खेती में लिंगभेद के बीज

महिला हकों के लिए संघर्षरत संगठन यह साबित कर चुके हैं कि हर महिला कामकाजी है, फिर वह चाहे आय अर्जित करने के लिए श्रम करे या फिर परिवार-घर को चलाने-बनाने के लिए. इस हिसाब से मातृत्व हक हर महिला का हक है. माउंटेन रिसर्च जर्नल में उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय अंचल का एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था. इसका विषय था- परिवार की खाद्य और आर्थिक सुरक्षा में महिलाओं का योगदान. इस अध्ययन में महिलाओं ने अध्ययनकर्ताओं से कहा कि वे कोई काम नहीं करती हैं, पर जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि परिवार के पुरुष औसतन 9 घंटे काम कर रहे थे, जबकि महिलाएं 16 घंटे काम कर रही थीं. अगर तात्कालिक सरकारी दर पर उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान किया जाता तो पुरुष को 128 रुपये प्रतिदिन और महिला को 228 रुपये प्रतिदिन प्राप्त होते. जब इनमें से कुछ कामों की कीमत का आकलन बाजार भाव से किया गया तो पता चला कि लकड़ी, चारे, शहद, पानी और सब्जी लाने के लिए साल भर में परिवार को 34,168 रुपये खर्च करने पड़ते. 

Soya-&-Cotton

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कृषि क्षेत्र में महिलाएं

व्यापक तौर पर समाज में महिलाओं की स्थिति को जांचने के लिए एक महत्वपूर्ण पैमाना है उनकी सहभागिता और उनके योगदान को मान्यता दिया जाना. जब हम कृषि क्षेत्र में लगी जनसंख्या (जो श्रम कर रहे हैं, उनकी संख्या) में महिलाओं की संख्या का आकलन करते हैं, तब पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में आए संकट का उन पर गहरा असर पड़ा है.

किसानी का श्रम करने वालों में महिलाएंः इसमें कोई शक नहीं रह जाता है कि कृषि में महिलाओं की बराबर की भूमिका और योगदान है, पर उन्हें मान्यता नहीं दी जाती है. वर्ष 2001 में भारत में 12.73 करोड़ किसान (कृषि उत्पादक) थे. इनमें से 4.19 करोड़ (33 प्रतिशत) महिलाएं थीं. वर्ष 2011 में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में और कमी आई और यह घटकर 3.60 करोड़ (30.3 प्रतिशत) रह गई.

राज्य की स्थिति देखने पर हमें पता चलता है कि खाद्यान्न उत्पादन में नाम कमाने वाले पंजाब में कृषि श्रम करने वालों में केवल 14.6 प्रतिशत महिलाएं थीं. यह संख्या भी दस साल में घटकर 9.36 प्रतिशत रह गई. मध्य प्रदेश में 37.6 प्रतिशत महिलाएं किसान थीं, जो घटकर 33 प्रतिशत रह गईं. बहरहाल इससे हम अंतिम रूप से यह निष्कर्ष भी नहीं निकाल सकते हैं कि मुख्य काम के रूप में पंजाब में महिलाएं किसानी का काम नहीं कर रही हैं. इसका मतलब यह है कि किसान के रूप में उनकी भूमिका और योगदान को पहचाना नहीं जा रहा है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि उच्च सामाजिक-आर्थिक तबकों में महिलाओं का अस्तित्व तुलनात्मक रूप से ज्यादा उपेक्षित होता है.

वर्ष 2001 में किसानी का काम करने वालों में सबसे बेहतर स्थिति राजस्थान (46 प्रतिशत महिलाएं) और महाराष्ट्र (43.4 प्रतिशत महिलाएं) की थी. इन दोनों राज्यों में भी महिला किसानों की संख्या में कमी आई है.

खेती छोड़ने वालों में महिलाएं ज्यादाः इन दस सालों में जिन 86.20 लाख किसानों ने खेती छोड़ी, उनमें से 59.10 लाख (68.5 प्रतिशत) महिलाएं थीं. हरियाणा में खेती छोड़ने वाले 5.37 लाख किसानों में से 87.6 प्रतिशत (4.70 लाख) महिलाएं थीं. इसी तरह मध्य प्रदेश में ऐसे 11.93 लाख किसानों में से 75.5 प्रतिशत (9 लाख) महिलाएं थीं.

गुजरात में पुरुष किसानों की संख्या में 3.37 लाख की वृद्धि हुई, किंतु महिला किसानों की संख्या में 6.92 लाख की कमी हो गई. केवल राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहां किसानों (महिला-पुरुष) की संख्या में 4.78 लाख की वृद्धि हुई.  झारखंड एक ऐसा राज्य है जहां 1.14 लाख पुरुषों ने खेती छोड़ी है, किंतु इस काम में 39 हजार महिलाएं जुड़ी हैं.[/symple_box]

