अमेरिका में मोदी, आसमान में मीडिया

बराक ओबामा ने सिर्फ नरेंद्र मोदी के लिए अपना दस्तरखान बिछाया हो, ऐसा नहीं है. इस साल रमजान के महीने में वे छह बार वाइट हाउस में इफ्तार डिनर दे चुके हैं और एक दिन उपवास भी रख चुके हैं. जाहिर है, उन्हें मालूम है कि अमेरिका की बदनीयती या नेकनीयती या नासमझी की वजह से इस्लामी दुनिया में उसके प्रति जो शत्रु भाव पैदा हुआ है, वह हथियारों से नहीं, दूसरी तरह के सरोकारों से ही ख़त्म होगा. लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत की उनके लिए कोई अहमियत ही नहीं है. 70 और 80 के दशकों में अमेरिका के लिए एशिया में जो हैसियत चीन रखता था, वह अब भारत की है. चीन अब अमेरिका के लिए दोस्त से ज्यादा प्रतिद्वंद्वी है और इस विशाल प्रतिद्वंद्वी की पूरी घेराबंदी के लिए अमेरिका को भारत जैसे विशाल देश से ज्यादा उपयुक्त साथी और कौन मिलेगा. इत्तेफाक से अमेरिका अगर अपने पीछे लगे चीन से परेशान है तो भारत अपने से काफी आगे खड़े चीन से. अगर आने वाले दशक एशिया के होने हैं तो एशिया में वह चीन के साथ-साथ भारत के भी दशक हों, इसके लिए भारत को अमेरिका जैसा मजबूत सहयोगी चाहिए. दरअसल नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा के बीच की बातचीत का सबसे अहम पहलू यही है- दोनों अगर साथ चलते हैं तो दोनों के हित सधते हैं. भारत के साथ इस दोस्ती में अमेरिका की हिचक बस इतनी होगी कि वह उस पाकिस्तान का क्या करे जो अपनी भौगोलिक हैसियत से दक्षिण एशिया में है, लेकिन अपनी मज़हबी पहचान के साथ पश्चिम एशिया के राजनीतिक समीकरणों से भी जुड़ा हुआ है.

जहां तक भारत और अमेरिका के आपसी लेनदेन का सवाल है, वहां इस दौरे के बावजूद दोनों ने एक-दूसरे की अपेक्षाएं पूरी की हों, ऐसा नहीं दिखता. सुरक्षा परिषद में भारत के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर अमेरिका ने एक लंबा कूटनीतिक जवाब दिया है जिसमें बदली हुई सुरक्षा परिषद में भारत की नुमाइंदगी बढ़ाने की ज़रूरत को रेखांकित भर किया गया है. अमेरिका सीधे-सीधे एक बार भी कहने को तैयार नहीं है कि वह भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन करता है. दूसरी तरफ विश्व व्यापार संगठन के समझौते को लेकर भी भारत ने अपना रुख़ बरक़रार रखा है कि जब तक भारत की खाद्य सुरक्षा का खयाल नहीं रखा जाता, तब तक ऐसे समझौते उसके लिए संभव नहीं हैं. शांतिपूर्ण ऐटमी सहयोग की बातचीत आगे बढ़ाने की बात है, लेकिन यह साफ़ नहीं है कि भारत में ऐटमी जवाबदेही कानून के मौजूदा रूप से नाखुश अमेरिकी कंपनियां अब यहां कारोबार करने को तैयार हैं या नहीं. बेशक, भारत ने मेक इन इंडिया नीति के तहत अमेरिका की प्रतिरक्षा कंपनियों को भारत आने का न्योता दिया है और नरेंद्र मोदी अमेरिका की 17 बड़ी कंपनियों के कर्ताधर्ताओं से निजी तौर पर मिले हैं, लेकिन उनकी दिलचस्पी के बावजूद उनके निवेश की ठोस हकीकत खुलनी अभी बाकी है.

