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छोटे शहर में बसा संगीत का सर्जक

केशव कुंडल, देवास, मध्य प्रदेश

इंटरनेट की वजह से दुनिया छोटी होती जा रही है. इस जुमले को मध्य प्रदेश के एक बहुत छोटे से शहर देवास के केशव कुंडल ने चरितार्थ कर दिखाया है. असल में केशव ने फिल्म और सीरियल में इस्तेमाल होने वाली एक महत्वपूर्ण तकनीक ‘साउंड स्कोर’ का काम देवास स्थित अपने घर से करना शुरू कर दिया है. आमतौर पर इस काम को इससे पहले मुंबई में स्थित स्टुडियो में अंजाम दिया जाता रहा था लेकिन इंटरनेट, आधुनिक यंत्र और केशव की कुशलता ने बॉलीवुड का ध्यान देवास की ओर आकर्षित किया है. सच तो यह है कि बॉलीवुड के अधिकांश लोगों को देवास के बारे में पता ही नहीं है इसलिए केशव को उन्हें देवास की बजाय खुद को इंदौर का बताना पड़ता है.

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यह केशव की मेहनत का ही नतीजा है कि सिर्फ आठ-नौ महीने में उन्होंने आम आदमी पार्टी के लिए संगीत बनाने से लेकर जैकी भगनानी सहित कई सितारों से सजी फिल्मों के लिए बैकग्राउंड स्कोर (दो लोगों के संवाद के बीच प्रभाव डालने के लिए संगीत का इस्तेमाल किया जाता है) देने का काम है. इसका इस्तेमाल गाने में मिक्सिंग के तौर पर भी किया जाता है. केशव ने ऑस्ट्रेलिया और मुंबई जैसी जगहों में मिल रहे मौकों को छोड़कर अपने शहर देवास में रहकर अपने काम को अंजाम देने का जोखिम उठाया तो उनके मां-पिता थोड़े अचरज में पड़ गए. हैरत तो यह है कि वे इंदौर के स्टूडियो की तुलना में पांच से दस गुना ज्यादा फीस की मांग करते हैं लेकिन अच्छी गुणवत्ता की वजह से आज उनके पास काम की कमी नहीं है. परिवार के कई सदस्यों और मित्रों ने केशव को ऑस्ट्रेलिया में ही बसने और काम करने की लाख हिदायतंे दीं लेकिन उन्होंने अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनी और आज उनके इस फैसले से सभी बहुत खुश हैं. मां संतोष कुंडल आत्मविश्वास से भरकर अपने बेटे के बारे में बताती हैं, ‘जब केशव ने देवास में रहने का फैसला सुनाया तो मुझे अच्छा भी लगा लेकिन लगा कि यहां क्या करेगा? मुझसे और पापा से अक्सर तर्क-वितर्क करता और हमलोगों को समझाने की कोशिश करता लेकिन आज स्टूडियो को स्थापित हुए एक साल भी नहीं हुए और हमारे छोटे से घर में मुंबई से लोग केशव से काम करवाने पहुंचते हैं. मुझे अच्छा लगता है कि मेरा लड़का मेरे पास है और उसका काम भी अच्छा चल रहा है.’

केशव के पिता राजेंद्र प्रसाद कुंडल बिजली विभाग में डिवीजनल इंजीनियर हैं जबकि मां गृहिणी हैं. केशव की स्कूल की पढ़ाई देवास के सरस्वती शिशु मंदिर में हुई. स्कूल की पढ़ाई के बाद उन्होंने देवास स्थित एक कॉलेज से इंजीनियरिंग की डिग्री ली और आगे की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया चले गए. केशव को स्कूली दिनों से ही संगीत में गहरी दिलचस्पी थी.  ‘तहलका’ से केशव अपनी कॅरिअर की यात्रा साझा करते हुए बताते हैं,  ‘आॅस्ट्रेलिया में पढ़ाई के दौरान और उसके बाद वहां मैं संगीत और साउंड रिकॉर्डिंग के क्षेत्र में काम करे रहे तमाम बड़े लोगों से मिलता रहता और अपने भीतर पनप रही इच्छा को हवा देता रहा. लगभग दो साल पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई ऑस्ट्रेलिया में पूरी करके मैं देवास छुट्टियों में आया था तब आॅस्ट्रेलिया और भारत के रिश्तों को लेकर एक फिल्म बन रही थी. गिरीश मकवाना इस प्रोजेक्ट से जुड़े हुए थे. ऑस्ट्रेलिया में उनके एक शो के दौरान मैं उनसे मिल चुका था. फिर उनका फेसबुक पर एक मैसेज आया कि तुम अगर भारत में हो तो मुझसे संपर्क करो. मुझे सोनू निगम और सुनिधि चौहान का गाना रिकॉर्ड कराना है.’

