तहलका तक पहुंचाने में इन दोनों राज्यों के सूचना एवं लोक संपर्क विभाग ने महीने-भर का वक्त लगा दिया. साफ है कि आरटीआई आवेदनों को टरका देने या फिर एक विभाग से दूसरे विभाग में सैर-सपाटे पर भेज देने की यह परिपाटी देश के लगभग सभी सरकारी विभागों में समान रूप से चल रही है.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ तहलका द्वारा मांगी गई सूचनाओं के संदर्भ में ही ऐसा हुआ. सूचना अधिकार अधिनियम के लागू होने के बाद बीते लगभग एक दशक में ऐसे मामले बड़ी संख्या में सामने आए हैं जिनमें लोगों को सूचना या तो मिल ही नहीं पाई या उन्हें इसके लिए लंबा इतजार करना पड़ा. 2012 में आई कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, केंद्रीय सूचना आयोग तथा 10 राज्यों के राज्य सूचना आयोगों की एक साझा रिपोर्ट इस हकीकत को काफी हद तक बयान करती है. इस रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक साल 2011-12 में देश-भर में करीब 40 लाख लोगों ने आरटीआई का इस्तेमाल किया. यह संख्या बताती है कि आरटीआई को लेकर लोगों के बीच जागरूकता किस हद तक बढ़ी है. लेकिन इसी रिपोर्ट का अगला हिस्सा आरटीआई को लेकर बिल्कुल उलट तस्वीर दिखाता है. यह हिस्सा बताता है कि अलग-अलग विभागों में लगाए गए इन 40 लाख आवेदनों में से 10 फीसदी शुरुआती स्तर पर ही अस्वीकार कर दिए गए थे. यानी चार लाख लोगों के आवेदन विभागों के प्रथम सूचना अधिकारियों की लाल कलम की भेंट चढ़ गए.

पहली बार में सूचना पाने में नाकाम रहनेवाले अधिकांश लोग बेशक देश की आम जनता के बीच के हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि खास लोगों को इस अधिकार के तहत प्लेट में सजाकर सूचना मिली है. देश के पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त रह चुके शैलेश गांधी भी अधिकारियों द्वारा सूचना न देनेवाली इस बीमारी की चपेट में आने वाली फेहरिस्त में शामिल हैं. अपने एक मामले का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, ‘सूचना आयुक्त के पद से रिटायर होने के बाद पिछले साल मैंने महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार के आयकर रिटर्न से संबंधित सूचना मांगी थी. लेकिन इनकम टैक्स विभाग ने यह सूचना देने से इंकार कर दिया. इसके बाद मैने इस मामले में अपीलीय अधिकारी से शिकायत की, लेकिन वहां से भी मामला बैरंग हो गया. फिर मंैने महाराष्ट्र राज्य सूचना आयोग में अपील की. तब भी मुझे सूचना नहीं मिली. अब यह मामला उच्च न्यायालय में विचाराधीन है.’

शैलेश गांधी के साथ हुआ यह वाकया बहुत हद तक यह बताने के लिए पर्याप्त है कि जब एक पूर्व सूचना आयुक्त के आवेदन को लेकर ऐसा किया जा सकता है तो आम आदमी के आवेदनों के साथ किस तरह का बर्ताव किया जाता होगा. सूचना अधिकार को कानूनी शक्ल देनेवाले आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे से लेकर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल तक कई मौकों पर इस तरह के वाकयों का जिक्र कर चुके हैं. प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और आरटीआई आंदोलन की अगुआ रहीं अरुणा राय ने भी कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में इसी तरह के एक वाकये का जिक्र किया था. उनके मुताबिक एक सूचना प्राप्त करने में खुद उन्हें कई साल लग गए थे. हालांकि तब देश में आरटीआई कानून लागू नहीं था. लेकिन अब इस कानून के लागू हो जाने के बाद भी जरूरी सूचनाएं आम लोगों की पहुंच से दूर ही हैं.