बहरहाल, नरेंद्र मोदी के इस कामयाब अमेरिकी दौरे का सबसे बड़ा खतरा वही दिखाई पड़ता रहा जो उनकी अंदरूनी राजनीति में दिखाई पड़ता है- उनके पीछे किसी अविवेकी हुजूम की तरह खड़ा वह घोर दक्षिणपंथी और अतिराष्ट्रवादी तबका, जिसे देश में उसकी राजनीतिक हैसियत ने नई ताकत दे दी है और विदेश में उसकी आर्थिक हैसियत ने. यह तबका देश में लव जेहाद से लेकर सांस्कृतिक उन्माद तक फैलाता रहता है और विदेश में नरेंद्र मोदी के दौरे की ठोस हकीकत को नजरअंदाज कर कुछ इस तरह पेश करना चाहता है जैसे वे अमेरिका न गए हों, आसमान में उड़ रहे हों. दुर्भाग्य से इस देसी-विदेशी तबके के साथ वह नया भारतीय मीडिया भी खड़ा है जिसके भीतर तार्किक विश्लेषण का गुण लगातार कम हो रहा है. वरना संयुक्त राष्ट्र की जिस आम सभा में पौने दो सौ मुल्कों के नेता अपनी बारी आने पर 15-15 मिनट बोलने वाले हों, वहां नरेंद्र मोदी के हिंदी भाषण में भी ऐतिहासिकता खोजने की नासमझ कोशिश करता वह नहीं दिखता. इसी तरह मैडिसन स्क्वेयर गार्डन के कार्यक्रम में भी अपने देश के प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए टिकट ख़रीद कर बैठे उत्साही प्रवासी भारतीयों के ‘मोदी-मोदी’ के स्वाभाविक हुंकारे को वह अखिल अमेरिकी आह्वान में बदलने का उत्साह न दिखाता. या फिर भारत के वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के साथ हुई बदतमीज़ी को वह तरह-तरह के वीडियो पेश करके ढंकने की कोशिश न करता.

दरअसल यह एक आसान देशभक्ति है जो छोटे-छोटे कर्तव्य पूरे करके संतुष्ट हो लेती है और उसके बड़े दाम वसूल करना चाहती है. अमेरिकियों के लिए भारत आने पर वीजा या आप्रवासी भारतीयों के लिए जीवन भर का वीजा जैसी घोषणाओं के साथ मोदी ने इसकी शुरुआत की है. आने वाले दिनों में उसे कारोबार में रियायतें चाहिए, गुड़गांव और ग्रेटर नोएडा के फ्लैटों में इन्वेस्टमेंट के नाम पर लगाई गई रकम का शानदार रिटर्न चाहिए और हवाई अड्डों, सड़कों और इमारतों के बीच ऐसा साफ-सुथरा हिंदुस्तान चाहिए जहां धरती पर पांव रखने से वे गंदे न हों. इस तबके के लिए नरेंद्र मोदी का दौरा ऐतिहासिक होगा, लेकिन बाकी सवा अरब के भारत के लिए उसकी अहमियत क्या है. यह आने वाले दिन बताएंगे.

8 COMMENTS

  1. तहलका के लेखक विवेकशील आलोचनात्मक दृष्टिकोण से युक्त लेख लिखते है़ं।आम आदमी पर पडनेवाले सरकारी फैसलों की मार को समझानेवाला पत्र जो अभी तक सरकारी विज्ञापन का भौपू बनने से बचा हुआ है।

  2. Media forgets the class character of the Indians living in theUSA whose concern is as to become billioners ignoring the vast majority of Indians.

  3. kuch hi patrakar hain, adhiktar ke liye to category khoj pana mushkil hai. Maine bhi Modi ko vote diya tha but desh chalane ke liye. Woh ab mere drawing room pe kabja karke baith gaye hain. Pahle news channels dekhta tha, ab jaise hi channel kholo do ladkiyan Modi raga start kar deti hain. Jabardasti koi kitna dekhe? Kyon dekhe? Jiske liye vote diya tha woh kaam abhi initiate hi hua hai, kuch saal baad hi pata chalega, Modi kya kar paye? Main chahta hun Modi safal hon kyonki unki asafalata jo gaheri nirasha paida karegi woh behad peerajanak hogi.

  4. modi ko vote isliye nahi mila ki bo koi chamatkar karnebale hai, balki muslimtustikaran ke virodh me mila, jo party railway aur rakaskha utpadan jaise jo desh ki suraksha ke liye atyant sambedansheel hai me 100% fdi ka irada rakh desh ki suraksha se khilwad kar sakti hai usse aur kya ummid kari ja sakti hai,

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