इस प्रोजेक्ट को हाथ में लेते वक्त केशव ने देवास में अपना स्टूडियो शुरू नहीं किया था. ऑस्ट्रेलिया में केशव ने रेस्तरां में प्लेट धोकर कुछ पैसे जमा किए थे, उस पैसे से अपने डुपलेक्स फ्लैट के ऊपरी माले पर फटाफट 10 लाख रुपये खर्च करके स्टूडियो तैयार करवाया. स्टूडियो के लिए पापा ने भी थोड़ी आर्थिक मदद की. यह पूछने पर कि आपने देवास का विकल्प क्यों चुना? वे कहते हैं, ‘मेरे पास दो विकल्प थे- मुंबई या इंदौर में स्टूडियो खड़ा करने के लिए पैसे लगाता या फिर देवास में उच्च गुणवत्ता वाले उपकरणों के साथ स्टूडियो तैयार करवाता. मैंने जोखिम लिया और देवास को चुना क्योंकि मुंबई में बहुत मारामारी है. अगर आपके पास संपर्क है, बिजली व इंटरनेट की सुविधा है तो इस काम को कहीं भी किया जा सकता है. अभी इसे करते हुए सालभर भी पूरा नहीं हुआ है और मैं औसतन साल का 15 लाख रुपये कमा ले रहा हूं.’

केशव के पास इस समय कैलाश खेर और राजा हसन सहित बहुत सारे लोगों के म्यूजिक  रिकॉर्डिंग प्रोजेक्ट हैं. केशव ने फिल्म ‘वेलकम टू कराची’ में ‘लल्ला लल्ला लोरी…’ गाना रिकॉर्ड किया. ऑस्ट्रेलिया की एक फिल्म ‘कलर ऑफ डार्कनेस’ की रिकॉर्डिंग पूरी हो चुकी है. इसके अलावा जैकी भगनानी अभिनीत फिल्म का भी एक प्रोजेक्ट है. आम आदमी पार्टी का भी एक प्रोजेक्ट है. इसके अलावा उनके पास कई दूसरे बड़े प्रोजेक्ट भी हैं. यह पूछने पर कि अगर आपका काम और बढ़ेगा तब क्या आप मुंबई शिफ्ट होने की सोचेंगे? वे मुस्कराते हैं और आत्मविश्वास से लबरेज होकर कहते हैं, ‘मैं बहुत हुआ तो इंदौर तक शिफ्ट हो सकता हूं. इंदौर यहां से सिर्फ 35 किमी. दूर है. अगर मुंबई ही जाना था तो ऑस्ट्रेलिया आज कौन-सा बहुत दूर है?’

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मेंथा की खेती, दिल्ली को ‘राम-राम’

सुशील कुमार, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के सुशील कुमार घाटे का सौदा हो चुकी खेती से परिवार का भरण-पोषण कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रहे थे तो 2008 में कमाने, खाने और बचाने के उद्देश्य से दिल्ली के लिए कूच कर गए. पत्नी और दो बच्चों को गांव में ही छोड़ दिया. दिल्ली पहुंचकर वे मुनिरका में प्लेसमेंट सर्विस दिलाने वाले किसी व्यक्ति से मिले, जिन्होंने 500 रुपये लेकर नौकरी दिलाने की बात की. प्लेसमेंट सर्विस वाले साहब ने उन्हें कुछ दिनों बाद कहा, ‘तुम वसुंधरा (गाजियाबाद) चले जाओ, तुम्हें वहां नौकरी मिल जाएगी.’

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इसके बाद सुशील को गाजियाबाद की एक कॉलोनी में गार्ड की नौकरी मिल गई. वहां लगभग 50 फ्लैट थे जिसकी रखवाली अकेले सुशील को करनी होती थी. 4500 रुपये महीने की तनख्वाह तय हुई, पर यह कभी भी समय पर नहीं मिली. सुशील पैसा बचाने के उद्देश्य से उसी कॉलोनी के किसी कोने में रात गुजार लेते और किसी भी परिवार द्वारा दिया हुआ भोजन खा लेते थे. इन वजहों से उनकी ड्यूटी 24 घंटे की हो गई थी. कभी कोई अवकाश नहीं. चार साल लगातार दिन-रात मेहनत के बाद भी इतनी बचत नहीं हो पाई कि कोई छोटी-मोटी दुकान ही शुरू की जा सके. यहां की जद्दोजहद और परिवार के लिए कुछ खास नहीं कर पाने की हालत में उन्होंने 2012 में घर लौटना तय कर लिया. बकौल सुशील, ‘घर से दूर रहकर भी रोजी-रोटी के लिए कुछ मामूली जुगाड़ भी न हो पाए तो ऐसी नौकरी का क्या फायदा? गांव में परिवार के साथ रहने के लिए एक रोटी कम खाना उन्होंने मुनासिब समझा और दिल्ली को राम-राम कहकर वापस अपने घर चला आया.’

