मां बनने का दुख!

Rehabilitation

ये यकीन से परे था, दो महीने पहले 13 साल की मूक-बधिर लड़की को गर्भपात के लिए एक अस्पताल में भर्ती किया गया. वो बेचारी ये तक नहीं जानती थी कि उसके साथ क्या हो रहा था. अस्पताल में उसके गर्भ को गिराया गया, उसकी वजह बलात्कार थी. दूसरी तरफ उसके घर का उजाड़ वातावरण वहां रहने वालों की मनोदशा जैसा ही था. पड़ोसी उस मासूम की मां गीता की मदद के लिए आते हैं, जो दो साल पहले अपने पति को खो चुकी हैं. उनके चेहरे पर सिर्फ डर और चिंता है, जिसकी वजह 37 साल के एक शख्स की घटिया हरकत है. ये उस शख्स ने किया जो न केवल उनका भरोसेमंद पड़ोसी था, बल्कि उनके परिवार के लिए एक भाई की तरह था.

अब तक, यौन उत्पीड़न और बलात्कार से जुड़े मामलों को आरोपियों की गिरफ्तारी तक ही रिपोर्ट किया जाता है. एक बार अगर आरोपी गिरफ्तार हो जाता है, तो ये मान लिया जाता है कि ये मामला अब खत्म हुआ, अब ‘पीड़िता’ और  उसका परिवार फिर से सामान्य जीवन जीने लगेगा. पर क्या ये कहना और सोचना इतना आसान है? इस दौरान जिस अहम चीज की उपेक्षा कर दी जाती है वह यह है कि पीड़िता किस तरह एक ‘सर्वाइवर’ में बदल जाती है. वो महिलाएं या लड़कियां, जो बलात्कार की वजह से मां बनती हैं और इसके अवांछित नतीजों का सामना करती हैं, उनके दर्द को शायद ही कोई समझ सके.

‘तहलका’ ऐसी ही कुछ महिलाओं और युवतियों की आवाज सामने ला रहा है, ये बताने के लिए कि उनकी जंग अभी भी खत्म नहीं हुई है. सौभाग्य से, इनमें से कुछ युवतियों के साथ समाज खड़ा होता है. बलात्कार की शिकार 13 साल की मासूस की पड़ोसी गौरी कहती हैं, ‘उसके दिन अच्छे थे जो वो जेल में है हमारे हाथ में आता तो मर चुका होता. अच्छा हुआ कि हम समय रहते बच्ची के गर्भ के बारे में जान गए, वरना पूरे समाज के सामने हमें शर्मिंदा होना पड़ता.’ दूसरी तरफ वो मासूम लड़की इस हादसे की वजह से हुए बदलावों से अनजान है, क्योंकि उसके मूक-बधिर होने के कारण उसे बलात्कार के जैविक परिणामों के बारे में प्रभावी ढंग से नहीं बताया जा सकता. उसकी मां गीता रोते हुए बताती हैं, ‘इस घटना का असर बस उसके डर में दिखता है.’ पीड़िता को धमकाया गया था कि अगर वो अपने साथ हुई घटना (बलात्कार) के बारे में किसी को बताएगी तो उसकी मां की हत्या कर दी जाएगी. उस मासूम की पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब वो अपने घर में इकट्ठी भीड़ को हैरानी भरे सवालिया नजरों से देखती है.

सामान्य तौर पर यौन उत्पीड़न के मामले उनके साथ होते हैं, जिन्हें असहाय के रूप में देखा जाता है और दुनिया भर में बच्चे ही इसका आसान शिकार बनते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से जाहिर होता है कि 2013 में बलात्कार की कुल 33,707 वारदातें सामने आईं, जो 2012 के मुकाबले 35.2 फीसदी ज्यादा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2002 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में 18 साल से कम उम्र की करीब 15 करोड़ लड़कियों और 7.3 करोड़ लड़कों ने किसी न किसी रूप में यौन हिंसा का सामना किया था. अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक 2002 में अमेरिका के प्रति 1000 बच्चों में 12 बच्चे यौन उत्पीड़न के शिकार थे. इन आंकड़ों की रोशनी में ‘तहलका’ ने न्यूयॉर्क टाइम्स की मशहूर लेखिका डलीन बेरी से संपर्क किया. डलीन एक पुरस्कृत पत्रकार, स्तम्भकार और संपादक रही हैं, जिन्होंने हाल ही में ऑनलाइन प्रकाशकों के लिए भी लिखना शुरू किया है. डलीन की जिंदगी का दूसरा पहलू ये है कि 13 साल की उम्र में वे भी यौन उत्पीड़न की शिकार हुई थीं.

