अफीम की घुट्टी है राष्ट्रवाद

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भारतवर्ष में दो धर्म हैं, विशेष रूप से. एक है ईसाई और दूसरा है इस्लाम. इनको आक्रांताओं वाला धर्म कहा जाता है, बाहर से आए हुए. अब इस आधार पर इन्हें मिलाया कैसे जाए. तो इसके आधार पर इनके खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है और दूसरों को लामबंद किया जा सकता है. यह कहा जाता है कि इन लोगों की पुण्यभूमि तो बाहर है, ये इस राष्ट्र के कैसे हो सकते हैं और अगर इनको होना है तो फिर इनको बदलना पड़ेगा. गुरु गोलवलकर की जो ‘बंच आॅफ थॉट्स’ है उसमें वे क्या कहते हैं? वे कहते हैं कि हम इन पर कैसे भरोसा करें? बाहर के हैं ये. इनको अपना सब कुछ बदलना पड़ेगा, अपना इतिहास भूलना पड़ेगा, इन्हें यहीं का होकर रहना पड़ेगा. तो यह जो अवधारणा है, यह तो राजनीतिक अवधारणा है. इसके भीतर सामाजिकता, ‘हम’ की भावना, शेयर्डनेस, खुशी में खुशी और दुख में दुखी, इस प्रकार की धरोहर को संजोकर चलने की प्रक्रिया कहां है, बताइए. इसमें कहां दिखाई पड़ रही है? इसमें तो ये कह रहे हैं कि ‘भई माइट इज राइट’, मैं जो कह रहा हूं, वही सही है.

देशप्रेम क्या है? देश क्या है, यह नहीं समझ में आ रहा. आप कह रहे हैं, झंडा और टेरेटरी देश है. लेकिन लोग कहां गए उसमें? भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का मतलब हुआ कि यहां के लोगों को खंड-खंड करना. राष्ट्र की जो अवधारणा है, वह है अधिकार के साथ व्यक्तियों का स्वप्रतिनिधित्व. जब अधिकार होंगे तो ही आप गवर्न कर पाएंगे न? बिना अधिकारों के कोई राष्ट्र सृजित नहीं होता, यह बाबा साहब भी मानते थे. अगर भाषा के आधार पर राष्ट्र सृजित होता तो अमेरिका और इंग्लैंड एक होने चाहिए थे, वे एक ही होते. क्योंकि वे दोनों ही अंग्रेजी बोलते हैं, साउथ अफ्रीका भी अंग्रेजी बोलता है. तो भाषा अगर आधार है, तो दो राष्ट्र, तीन राष्ट्र, पांच राष्ट्र कैसे हो गए? और भारतवर्ष में भी कुछ-कुछ अंग्रेजी बोली जाती है. कुछ पर्सेंट तो बोलते ही बोलते हैं. धर्म के आधार पर भी राष्ट्र सृजित नहीं होता. अगर ऐसा होता तो हिंदुस्तान और नेपाल दो राष्ट्र नहीं होते. तो इसलिए बाबा साहब का मानना था कि राष्ट्र की अवधारणा दर्शन के तौर पर तो एक विचार है लेकिन वास्तविकता में यह कई समूहों का जमावड़ा है. अगर राष्ट्र का सृजन होना है तो सभी समूहों के अनुपातिक अधिकारों को स्वतः प्रतिनिधित्व के लिए दिया जाना चाहिए, तब राष्ट्र बनेगा. अर्नेस्ट रेनन, कैलनर या मार्शल मोजेज, ये सब यही बता रहे हैं. लेकिन आप यह देखिए कि हम कर क्या रहे हैं. हम रिड्यूस कर रहे हैं, प्रतीकों के माध्यम से, व्यक्तियों को छोड़ रहे हैं, समूहों को छोड़ रहे हैं. समूहों के अधिकारों की तिलाजंलि देकर हम केवल प्रतीकों के माध्यम से राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र की बात कर रहे हैं. बड़े ही सेलेक्टिव ढंग से हम प्रतीक चुनते हैं. कभी गाय में राष्ट्रवाद ढूंढ़ने लगते हैं, कभी झंडे में ढूंढ़ने लगते हैं, कभी हम जमीन में ढूंढ़ने लगते हैं और कभी जेएनयू में ढूंढ़ने लगते हैं. और हमारा राष्ट्रवाद क्या इतना क्षीण है कि चार लड़कों के नारों से यह टूट जाएगा? तो कहीं न कहीं गहरी राजनीतिक साजिश दिखाई पड़ती है. आप कह सकते हैं कि व्यक्ति को छोड़कर, व्यक्ति के अधिकारों को छोड़कर, उनकी पीड़ा, उनका शोषण, उनकी उलाहना छोड़कर आप केवल और केवल ध्वज की बात कर रहे हैं, टेरिटरी की बात कर रहे हैं.