कृषि और महिलाएं यानी बेदखली

पूरे भारत में महिलाएं खेती के लिए जमीन तैयार करने, बीज चुनने, अंकुरण संभालने, बुआई करने, खाद बनाने, खरपतवार निकालने, रोपाई, निराई-गुड़ाई, भूसा सूपने और फसल की कटाई का काम करती हैं. वे ऐसे कई काम करती हैं जो सीधे खेत से जुड़े हुए नहीं हैं, पर कृषि क्षेत्र से संबंधित हैं. मसलन पशुपालन का लगभग पूरा काम उनके जिम्मे होता है. जहां मछली पालन होता है, वहां उनकी भूमिका बहुत अहम होती है. घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और मान्यता नहीं है. इस सबके बावजूद उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिलता है. खेती के काम में लिए जाने वाले निर्णयों में उनकी सहभागिता लगातार कम हुई है खास तौर पर तब से, जब से संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग और मशीनीकरण की व्यवस्था खेती की स्थानीय तकनीकों पर हावी हुई है. बाजार की परिभाषा में किसान होने की पहचान इस बात से तय होती है कि जमीन का आधिकारिक मालिक कौन है. इस बात से नहीं कि उसमें श्रम किसका लग रहा है.

फरवरी 2014 में जारी हुई कृषि जनगणना (2010-11) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में मौजूदा स्थिति में केवल 12.78 प्रतिशत कृषि जोतें महिलाओं के नाम पर हैं. स्वाभाविक है कि इस कारण से ‘कृषि क्षेत्र’ में उनकी निर्णायक भूमिका नहीं है. यह महज एक प्रशासनिक मामला नहीं है कि जमीन केे कागज पर किसका नाम है; वास्तव में यह एक आर्थिक-राजनीतिक विषय है, जिस पर सरकार कानूनी पहल नहीं कर रही है, क्योंकि उसका चरित्र भी तो पितृ-सत्तात्मक ही है.

घर के लिए जलाऊ लकड़ी, पशुओं के लिए घास, परिवार के लिए लघु वन उपज, पीने का पानी समेत हर काम में महिलाओं की श्रम भूमिका केंद्रीय है किंतु उसका सम्मान और पहचान नहीं है

समाज जानता है कि पुरुषों की तुलना में खेती महिलाओं के लिए संसाधन से ज्यादा सम्मान, जिम्मेदारी और भावनाओं का केंद्र है. कृषि जनगणना के मुताबिक भारत में वर्ष 2005-06 में कृषि जोतों की संख्या 12.92 करोड़ थी. जो वर्ष 2010-11 में बढ़कर 13.83 करोड़ हो गई, लेकिन कृषि भूमि में तो इजाफा हुआ नहीं. वास्तव में भूमि सुधार न होने और असमान वितरण के बाद अब भूमि अधिग्रहण के कारण जोतों के आकार लगातार छोटे हो रहे हैं. वर्ष 1970-71 में भारत में जोतों का औसत आकार 2.28 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2010-11 में घटकर 1.15 हेक्टेयर रह गया है. कुल किसानों में से 85.01 प्रतिशत किसान वे हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है, जो छोटे और सीमांत किसान कहलाते हैं. ऐसी स्थिति में जरूरी हो जाता है कि समाज उन तकनीकों से खेती करे जिनसे उत्पादन बढ़े, किंतुु मिट्टी और उसकी उर्वरता को नुकसान न पहुंचे. हरित क्रांति के जरिए थोपी गई तकनीकों, बीजों, रसायनों के कारण छोटी जोतों पर खेती करना नुकसानदायक ‘कर्म’ होता गया. जरा सोचिए कि जब 85 प्रतिशत किसान छोटे और मझौले हों, तब क्या खेती को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़ी काॅरपोरेट कंपनियों के हवाले किया जाना उचित और नैतिक है?

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तथ्यों में झांकने से पता चलता है कि विकास की मौजूदा नीति न केवल कृषि क्षेत्र के लिए घातक है, बल्कि इससे पैदा होने वाले अभावों और असुरक्षा के चलते लैंगिक भेदभाव की खाई और चौड़ी होती जाएगी (देखें बॉक्स). गैर-बराबरी को बढ़ाना विकास के मौजूदा दृष्टिकोण का मूल चरित्र है.

भारत में आज भी सभी महिलाओं को मातृत्व, स्वास्थ्य और सुरक्षा का अधिकार मयस्सर नहीं है. कृषि क्षेत्र (किसान और कृषि मजदूर दोनों ही संदर्भों में) में काम करने वाली महिलाओं के सामने एक तरफ तो सूखा, बाढ़, नकली बीज-उर्वरक-कीटनाशक-फसल के मूल्य का अन्यायोचित निर्धारण सरीखे संकट हैं ही इसके साथ ही उन्हें हिंसा-भेदभाव से मुक्ति और मातृत्व हक जैसे बुनियादी संरक्षण नहीं मिले हैं. वास्तव में हमें अपने विकास की धारा का ईमानदार आकलन करने की जरूरत है. बेहतर होगा कि यह आकलन लैंगिक बाल केंद्रित दृष्टिकोण से किया जाए. हम संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता चाहते हैं किंतु अपने किसानों की सुरक्षा तो कर नहीं पा रहे हैं. इससे आप अंदाजा लगा लें कि जिन सालों में देश की वृद्धि दर सबसे उल्लेखनीय मानी गई, उन सालों में समाज को क्या हासिल हो रहा था.