गांव लौटकर सुशील के सामने यह समस्या पेश आई कि वे क्या करें कि उनकी गृहस्थी की गाड़ी थोड़ी सुगमता से चल सके. ऐसे में उनके गांव के एक डॉक्टर साहब ने उन्हें मेंथा (पुदीना) की खेती शुरू करने की सलाह दी. अब आलम यह है कि उन्हें लगभग पांच बीघे की खेती से सालाना 65-70 हजार रुपये की कमाई हो जाती है. गांव में न किराये का खर्चा, न ही महंगाई का तनाव. बच्चे गांव के स्कूल में ही पढ़ रहे हैं. सुशील इन दिनों अपनी बहन के लिए लड़का देख रहे हैं. पिछले चार साल में मेंथा की खेती से की गई बचत से वह जल्द ही बहन की शादी करने वाले हैं.

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शहर में चाकरी करने से गांव में पढ़ाना बेहतर

आभाष मिश्र, पूर्णिया, बिहार

आभाष मिश्र दिल्ली में अपना जमा-जमाया कॅरिअर छोड़कर इसलिए अपने छोटे-से शहर पूर्णिया में आ बसे क्योंकि उन्हें महानगर की दौड़ती-भागती जिंदगी परेशान करने लगी थी. दरअसल आभाष 1990 में सिविल सेवा की तैयारी के उद्देश्य से दिल्ली आए थे. उन्हें इस परीक्षा के प्रारंभिक दौर में सफलता तो मिली, लेकिन अंतिम दौर में कामयाबी हासिल करने से वे चूक गए.

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इस असफलता के बाद उन्होंने जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़ाने के लिए एक मार्केटिंग कंपनी में नौकरी शुरू कर दी थी. इस कंपनी ने उनकी काबिलियत को पहचाना और उन्हें राजस्थान का मार्केटिंग एंड रिसर्च का प्रमुख बना दिया. कंपनी का काम वे दिल्ली से ही ऑपरेट कर रहे थे. लगभग चार साल उस कंपनी में नौकरी करने के बाद उन्हें हिंदुस्तान लीवर कंपनी में नौकरी का ऑफर मिल गया, तब नौकरी छोड़ने का एक महीने का जरूरी नोटिस देकर वह पूर्णिया अपने घर चले गए. हालांकि किन्हीं कारणों से नई नौकरी की जॉइनिंग की तारीख वाले दिन वह दिल्ली नहीं लौट पाए, इसलिए

उन्होंने जॉइनिंग की तारीख एक सप्ताह आगे खिसकाने के लिए कंपनी से कहा, लेकिन कंपनी ने ऐसा करने से मना कर दिया था.

आभाष याद करते हुए ‘तहलका’ से बताते हैं, ‘नए जुड़ने वाले कर्मचारियों के लिए कंपनी के पास एक सप्ताह इंतजार करने का भी वक्त नहीं था. फिर मुझे इस बात का एहसास हो गया कि बड़े शहर में काम के अवसर ज्यादा जरूर हैं लेकिन यहां शांति-सुकून नहीं है. दफ्तर और घर की दूरी नापते-नापते ही दिन का बारह-चौदह घंटा निकल जाता है. एक दिन की छुट्टी में मैं अगले सप्ताह ऑफिस जाने की ही तैयारी में लगा रहता था. मसलन घर की साफ-सफाई, कपड़े धोने और घर और रसोई के लिए जरूरत का सामान जुटाने में ही सप्ताह की छुट्टी स्वाहा हो जाती. मेरे लिए पूर्णिया के एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाने एक विकल्प नजर आ रहा था. इसलिए फिर दिल्ली नहीं लौटा.’

आभाष ने शहर के विद्या विहार स्कूल में बतौर शिक्षक नौकरी शुरू की और वहां एक साल तक अपनी सेवाएं दीं. उसके बाद मीलिया कॉन्वेंट में लगभग नौ साल तक पढ़ाया. शहर के कुछ और स्कूलों को अपनी सेवाएं दीं अब वे इसी शहर के विजेंद्र पब्लिक स्कूल के उप-प्राचार्य हैं. इस स्कूल को उन्होंने बतौर शिक्षक जॉइन किया था. इस स्कूल को स्थापित करने का श्रेय आभाष को भी दिया जाता है. तीन साल पहले उनका एक छात्र ‘कौन बनेगा करोड़पति’ गेम शो में भी शामिल हुआ था और अंतिम पायदान से एक-दो कदम पूर्व तक पहुंचने में कामयाबी पाई थी. सच तो यह है कि उनके बहुत सारे छात्र-छात्राएं अलग-अलग क्षेत्रों में कामयाबी का झंडा गाड़ने में सफल हुए हैं.