अक्सर यही देखा जाता है कि बलात्कारी या आरोपी पीड़ित की जान-पहचान का ही होता है. ज्यादातर तो परिवार के बेहद विश्वस्त होते हैं. बेरी बताती हैं, ‘तमाम दूसरे बच्चों की तरह मैं भी सिंगल-पैरेंट वाले घर से थी. मां जरूरत से ज्यादा काम में व्यस्त रहती थीं, पिता होकर भी नहीं थे. शायद इसलिए मेरे उत्पीड़क के लिए मुझ तक पहुंचना आसान था. अगर माता-पिता साथ होते तो मुझ तक उसकी पहुंच इतनी आसान नहीं होती. मेरी मां उस पर अपने परिवार के किसी सदस्य की तरह विश्वास करती थीं.’

बलात्कार और उसके साथ जुड़े सदमे की वजह से ये युवतियां खुद को अकेला और अलग-थलग महसूस करती हैं. ऐसे में अगर वह गर्भवती हो जाएं, तब तो ये भावनाएं उन पर और ज्यादा हावी हो जाती हैं. तीन साल तक यौन उत्पीड़न की शिकार बनने के बाद बेरी ने आखिरकार अपने उत्पीड़क से शादी कर ली क्योंकि वे उसके बच्चे की कुंवारी मां बनने वाली थी. दुर्भाग्य से, उनके उत्पीड़न का ये सिलसिला यही खत्म नहीं हुआ. बेरी याद करती हैं, ‘1995 तक, मैं 21 साल की थीं, तीन बच्चे थे और चौथा जन्म लेने वाला था. मैं बाथरूम के फर्श पर बैठी थी और बच्चों समेत खुद को मारने की योजना बना रही थी.’

एक बार जब यौन उत्पीड़न से जुड़ी कानूनी-प्रक्रियाएं पूरी हो जाती हैं तो अक्सर औरत की लाचारगी, उसकी असहाय स्थिति की उपेक्षा कर दी जाती है. बेरी अपने आत्महत्या के बारे में सोचने की वजह बताती हैं, ‘मैं मरना चाहती थी क्योंकि मुझे लगता था कि जैसे खुद अपने शरीर पर भी मेरा कोई अख्तियार नहीं है, उसके साथ क्या हुआ या क्या होगा इस पर मेरा कोई वश नहीं है. मैं जैसे कोई कठपुतली थी जिसका कोई अपनी मर्जी के हिसाब से इस्तेमाल कर रहा था. ऐसा लग रहा था कि जैसे मेरा शरीर कोई औजार हो, कोई खिलौना हो और वह (पति) उसके साथ जो चाहे वो कर सकता था. मुझे लगता था कि मैं उस जिंदगी से कभी आजाद नहीं हो पाऊंगी और उस जिंदगी को मैं और ज्यादा नहीं जीना चाहती थी.’ पर उनका सौभाग्य था कि वे बच गईं. वह बताती हैं, ‘मैं अपने पति के चंगुल से तब तक नहीं निकल सकती थी जब तक कि मैं अपनी और बच्चों की खुद देखभाल करने लायक नहीं हो जाती. इसलिए मैंने एक योजना बनाई. मुझे एक नौकरी मिल गई. मैं बच्चों और खुद की सारी जिम्मेदारियां उठाना सीख गई और इन सबके दरम्यान धीरे-धीरे मेरा आत्मसम्मान विकसित हुआ, जिसने मुझमें भरोसा जगाया कि मैं उस आदमी से बच निकलने और अपने बलबूते पर जीवनयापन करने के योग्य थी.’

