सिटीलाइट्स की सबसे अच्छी बात है कि वो बाहर-गांव की एक फिल्म (मेट्रो मनीला) की कहानी पर हिंदुस्तानी पैरहन सलीके से चढ़ाती है. वह भट्ट प्रभाव में आकर विदेशी कहानी पर आधारित सिटीलाइट्स को ‘साया’ नहीं बनाती, राजकुमार को जॉन अब्राहम और हंसल मेहता को पुराने अनुराग बसु भी नहीं. हंसल फिल्म में चुटकुला तक अपना रखते हैं. वड़ा-पाव संग पारले-जी का डिनर, पत्रलेखा का पब में वाक-इन इंटरव्यू, राजकुमार का नशे में पत्रलेखा से नाचने को कहना, ऐसे कई चुभते दृश्य देसी निर्देशक-लेखक के अपने हैं.
फिल्म की भूख भी सच्ची है और उसकी उठती हूक भी, उसका लालच भी और उसकी आग भी, जो हमारा दिल भक्क से जलाती है. इस आग को हंसल कहां से लाए हैं, पता नहीं, लेकिन खालिस लाए हैं.