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‘दूसरों के लिए जीने की मंशा ने बूंडू में बांध दिया’

रेशमा दत्त, बूंडू, रांची

रेशमा का नाम रांची और आसपास के लोग बहुत सम्मान से लेते हैं. इसकी वजह ये है कि उन्होंने शांति निकेतन से फाइन आर्ट में स्नातक और वडोदरा से स्नातकोत्तर की डिग्री लेने के बाद एक फेलोशिप पर तीन साल के लिए जापान चली गईं. उन्हें कहीं भी अच्छी नौकरी मिल सकती थी, लेकिन जापान  से वह सीधे अपने गांव बूंडू लौट आईं. वजह, बूंडू और आसपास की महिलाओं के लिए उम्मीद का चिराग जलाकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की तमन्ना उनके मन में बस गई थी. इसके बाद में अपने पैतृक घर से उन्होंने एक को-ऑपरेटिव सोसाइटी ‘आधार महिला शिल्प उद्योग’ की नींव रखकर अपने अभियान को मुकाम तक पहुंचाने में जुट गईं. आज उनकी संस्था में बने उत्पादों की मांग देश के अलग-अलग हिस्सों में है.Reshma 01

रांची से 40 किलोमीटर दूर रांची-जमशेदपुर हाईवेे से थोड़ा अंदर बूंडू में रेशमा सुबह आंख खुलने से लेकर शाम को सूरज ढलने तक आदिवासी, मुस्लिम और गैर-आदिवासी समाज की गरीब महिलाओं से घिरी रहती हैं. वे बीते 15 साल से महिलाओं को काम सिखा रही हैं. वे उन्हें कपड़ा सिलने, मिट्टी (टेराकोटा) की कलात्मक वस्तुएं बनाने, आभूषण बनाने, पत्थर पर पेंटिंग करने का एक महीने का प्रशिक्षण देती हैं. प्रशिक्षित होने के बाद ये महिलाएं यहां काम करने लगती हैं. फिलहाल रेशमा के साथ गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) आने वाली 80 महिलाएं जुड़कर अपना और अपने परिवार आजीविका चलाने में सफल हो गई हैं. संस्था के लिए फंड जुटाने से लेकर यहां तैयार होने वाले उत्पादों को बेचने, महिलाओं के काम में आने वाली बाधाओं से लेकर बही-खाते का हिसाब देखने तक के काम रेशमा अकेले ही देखती हैं. बुंडू के पास ही नेशनल हाईवे पर वे हर रविवार को ‘कला हाट’ लगाती हैं, रांची में कुसुम नाम से एक शोरूम भी खोला है. रेशमा की कला किसी के ड्राइंगरूम की चमक बढ़ाने से ज्यादा गरीब महिलाओं के जीवन को बचाने में ढाल का काम कर रही हैं. उन्होंने कला को महिलाओं के जीवन में बदलाव लाने का हथियार बना लिया है. वे बताती हैं, ‘हमारे साथ की बहुत सारी महिलाएं पढ़ी-लिखी नहीं होती हैं जिसके चलते उन महिलाओं को मेले आदि में उत्पाद खरीदने-बेचने में मुश्किलें आती हैं.’

रेशमा के गांव में बिजली की दिक्कत भी बहुत रहती है. सिर्फ पांच-छह घंटे ही बिजली आती है. बिजली न रहने के कारण दिक्कत पेश आती होगी? वे कहती हैं, ‘अभी कुछ दिन पहले ही हम लोगों ने जेनरेटर की व्यवस्था की है. इस काम के दौरान आई आर्थिक परेशानियों के चलते उन्हें कई बार लगा कि यह सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं अपने लिए कुछ कर लिया जाए. आज भी कई बार आर्थिक दिक्कतें उठ खड़ी होती हैं, लेकिन अब खुद पर बहुत भरोसा हो चुका है.’ यह पूछने पर कि दिक्कतों के पेश होने पर क्या अब लगता है कि कहीं छोड़कर निकल लिया जाए? वह कहती हैं, ‘अब तो इन झंझटों से ही दोस्ती हो गई. वैसे भी अब मुझे कौन नौकरी देगा!’

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