धर्म के आधार पर भी राष्ट्र सृजित नहीं होता. अगर ऐसा होता तो हिंदुस्तान और नेपाल दो राष्ट्र नहीं होते. बाबा साहब का मानना था कि राष्ट्र की अवधारणा एक विचार है लेकिन वास्तविकता में यह कई समूहों का जमावड़ा है. अगर राष्ट्र का सृजन होना है तो सभी समूहों के अनुपातिक अधिकारों को स्वतः  प्रतिनिधित्व के लिए दिया जाना चाहिए, तब राष्ट्र बनेगा

मेरा यह मानना है कि बाबरी मस्जिद की घटना हुई, क्या बाबरी मस्जिद घटना राष्ट्रवाद की निशानी है? 2002 में जो गुजरात में हुआ, क्या वह राष्ट्रवाद की घटना थी? आजकल गोडसे की सराहना की जा रही है, क्या वह राष्ट्रवाद की घटना है? तो राष्ट्रवाद में यदि आप समायोजित सांस्कृतिक समरसता की बात कर रहे हैं तो व्यक्तियों के प्रतिनिधित्व के अधिकार की भी तो बात करेंगे आप! उस पर बहस क्यों नहीं चलाई जा रही है? आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जो बात कर रहे हैं, मुझे नहीं लगता है कि उस परिभाषा के अंदर भारतीय समाज संगठित या एकत्रित रह सकता है, क्योंकि आप किसी भी राष्ट्र पर एकात्म तरीके से एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के तहत केवल एक विचारधारा को नहीं थोप सकते. यहां विभिन्न विचारधाराएं पनपती हैं और विभिन्नता में एकता हम लोग पढ़ते-पढ़ते बुढ़ा गए हैं.

अब शिवाजी जयंती पर महाराष्ट्र में क्या हुआ? एक मुस्लिम पुलिसवाले को जबरदस्ती क्या-क्या कहना पड़ा. तो यह तो पराकाष्ठा हो गई न. उसके बाद आप वेमुला का केस देखिए. अब उसमें आप ये तक कहने लगे कि वह दलित नहीं है. उसकी मौत पर भी जाति अस्मिता का संज्ञान लेने की आवश्यकता पड़ती है. और भड़ाना में क्या हुआ, पानीपत में क्या हुआ? उधर लव जिहाद भी चला, घर वापसी भी चली और अभी कोसी परिक्रमा दोबारा शुरू होने वाली है. मेरा यह मानना है कि जो घटनाएं हैं वे स्वतः प्रमाणित करती हैं कि असहिष्णुता कहीं न कहीं बढ़ रही है. संस्कृतिकर्मियों ने अपना मैडल वापस कर दिया, मैं उनकी बात नहीं कर रहा क्योंकि भारत की संस्कृति केवल और केवल उनके माध्यम से नहीं है. इस संस्कृति का एक बृहत आयाम है, जिसके भीतर हजारों-लाखों गांवों के रहने वाले लोग, आदिवासी लोग हैं. वे संस्कृति को चला रहे हैं और जिसका आप नाम भी नहीं लेते हैं, जिनके ऊपर हमारी भारतीय संस्कृति टिकी हुई है.

(लेखक  जेएनयू में प्रोफेसर हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)