बेरी के उलट, बहुत सारी महिलाएं इन परिस्थितियों में खुद को पूरी तरह असहाय पाती हैं. भारत में, ऐसी पीड़िताओं को इन विपरीत परिस्थितियों से पार पाने और जिंदगी जीने में मदद करने के लिए तमाम परामर्शदाता या सलाहकार होते हैं. कई सलाहकार ‘रेप क्राइसिस इंटरवेंशन सेंटर्स’, राष्ट्रीय महिला आयोग, दिल्ली महिला आयोग जैसे संगठनों के साथ मिलकर पीड़िताओं की मदद करते हैं.

दिल्ली महिला आयोग की काउंसलर और वकील शुभ्रा मेंदीरत्ता बताती हैं, ‘एक बार जब शिकायत दर्ज हो जाती है तो हम पीड़िता और उसके परिवार के सदस्यों को हर तरह की भावनात्मक, कानूनी और चिकित्सकीय मदद देने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं.’ बलात्कार की शिकार बहुत सारी नाबालिग बच्चियां परिस्थितियों को नहीं समझ पातीं. ऐसे मामलों में माता-पिता की काउंसलिंग बहुत जरूरी हो जाती है. मेंदीरत्ता आगे बताती हैं, ‘माता-पिता बेटी से बलात्कार होने के बाद उसकी शादी को लेकर बेहद चिंतित हो जाते हैं. उन्हें काउंसलिंग की बेहद जरूरत होती है. एक बार जब पीड़िता भावनात्मक रूप से कुछ हद तक संभल जाती है तो हम उसके लिए काउंसलिंग सत्र नियमित कर देते हैं. पीड़िता की चिकित्सकीय जांच के दौरान सलाहकार उसके साथ रहते हैं और टू-फिंगर टेस्ट न हो इसके लिए दबाव भी डालते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी टू-फिंगर टेस्ट पर बैन लगा रखा है.’ अगर पीड़िता गर्भवती हो जाए और गर्भपात करना मुमकिन हो तो इसके लिए भी प्रावधान दिया गया है. हालांकि मेंदीरत्ता गर्भपात करवाने से असहमत हैं, ‘प्री-मैच्योर अबॉर्शन यानी समय पूर्व गर्भपात में बहुत सारी ऊर्जा का ह्रास होता है और लड़की को समुचित पोषण की जरूरत होती है. ये तभी हो सकता है जब सरकारी मुआवजे को तत्काल उपलब्ध कराया जाए.’ आगे बात करते हुए उन्होंने जिक्र किया कि ऐसे मुआवजों को उपलब्ध कराने की कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी है कि तत्काल राहत का इसका उद्देश्य ही बेमानी हो जाता है.

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम के मुताबिक, ‘सबसे पहला काम तो ये सुनिश्चित करना होता है कि सर्वाइवर्स के पास खुद के पैरों पर खड़े होने की क्षमता हो. उन्हें समाज से पूरा सहारा मिलना चाहिए. उन्हें हाथों हाथ लिए जाने की जरूरत है.’ ललिता के अब तक अनुभवों के आधार पर वो बताती हैं कि महिला के लिए यौन हिंसा सिर्फ शारीरिक कष्ट नहीं है, ये इससे कहीं ज्यादा है. कुछ समय तक के लिए तो उनके आत्म-अस्तित्व की भावना ही खत्म हो जाती है. वह खुद को किसी भी लायक नहीं समझती. एक बार जब वह इससे पार पाना सीख लेती हैं तो वह पहले से मजबूत हो जाती हैं और बलात्कार की वजह से पैदा हुए बच्चे का पालन-पोषण और उसके लिए लिए संघर्ष करने लगती हैं. कुमारमंगलम कहती हैं, ‘बच्चे का भला-बुरा इस बात पर निर्भर करता है कि मां भावनात्मक रूप से कितनी मजबूत है. आमतौर पर माताएं काफी मजबूत होती हैं और अपने बच्चों का लालन-पालन करने में समर्थ होती हैं.’ यहां भारतीय समाज को भी बेहतर भूमिका निभाने की जरूरत है. समाज को भी रेप सर्वाइवर और उसके बच्चों को स्वीकृति देनी होगी.