सूचना के लिए जद्दोजहद से दो-चार होनेवाले इन नामी लोगों के अनुभवों के बाद एक नजर आम लोगों के अनुभवों पर भी डालना जरूरी है. इस क्रम में ‘तीन साल से सूचना का इंतजार कर रहे’ एक ऐसे मामले का जिक्र किया जाना बेहद प्रासंगिक है.

अगस्त, 2011 में बिहार के एक आरटीआई कार्यकर्ता राम प्रवेश राय ने राज्य के बख्तियारपुर प्रखंड कार्यालय से सोलर लाइट वितरण से जुड़ी कुछ जानकारियां मांगी. तकरीबन तीन महीने बाद उन्हें जो सूचना मिली वह पर्याप्त नहीं थी. उस आधी-अधूरी सूचना से असंतुष्ट होकर उन्होंने विभाग के अपीलीय अधिकारी को चिट्ठी भेजी और पूरी जानकारी देने की मांग की. इस चिट्ठी के आधार पर अपीलीय अधिकारी ने संबंधित सूचना अधिकारी को पूरी जानकारी देने के लिए कहा. लेकिन इसके बावजूद भी राय को जानकारी नहीं दी गई. इसके बाद उन्होंने प्रदेश के राज्य सूचना आयोग में अपील कर दी. आयोग ने 21 फरवरी 2013 को अपने आदेश में संबंधित सूचना अधिकारी को सूचना नहीं देने का दोषी मानते हुए उस पर नियमानुसार 250 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना लगाया और साथ ही उसे आदेश दिया कि वह तत्काल राय को पूरी जानकारी उपलब्ध कराए. लेकिन आयोग के आदेश के बाद भी मामला ढाक के तीन पात ही रहा. इसके बाद राय ने राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री से लेकर बिहार के राज्यपाल और मुख्यमंत्री तक को चिट्ठी लिखकर पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी. लेकिन इस सबके बाद भी उन्हें जरूरी जानकारी नहीं मिल सकी. इस सब से व्यथित होकर राम प्रवेश राय ने इसी साल दो जून को आत्मदाह करने की चेतावनी दे डाली. हालांकि प्रशासनिक अधिकारियों के आश्वासन के बाद उन्होंने आत्मदाह नहीं किया, लेकिन अब भी वह सूचना राय की पहुंच से दूर ही है.

सूचना नहीं मिलने की सूरत में आत्मदाह करने की नौबत तक पहुंच जाने का यह मामला बताता है कि इस अधिकार की अवधारणा पर किस हद तक खतरा बढ़ चुका है. 2011 में ही इसी तरह का एक मामला गुजरात में भी सामने आया था. तब कच्छ जिले के रापड़ इलाके में स्थित एक सरकारी कार्यालय के सामने एक व्यक्ति ने इसलिए खुद को आग के हवाले कर दिया था क्योंकि लंबा वक्त बीत जाने के बावजूद उसे आरटीआई के तहत मांगी गई एक बेहद जरूरी सूचना नहीं दी जा रही थी. बुरी तरह झुलस चुके उस व्यक्ति की तब मौके पर ही मौत हो गई थी. इस मामले में एक हैरान करने वाली बात यह भी है कि आत्मदाह करने से पहले वह व्यक्ति उसी दफ्तर के सामने अनशन पर बैठा हुआ था, लेकिन प्रशासन ने तब उसके अनशन को लेकर कोई संजीदगी नहीं दिखाई.

आरटीआई के तहत आम आदमी को मिले सूचना हासिल करने के जायज अधिकार के हनन वाले इन सभी मामलों को देखते हुए एक अहम सवाल उठता है. सूचना का अधिकार लागू होने के इतने सालों के बाद भी सूचना हासिल करना इतना मुश्किल क्यों है? आखिर जिम्मेदार अधिकारी सूचना मांगे जाने पर वह सूचना क्यों नहीं देना चाहते जिसे हासिल करना आवेदक का हक है?