बलात्कार की शिकार युवतियों को पूरी आजादी तभी मिल पाएगी जब उनका सही से पुनर्वास हो, समाज संवेदनशीलता के साथ मां और उसके बच्चे का साथ दे

भारतीय समाज की पाखंडी प्रवृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कुमारमंगलम कहती हैं, ‘हाल ही में बलात्कार के एक मामले में एक खाप पंचायत ने फैसला लिया कि बलात्कारी से ही लड़की (जो नाबालिग थी) की शादी कर दी जाए तो लड़की सुरक्षित रहेगी. ये बेहद गलत है क्योंकि खुद लड़की की राय के बारे में किसी ने जरा भी फिक्र नहीं की.’ सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक और दूरगामी असर डालने वाला फैसला सुनाया है. फैसले के मुताबिक, बिन-ब्याही माताएं अपने बच्चों की संरक्षक हैं, पूर्ण अभिवावक हैं. कुमारमंगलम ये भी बताती हैं कि बलात्कार की शिकार डरी हुई होती हैं कहीं वे एचआईवी से संक्रमित तो नहीं हो चुकी हैं क्योंकि ज्यादातर बलात्कारी सीरियल रेपिस्ट भी होते हैं.

यौन उत्पीड़न का सामना कर चुकी ज्यादातर महिलाएं इसके लिए खुद को जिम्मेदार मानने लगती हैं. बलात्कार की शिकार युवतियों की जिंदगी में बदलाव लाने के संबंध में कुमारमंगलम बताती हैं, ‘सबसे पहला कदम तो खुद को दोष देने की प्रक्रिया पर रोक लगाना है, जो अपने आप में एक बहुत बड़ा कदम होगा. इसके बाद महिला को भौतिक या मनोवैज्ञानिक, हर स्तर पर आत्म-निर्भर बनाना है. उसमें ये विश्वास जगे कि उसके पास वह सब कुछ है जो जिंदगी जीने के लिए जरूरी है, उसके पास मकसद है. जरूरत पड़ने पर उन्हें ट्रेनिंग दी जाती है ताकि वे समाज में खुद के लिए एक जगह बनाने में समर्थ हों.’ शुभ्रा मेंदीरत्ता की राय है कि ये एक अंतहीन प्रक्रिया है. वह भी ललिता कुमारमंगलम जैसी ही राय रखती हैं और कहती हैं, ‘निश्चित तौर पर ये प्रक्रिया ऐसी है जैसे आपको हाथ थामकर चलना है. ऐसे मामलों में ये उसी तरह है जैसे आप घोड़े को पानी के पास ले जा रहे हों और उसे पीने की प्रक्रिया समझा रहे हों और उनमें ये विश्वास भर रहे हों कि वे ऐसा करके जी पाएंगी.

विपरीत परिस्थितियां लोगों को मजबूत बनाती हैं और ये पीड़िताएं अधिकांश लोगों के मुकाबले ज्यादा मजबूत होती हैं. इन्हें उनकी जरूरत की सारी चीजें उपलब्ध कराने के लिए निश्चित तौर पर एक सिस्टम विकसित होना चाहिए, लेकिन पीड़िताओं के अपने परिजनों-दोस्तों की भूमिका यहां सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. अगर वे उसके साथ मजबूती से खड़े होते हैं तो वह सारी मुश्किलों से पार पा जाएंगी. अगर परिजन-प्रियजन उसके साथ नहीं खड़े होंगे तो निश्चित ही ऐसा माहौल बनेगा जिसमें वह टूट जाएंगी. इन्हें पूरी तरह आजादी तभी मिल पाएगी जब उनका सही से पुनर्वास हो, समाज संवेदनशीलता के साथ मां और उसके बच्चे का साथ दे.

 (सभी नाम बदले गए हैं)